Sunday, June 21, 2020

चीनी दुराभिमान टूटना चाहिए


चीन की स्थिति ‘प्यादे से फर्जी’ वाली है। उसे महानता का इलहाम हो गया है। ऐसी गलतफहमी नाजी जर्मनी को भी थी। लद्दाख में उसने धोखे से घुसपैठ करके न केवल भारत का बल्कि पूरी दुनिया का भरोसा खोया है। ऐसा संभव नहीं कि वैश्विक जनमत को धता बताकर वह अपने मंसूबे पूरे कर लेगा। भारत के 20 सैनिकों ने वीर गति प्राप्त करके उसकी धौंसपट्टी को मिट्टी में मिला दिया है। यह घटना इतिहास के पन्नों में इसलिए याद रखी जाएगी, क्योंकि इसके बाद न केवल भारत-चीन रिश्तों में बड़ा मोड़ आएगा, बल्कि विश्व मंच पर चीन की किरकिरी होगी। उसकी कुव्वत इतनी नहीं कि वैश्विक जनमत की अनदेखी कर सके।

वैश्विक मंच के बाद हमें अपनी एकता पर भी एक नजर डालनी चाहिए। भारत-चीन मसले को आंतरिक राजनीति से अलग रखना चाहिए। शुक्रवार को हुई सर्वदलीय बैठक में हालांकि प्रकट रूप में एकता थी, पर कुछेक स्वरों में राजनीतिक पुट भी था। बैठक में प्रधानमंत्री के एक बयान को तोड़-मरोड़कर पढ़ने की कोशिशें भी हुई हैं। प्रधानमंत्री का आशय केवल इतना था, ‘न कोई हमारी सीमा में घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी के कब्जे में है।’ बात कहने के तरीके से ज्यादा महत्वपूर्ण उनका आशय है। हमारा लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, पर इस स्वतंत्रता का उद्देश्य भारतीय राष्ट्र राज्य की रक्षा है। उसे बचाकर रखना चाहिए।

Saturday, June 20, 2020

कुछ ज्यादा ही जोश में है चीनी पहलवान


यह मध्यांतर है, अंत नहीं। भारत-चीन टकराव का फौरी तौर पर समाधान निकल भी जाए, पर यह पूरा समाधान नहीं होगा। यह दो प्राचीन सभ्यताओं की प्रतिस्पर्धा है, जिसकी बुनियाद में हजारों साल पुराने प्रसंग हैं। दूर से इसमें पाकिस्तान हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है, पर वह है। वह भी हमारे ही अंतर्विरोधों की देन है। साजिश में नेपाल भी शामिल है। गलवान में जो हुआ, उसके पीछे चीन की हांगकांग, ताइवान, वियतनाम और जापान से जुड़ी प्रतिस्पर्धा भी काम कर रही है। लगता है कि चीनी पहलवान कुछ ज्यादा ही जोश में है और सारी दुनिया के सामने ताल ठोक रहा है। यह जोश उसे भारी पड़ेगा।

गलवान टकराव पर 6 जून की बातचीत शुरू होने के ठीक पहले चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपनी पश्चिमी थिएटर कमांड के प्रमुख के रूप में लेफ्टिनेंट जनरल शु छीलिंग को भेजा था, जो उनके सबसे विश्वस्त अधिकारी है। पता नहीं वे टकराव को टालना चाहते थे या बढ़ाना, पर टकराव के बाद दोनों देशों जो प्रतिक्रिया है, उसे देखते हुए लगता है कि फिलहाल लड़ना नहीं चाहते।

टकराव होगा, पर कहाँ?

दोनों की इस झिझक के बावजूद ऐसे विशेषज्ञों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि भारत-चीन के बीच एक बार जबर्दस्त लड़ाई होगी, जरूर होगी। युद्ध हुआ, तो न हमारे लिए अच्छा होगा और न चीन के लिए। चीन के पास साधन ज्यादा हैं, पर हम इतने कमजोर नहीं कि चुप होकर बैठ जाएं। हमारी फौजी ताकत इतनी है कि उसे गहरा नुकसान पहुँचा दे। हमारा जो होगा, सो होगा। जरूरी नहीं कि टकराव अभी हो और यह भी जरूरी नहीं कि हिमालय में हो।

