Thursday, August 19, 2021

कितना बदलाव आया है तालिबान में?

गायब होती औरत। बुशरा अलमुतवकील (यमन, जन्म 1969) का यह फोटो
कोलाज 'माँ-बेटी गुड़िया' हिजाब सीरीज-2010 की एक कृति है।
(साभार- म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट्स, बोस्टन) 
 Boushra Almutawakel (Yemen, b. 1969), Mother, Daughter, Doll
 from the Hijab series, 2010. (Courtesy Museum of Fine Arts, Boston)
यह बात बार-बार कही जा रही है कि तालिबान.1 यानी बीस साल पहले वाले तालिबान की तुलना में आज के यानी तालिबान.2 बदले हुए हैं। वे पहले जैसे तालिबान नहीं हैं। आज के इंडियन एक्सप्रेस में एमके भद्रकुमार ने लिखा है कि आज के तालिबान ने अफगानिस्तान के सभी समुदायों के बीच जगह बनाई है, उन्होंने पश्चिम और दोनों तरफ अपने वैदेशिक-रिश्ते बेहतर बनाए हैं और वे अपनी वैधानिकता को लेकर उत्सुक हैं। एमके भद्रकुमार पूर्व राजनयिक हैं और वे वर्तमान सरकार की विदेश-नीति से असहमति रखने वालों में शामिल हैं।

भद्रकुमार के अनुसार अफगानिस्तान में 1992 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सत्ता-परिवर्तन हुआ था, जो लम्बे समय तक चला नहीं। 1996 में अहमद शाह मसूद हटे और बगैर ज्यादा बड़े प्रतिरोध के तालिबान आए। इसबार भी करीब-करीब वैसा ही हो रहा है। अलबत्ता तीन तरह के अंतर दिखाई पड़ रहे हैं। पिछली बार के विपरीत इसबार राज-व्यवस्था बदस्तूर नजर आ रही है। इस बात का अंदाज तालिबान के नाटकीय संवाददाता सम्मेलन को देखने से लगता है।

दूसरे सत्ता का अंतिम रूप क्या होगा, इसका पता लगने में कुछ समय लगेगा। उसके पहले कोई अंतरिम व्यवस्था सामने आएगी। इसका मतलब है कि तालिबान सर्वानुमति को स्वीकार करेंगे।

तीसरे, पिछली दो बार के विपरीत इसबार अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासतौर से आसपास के देश, अंतरिम-व्यवस्था का निर्धारण कर रहे हैं। विजेता तालिबान राष्ट्रीय-सर्वानुमति की दिशा में विश्व-समुदाय की सलाह या निर्देश मानने को तैयार हैं। इस प्रकार से नए शीत-युद्ध का खतरा दूर हो रहा है और बड़ी ताकतें तालिबान को सकारात्मक तरीके से जोड़ पा रही हैं।

भद्रकुमार ने यह भी लिखा है कि भारत का अपने दूतावास को बंद करना समझ में नहीं आता है। भद्रकुमार का निष्कर्ष ऐसा क्यों है, पता नहीं। हमारा दूतावास बंद नहीं हुआ है, केवल स्टाफ वापस बुलाया गया है। बहरहाल वे लिखते हैं कि हमें नई अफगान नीति पर चलने का मौका मिला है, जो अमेरिकी संरक्षण से मुक्त हो। ऐसा शायद इसलिए है, क्योंकि सरकार की ज़ीरो सम दृष्टि है कि पाकिस्तानी जीत मायने भारत की हारपर यह भारत का परम्परागत नज़रिया नहीं है। हमें अफगान-राष्ट्र की अंतर्चेतना, परम्पराओं और संस्कृति तथा भारत के प्रति उनके स्नेह-भाव की जानकारी है।

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने मुज़ाहिदीन-समूहों (पेशावर सेवन) के साथ फौरन सम्पर्क स्थापित किया था, गो कि वे जानते थे कि इनके पाकिस्तान के साथ करीबी रिश्ते हैं। यह कहना पर्याप्त है कि भारतीय बयानिया (नैरेटिव) में खामियाँ हैं। हम एक पुरानी स्ट्रैटेजिक-डैप्थ की अवधारणा से उलझे हुए हैं और मानते हैं कि तालिबान पाकिस्तानी व्यवस्था के हाथ का खिलौना हैं।

Wednesday, August 18, 2021

तालिबान-सरकार को क्या मान्यता मिलेगी?

