देस-परदेश
इस्लामिक देशों में सऊदी
अरब और ईरान के बीच पुरानी प्रतिद्वंदिता है. उसके पीछे ऐतिहासिक कारण भी हैं.
पिछले कुछ वर्षों से यह इतनी कटु हो गई थी कि दोनों देशों ने आपसी राजनयिक-संबंध
भी तोड़ लिए थे. अब ये रिश्ते चीन की मध्यस्थता में फिर से कायम होने जा रहे हैं. इस्लामिक
देशों की एकता और सहयोग की दृष्टि से तथा आने वाले समय की वैश्विक-राजनीति की
दृष्टि से यह समझौता महत्वपूर्ण साबित होने वाला है.
बेशक दोनों देशों के
दूतावास अगले दो महीनों के भीतर काम करने लगेंगे, पर यह सब जितना आसान समझा जा रहा
है, उतना आसान भी नहीं है. इसीलिए इसे लागू करने के लिए दो महीने का समय रखा गया
है, ताकि सभी जटिलताओं को सुलझा लिया जाए.
चीन की भूमिका
दोनों देशों के बीच चार
दिन की बातचीत के बाद इस बात की घोषणा होने पर पर्यवेक्षकों को हैरत उतनी नहीं
हुई, जितनी इसमें चीन की भूमिका को लेकर विस्मय पैदा हुआ है. क्या चीन अब
वैश्विक-डिप्लोमेसी में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है? चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने इसे चीन के
ग्लोबल सिक्योरिटी इनीशिएटिव (जीएसआई) की देन बताया है.
पिछले सात दशकों से
पश्चिम एशिया में अमेरिका ही सबसे बड़ी भूमिका निभाता रहा है. यह पहला मौका है, जब
इस भूमिका में चीन सामने आया है. ऐसी बैठक कराने में अमेरिका सबसे समर्थ है, पर
ईरान के साथ उसके रिश्ते अच्छे नहीं हैं. फिर भी पश्चिमी पर्यवेक्षक मानते हैं कि
संबंध-सुधार की इस प्रक्रिया के पीछे भी अमेरिकी सहमति है, क्योंकि वह पश्चिम एशिया
में इसरायल-फलस्तीन झगड़े का निपटारा कराने के लिए ज़मीन तैयार कर रहा है.
अमेरिकी
रज़ामंदी
अमेरिका ने समझौते का
स्वागत किया है. ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता केरिन जीन-पियरे ने कहा कि यमन में युद्ध
रोकने की किसी भी कोशिश का अमेरिका समर्थन करता है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति
बाइडन ने जुलाई में इस इलाक़े में तनाव कम करने की कोशिश और राजनयिक रिश्तों को
मज़बूत करने के कदमों को अमेरिकी विदेश नीति की बुनियाद बताया था. खाड़ी क्षेत्र
में तनाव कम करना अमेरिका की प्राथमिकता है हम इस समझौते का समर्थन करते हैं.
दूसरे नज़रिए से
देखें, तो यह परिघटना अमेरिका को परेशान करने वाली होनी चाहिए, क्योंकि इससे ईरान
को अलग-थलग करने की उसकी कोशिश को धक्का लगेगा. इसके पीछे कौन सी ताकत है और किसकी
क्या भूमिका है, इसे स्पष्ट होने में भी कुछ समय लगेगा.
कड़वाहट की
वज़ह
2016 में प्रतिष्ठित शिया
धर्म गुरु निम्र अल-निम्र सहित 47 लोगों को आतंकवाद के
आरोपों में सऊदी अरब में फाँसी दिए जाने के बाद ईरान और सऊदी रिश्ते खराब हो गए.
इसके कारण जब भीड़ ने तेहरान स्थित सऊदी दूतावास पर हमला बोला, तो राजनयिक रिश्ते
भी टूट गए. इसके बाद रिश्ते बिगड़ते ही गए और 2019 ईरान में बने ड्रोनों ने जब
सऊदी तोल-शोधक कारखानों पर हमले किए तो और बिगड़ गए.
इन दोनों देशों की
प्रतिद्वंदिता का असर लेबनान, सीरिया, इराक़ और यमन समेत पश्चिम एशिया के कई देशों और समाजों
पर पड़ रहा है. इस इलाके में चल रहे सशस्त्र-आंदोलनों में इन देशों के समर्थन से
सक्रिय गुटों की भूमिका है. अभी तक अमेरिका और इसरायल की इन रिश्तों को बनाने और
बिगाड़ने में भूमिका थी, पर पिछले कुछ समय से चीन और रूस की गतिविधियाँ भी इस
इलाके में बढ़ी हैं. इस लिहाज से ताज़ा घटनाक्रम महत्वपूर्ण है.
प्रयासों की पृष्ठभूमि
गत 10 मार्च को ईरान
की सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के सेक्रेटरी अली शमखानी और सऊदी सुरक्षा
सलाहकार मुसाद बिन मुहम्मद अल-ऐबान की बैठक अप्रत्याशित घटना नहीं थी, क्योंकि
पिछले कुछ समय से ऐसी खबरें हवा में हैं कि दोनों के बीच अनौपचारिक स्तर पर बातचीत
होने लगी है. हैरत इस बैठक के स्थान को लेकर है, जो पश्चिम एशिया के किसी देश में
न होकर चीन में था, जिसकी अब तक पश्चिम की राजनीति में बड़ी भूमिका नहीं थी.