Wednesday, June 17, 2020

आज के अखबार

भारत-चीन सीमा पर टकराव का ऐसा मौका करीब 45 साल बाद आया है. इस टकराव के राजनीतिक और सामरिक निहितार्थ हैं, पर हमारे अखबारों ने इस खबर को किस प्रकार प्रकाशित किया है, यह देखना उपयोगी होगा. एक और ध्यान देने वाली बात है कि भारत के सभी महत्वपूर्ण अखबारों में यह खबर पहले सफे पर लीड के रूप में है, जबकि चीन के अखबारों में पहले पेज पर भी नहीं है. चीन के सबसे बड़े अखबार 'रन मन रिपाओ' (पीपुल्स डेली) में यह खबर है ही नहीं, जबकि ग्लोबल टाइम्स के चीनी संस्करण में पेज 16 पर एक कोने में है. भारतीय अखबारों में सबसे अलग किस्म की कवरेज कोलकाता के टेलीग्राफ में है, जिसने सरकार पर कटाक्ष किय़ा है. टेलीग्राफ अब अपने कटाक्षों के लिए इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि उसपर ज्यादा ध्यान नहीं जाता. अलबत्ता यह विचार का विषय जरूर है. किसी दूसरे अवसर पर मैं इस बारे में अपना विचार जरूर लिखूँगा. यों आज ज्यादातर अखबारों ने तथ्यों को ही पेश किया है और शीर्षक में अपनी टिप्पणी से बचे हैं. केवल भास्कर में 'पीठ पर वार' जैसी अभिव्यक्ति है. बहरहाल अखबारों पर नजर डालें. 








Sunday, June 14, 2020

राजनीति का आभासी दौर!

कोविड-19 के वैश्विक हमले के कारण एक अरसे की अराजकता के बाद रथ का पहिया वापस चलने लगा है। आवागमन शुरू हो गया है, दफ्तर खुलने लगे हैं और कारखानों की चिमनियों से धुआँ निकलने लगा है। कोरोना ने जो भय पैदा किया था, वह खत्म नहीं हुआ है। पर दुनिया का कहना है कि सब कुछ बंद नहीं होगा। गति बदलेगी, चाल नहीं। उत्तर कोरोना परिदृश्य के तमाम पहलू हमारे जीवन की दशा और दिशा को बदलेंगे। रहन-सहन, खान-पान, सामाजिक सम्पर्क और सांस्कृतिक जीवन सब कुछ बदलेगा। सिनेमाघरों, रंगमंचों और खेल के मैदानों का रंग-रूप भी। खेल बदलेंगे, खिलाड़ी बदलेंगे। सवाल है क्या राजनीति भी बदलेगी?

जनवरी-फरवरी के बाद के वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें, तो पहली नजर में लगता है कि बीमारी ने राजनीति को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। हम एक नई दुनिया में प्रवेश करने जा रहे हैं, जहाँ मनुष्य के हित सर्वोपरि होंगे, स्वार्थों के टकराव खत्म होंगे, जो राजनीति की कुटिलता के साथ रूढ़ हो गए हैं। वास्तव में ऐसा हुआ नहीं, बल्कि पृष्ठभूमि में राजनीति चलती रही। दुनिया की बात छोड़िए, हमारे देश में लॉकडाउन की घोषणा के ठीक पहले मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ। उस दौरान दोनों तरफ से खुलकर राजनीति हुई। कोरोना के बावजूद विधानसभा की बैठक हुई। नई सरकार आई। संसद के सत्र को लेकर बयानबाज़ी हुई, प्रवासी मजदूरों के प्रसंग के पीछे प्रत्यक्ष राजनीति थी। लॉकडाउन की घोषणा भी। 

लोकतांत्रिक महा-दुर्घटना के मुहाने पर अमेरिका


अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक तरफ कोरोना वायरस की मार से पीड़ित हैं कि जॉर्ज फ़्लॉयड के प्रकरण ने उन्हें बुरी तरह घेर लिया है। आंदोलन से उनकी नींद हराम है। क्या वे इस साल के चुनाव में सफल हो पाएंगे? चुनाव-पूर्व ओपीनियन पोल खतरे की घंटी बजा रहे हैं। ऐसे में गत 26 मई को ट्रंप ने एक ऐसा ट्वीट किया, जिसे पढ़कर वह अंदेशा पुख्ता हो रहा है कि चुनाव हारे तो वे राष्ट्रपति की कुर्सी नहीं छोड़ेंगे। यानी नतीजों को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। और इससे अमेरिका में सांविधानिक संकट पैदा हो जाएगा।