राष्ट्रीय-राजनीति की दृष्टि से देश में उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र सबसे महत्वपूर्ण राज्य है, जहाँ से लोकसभा की 48 सीटें हैं। वहाँ हुआ राजनीतिक-परिवर्तन राष्ट्रीय-राजनीति को दूर तक प्रभावित करेगा। इस घटनाक्रम का गहरा असर विरोधी-एकता के प्रयासों पर भी पड़ेगा। हालांकि अभी स्थिति पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, पर लगता है कि अजित पवार ने अपने चाचा शरद पवार को उन्हीं के तौर-तरीकों से मात दे दी है। इस घटना से ‘महा विकास अघाड़ी’ की राजनीति पर सवालिया निशान लग गए हैं। पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के अनुसार 2019 में शिवसेना ने बीजेपी की पीठ में ‘छुरा घोंपने’ का जो काम किया था, उसका ‘बदला’ पूरा हो गया है। अजित पवार की बगावत से महाराष्ट्र के ‘महा विकास अघाड़ी’ गठबंधन की दरारें उजागर होने के साथ ही 2024 के चुनाव के लिए राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी-महागठबंधन की तैयारियों को धक्का लगा है।
भविष्य की राजनीति
फिलहाल एनसीपी की इस बगावत की तार्किक-परिणति का इंतज़ार करना होगा। क्या अजित पवार दल-बदल कानून की कसौटी पर खरे उतरते हुए पार्टी के विभाजन को साबित कर पाएंगे? क्या वे एनसीपी के नाम और चुनाव-चिह्न को हासिल करने में सफल होंगे? ऐसा हुआ, तो चाणक्य के रूप में प्रसिद्ध शरद पवार की यह भारी पराजय होगी। कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि यह शरद पवार का ही ‘डबल गेम’ है। उनकी राजनीतिक संलग्नता कहीं भी रही हो, वे बीजेपी के संपर्क में हमेशा रहे हैं। बीजेपी ने उनकी मदद से ही राज्य में शिवसेना की हैसियत कमज़ोर करने में सफलता प्राप्त की थी। इस समय उनकी पराजय अपनी बेटी को उत्तराधिकारी बनाने के कारण हुई है। एमवीए की विसंगतियों की पहली झलक पिछले साल शिवसेना में हुए विभाजन के रूप में प्रकट हुई। दूसरी झलक अब दिखाई पड़ी है। ताजा बदलाव का बीजेपी और एकनाथ शिंदे की शिवसेना पर भी असर होगा। तीनों पार्टियाँ इस अंतर्विरोध को किस प्रकार सुलझाएंगी, यह देखना होगा।
बगावत क्यों हुई?
अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे बड़े नेताओं की बग़ावत ने उस पार्टी को विभाजित कर दिया है, जिसे शरद पवार ने खड़ा किया था। इसके दो कारण समझ में आते हैं। एक, दीर्घकालीन राजनीतिक हित और दूसरे व्यक्तिगत स्वार्थ। यह विभाजन केवल पार्टी का ही नहीं है, बल्कि पवार परिवार का भी है। शरद पवार ने अपनी विरासत भतीजे को सौंपने के बजाय अपनी बेटी को सौंपने का जो फैसला किया, उसकी यह प्रतिक्रिया है। पार्टी के कार्यकर्ता इस फैसले से आश्वस्त नहीं थे। वे सत्ता के करीब रहना चाहते हैं, ताकि उनके काम होते रहें। अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल और अन्य नेताओं के खिलाफ चल रही ईडी वगैरह की कार्रवाई को भी एक कारण माना जा रहा है। प्रफुल्ल पटेल ने एक राष्ट्रीय दैनिक को बताया कि बगावत के दो प्रमुख कारण रहे। एक, शरद पवार स्वयं अतीत में बीजेपी की निकटता के हामी रहे हैं.. और दूसरे उनकी बेटी अब उनके सारे निर्णयों की केंद्र बन गई हैं और वे अपने फैसले को सब पर थोप रहे हैं। ईडी की कार्रवाई के बारे में उन्होंने कहा, एजेंसियों को मेरे खिलाफ कुछ मिला नहीं है। यों भी ईडी के मामलों से सामान्य कार्यकर्ता प्रभावित नहीं होता। उनकी दिलचस्पी तो अपने काम कराने में होती है।