तालिबान-प्रवक्ता जबीहुल्ला मुज़ाहिद 
अफगानिस्तान में तालिबान की स्थापना करीब-करीब पूरी हो चुकी है। अब दो सवाल हैं। क्या विश्व-समुदाय उन्हें मान्यता देगा?  इसी से जुड़ा दूसरा सवाल है कि भारत क्या करेगा?  आज के टाइम्स ऑफ इंडिया ने सरकारी सूत्र के हवाले से खबर दी है कि विश्व का लोकतांत्रिक-ब्लॉक जो फैसला करेगा भारत उसके साथ जाएगा। इसका मतलब है कि दुनिया में ब्लॉक बन चुके हैं और जिस शीतयुद्ध की बातें हो रही थीं, वह अफगानिस्तान में अब लड़ा जाएगा।

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिद्वंद्विता तो है ही, पर ज्यादा बड़ा टकराव पश्चिमी देशों और रूस के बीच है। इसके अलावा अब चीन भी बड़ा दावेदार है और वह तालिबान के समर्थन में उतर आया है। सोवियत संघ ने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर धावा बोला था। उसका सामना तब अफ़ग़ान मुजाहिदीन से हुआ था, जिन्हें अमेरिका, ब्रिटेन और पाकिस्तान का समर्थन हासिल था। पिछले दो दिन में तालिबान-विरोधी पुराना नॉर्दर्न अलायंस पंजशीर-प्रतिरोध के नाम से खड़ा हो गया है, जिसके नेता पूर्व उपराष्ट्रपति अमीरुल्ला सालेह हैं, जिनका कहना है कि राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति ही कार्यवाहक राष्ट्रपति होता है। अफगान सेना से जुड़े ताजिक मूल के काफी सैनिक इस समूह में शामिल हो गए हैं।

लोकतांत्रिक-ब्लॉक

सवाल है कि क्या लोकतांत्रिक-ब्लॉक पंजशीर-रेसिस्टेंस को उसी तरह मान्यता देगा, जिस तरह से नब्बे के दशक में बुरहानुद्दीन रब्बानी को मान्यता दी गई थी। ध्यान दें कि अफगानिस्तान में पंजशीर अकेला ऐसा क्षेत्र है, जो तालिबानी नियंत्रण के बाहर है और इस बात की उम्मीद नहीं कि तालिबान उसपर कब्जा कर पाएंगे। पश्चिमी पर्यवेक्षकों का विचार है कि अमेरिका ने गलती की। उसके 3000 सैनिक तालिबान को रोकने के लिए काफी थे। बहरहाल अगले कुछ दिन में तय होगा कि अफगानिस्तान में ऊँट किस करवट बैठने वाला है।

Tuesday, August 17, 2021

अफगान सेना ने इतनी आसानी से हार क्यों मानी?


पिछले महीने 8 जुलाई को एक अमेरिकी रिपोर्टर ने राष्ट्रपति जो बाइडेन से पूछा, क्या तालिबान का आना तय है? इसपर उन्होंने जवाब दिया, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। अफगानिस्तान के पास तीन लाख बहुत अच्छी तरह प्रशिक्षित और हथियारों से लैस सैनिक हैं। उनकी यह बात करीब एक महीने बाद न केवल पूरी तरह गलत साबित हुई, बल्कि इस तरह समर्पण दुनिया के सैनिक इतिहास की विस्मयकारी घटनाओं में से एक के रूप में दर्ज की जाएगी।  

अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के विशेषज्ञ मैक्स बूट ने अपने अपने लेख में सवाल किया है कि अमेरिका सरकार ने करीब 83 अरब डॉलर खर्च करके जिस सेना को खड़ा किया था, वह ताश के पत्तों की तरह बिखर क्यों गई? उसने आगे बढ़ते तालिबानियों को रोका क्यों नहीं, उनसे लड़ाई क्यों नहीं लड़ी?

भारी हतोत्साह

बूट ने लिखा है कि इसका जवाब नेपोलियन बोनापार्ट की इस उक्ति में छिपा है, युद्ध में नैतिक और भौतिक के बीच का मुकाबला दस से एक का होता है। पिछले बीस साल में अफगान सेना ने एयर-पावर, इंटेलिजेंस, लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग और दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में अमेरिकी समर्थन के सहारे काम करना ही सीखा था और अमेरिकी सेना की वापसी के फैसले के कारण वह बुरी तरह हतोत्साहित थी। अफगान स्पेशल फोर्स के एक ऑफिसर ने वॉशिंगटन पोस्ट को बताया कि जब फरवरी 2020 में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने तालिबान के साथ सेना वापस बुलाने के समझौते पर दस्तखत किए थे, तब अफगानिस्तान के अनेक लोगों के मान लिया कि अब अंत हो रहा है और अफगान सेना को विफल होने के लिए अमेरिका हमारे हाथों से अपना दामन छुड़ा रहा है।  

Monday, August 16, 2021

कौन हैं तालिबान

तालिबानी नेताओं के साथ बैठे मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर

अरबी शब्द तालिब का अर्थ है तलब रखने वाला, खोज करने वाला, जिज्ञासु या विद्यार्थी। अरबी में इसके दो बहुवचन हैं-तुल्लाब और तलबा। भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान में इसका बहुवचन तालिबान बन गया है। मोटा अर्थ है इस्लामी मदरसे के छात्र। अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान खुद को अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात का प्रतिनिधि कहते हैं। नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उस दौर में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने वाले मुजाहिदीन के कई गुट थे। इनमें सबसे बड़े समूह पश्तून इलाके से थे।

पश्तो-भाषी क्षेत्रों के मदरसों से निकले संगठित समूह की पहचान बनी तालिबान, जो 1994 के आसपास खबरों में आए। तालिबान को बनाने के आरोपों से पाकिस्तान इनकार करता रहा है, पर इसमें  संदेह नहीं कि शुरुआत में तालिबानी पाकिस्तान के मदरसों से निकले थे। इन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सऊदी अरब ने धन मुहैया कराया। इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था। चूंकि सोवियत संघ के खिलाफ अभियान में अमेरिका भी शामिल हो गया, इसलिए उसने भी दूसरे मुजाहिदीन समूहों के साथ तालिबान को भी संसाधन, खासतौर से हथियार उपलब्ध कराए।

अफगानिस्तान से सोवियत संघ की वापसी के बाद भी लड़ाई चलती रही और अंततः 1996 में तालिबान काबुल पर काबिज हुए और 2001 तक सत्ता में रहे। इनके शुरुआती नेता मुल्ला उमर थे। सोवियत सैनिकों के जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग मुजाहिदीन की ज्यादतियों और आपसी संघर्ष से परेशान थे इसलिए पहले पहल तालिबान का स्वागत किया गया। भ्रष्टाचार रोकने, अराजकता पर काबू पाने, सड़कों के निर्माण और कारोबारी ढांचे को तैयार करने और सुविधाएं मुहैया कराने में इनकी भूमिका थी।

तालिबान ने सज़ा देने के इस्लामिक तौर तरीकों को लागू किया। पुरुषों और स्त्रियों के पहनावे और आचार-व्यवहार के नियम बनाए गए। टेलीविजन, संगीत और सिनेमा पर पाबंदी और 10 साल से अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी गई। उस तालिबान सरकार को केवल सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने मान्यता दी थी। 11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया का ध्यान तालिबान पर गया।

अमेरिका पर हमले के मुख्य आरोपी ओसामा बिन लादेन को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा। अमेरिका ने तालिबान से लादेन को सौंपने की माँग की, जिसे तालिबान ने नहीं माना। इसके बाद 7 अक्टूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सैनिक गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन ख़त्म हो गया।

ओसामा बिन लादेन और तालिबान प्रमुख मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके साथी अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे। दोनों पाकिस्तान में छिपे रहे और एबटाबाद के एक मकान रह रहे लादेन को अमेरिकी कमांडो दस्ते ने 2 मई 2011 को हमला करके मार गिराया। इसके बाद अगस्त, 2015 में तालिबान ने स्वीकार किया कि उन्होंने मुल्ला उमर की मौत को दो साल से ज़्यादा समय तक ज़ाहिर नहीं होने दिया। मुल्ला उमर की मौत खराब स्वास्थ्य के कारण पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई थी।

तमाम दुश्वारियों के बावजूद तालिबान का अस्तित्व बना रहा और उसने धीरे-धीरे खुद को संगठित किया और अंततः सफलता हासिल की। उसे कहाँ से बल मिला, किसने उसकी सहायता की और उसके सूत्रधार कौन हैं, यह जानकारी धीरे-धीरे सामने आएगी। वर्तमान समय में तालिबान के चार शिखर नेताओं के नाम सामने आ रहे हैं, जो इस प्रकार हैं: 1.हिबतुल्‍ला अखुंदज़ादा, 2. मुल्ला बारादर, 3.सिराजुद्दीन हक्कानी और 4.मुल्ला याकूब, जो मुल्ला उमर का बेटा है। इनकी प्रशासनिक संरचना अब सामने आएगी। सत्ता किन तालिबान नेताओं के हाथ में आएगी? इस सवाल के जवाब में जिन दो नामों पर सबसे है ज़्यादा चर्चा है, वे हैं- मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर और हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा।

 

तालिबानी-विजय के बाद

काबुल हवाई अड्डे पर लगी भारी भीड़

अफगानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। राष्ट्रपति अशरफ ग़नी, उपराष्ट्रपति अमीरुल्ला सालेह और उनके सहयोगी देश छोड़कर चले गए हैं। फौरी तौर पर लगता है कि सरकार के भीतर उनके ही पुराने सहयोगियों ने उनसे सहयोग नहीं किया या वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए तालिबान से मिल गए हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वहाँ की अंतरिम व्यवस्था पर विचार-विमर्श चल ही रहा है। इसमें कुछ समय लगेगा। यह व्यवस्था इस बात की गारंटी नहीं कि देश में सब कुछ सामान्य हो जाएगा। उधर देशभर में अफरा-तफरी है। काबुल हवाई अड्डे पर भारी भीड़ जमा है। लोग भागना चाहते हैं, पर हवाई सेवाएं बंद हो गई हैं। भीड़ को काबू करने के लिए गोलियाँ चलानी पड़ीं, जिसमें पाँच लोगों की मौत की खबर है। तमाम लोग बेघरबार हो गए हैं। वे नहीं जानते कि उनके परिवार का क्या होगा। 

बीबीसी हिन्दी ेक अनुसार तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़े और फ़तह का एलान करने के एक दिन बाद एक नया वीडियो जारी किया है। इस वीडियो में तालिबान के उपनेता ने कहा है कि अब अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के लिए कुछ करने और उनकी ज़िंदगी बेहतर करने का समय आ गया है। तालिबान के लड़ाकों के साथ बैठे मुल्ला बरादर अखुंद ने इस वीडियो में कहा है- "अब आज़माइश का वक़्त आ गया है, हम सारे देश में अमन लाएँगे, हम लोगों की ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए जहाँ तक बन पड़ेगा प्रयास करेंगे।"

फिलहाल तालिबान अपने चेहरे को सौम्य और सहिष्णु बनाने का प्रयास कर रहे हैं, पर उनका यकीन नहीं किया जा सकता। इस सौम्यता के पीछे दो कारण हैं। एक, वे अपने कठोर व्यवहार की परिणति देख चुके हैं, जिसके कारण वे अलग-थलग पड़ गए थे। दूसरे वे अभी वैश्विक-मान्यता चाहते हैं। अपने पहले दौर में उन्हें केवल तीन देशों ने मान्यता दी थी। हालांकि अपने अंतर्विरोधों के भार से वे खुद ढह गए और अमेरिका ने उनपर हमला कर दिया।

ऐसा नहीं भी हुआ होता, तब भी वह व्यवस्था ध्वस्त होती, क्योंकि मध्ययुगीन समझ के साथ कोई व्यवस्था आज नहीं चल सकती है। फिलहाल उन्हें वैश्विक-मान्यता दिलाने में अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, जिसके साथ उन्होंने सम्पर्क बनाकर रखा है। इसके अलावा वे चीन और रूस के सम्पर्क में भी हैं। हो सकता है वे डबल गेम खेल रहे हों। बहरहाल इंतजार कीजिए।

अमेरिकी साख

इस पूरे प्रकरण में अमेरिका की साख सबसे ज्यादा खराब हुई है। ऐसा लग रहा है कि बीस साल से ज्यादा समय तक लड़ाई लड़ने के बाद अमेरिका ने उसी तालिबान को सत्ता सौंप दी, जिसके विरुद्ध उसने लड़ाई लड़ी। ऐसा क्यों हुआ और भविष्य में क्या होगा, इसका विश्लेषण करने में कुछ समय लगेगा, पर इतना तय है कि पिछले बीस वर्ष में इस देश के आधुनिकीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह एक झटके में खत्म हो गई है। खासतौर से स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नई दृष्टि से सोचने वाले युवक-युवतियाँ असमंजस में हैं। तमाम स्त्रियाँ इस दौरान, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, पुलिस अधिकारी और प्रशासक बनी थीं, उनका भविष्य गहरे अंधेरे में चला गया है।