Monday, March 11, 2019

चुनावी मुद्दा बनेगा राष्ट्रवाद!

चुनाव घोषित होने के बाद अब सबका ध्यान इस बात पर जाएगा कि मतदाता किस बात पर वोट डालेगा। तीन महीने पहले हुए पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों के दौरान जो मुद्दे थे, वे अब पूरी तरह बदल गए हैं।  हाल में रायटर्स ने एक लम्बी रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर भारतीय वायुसेना के हमले से देश के ग्रामीण इलाकों में पिछले कुछ समय से छाई निराशा के बादल छँटते नजर आ रहे हैं। देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है और देश की राजनीति की दिशा तय करने में गाँवों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। रायटर्स ने इस सिलसिले में किसानों से बात की है। अपनी बदहाली से नाखुश होने के बावजूद किसानों को लगता है कि मोदी अगर पाकिस्तान को सबक सिखाता है, तो अच्छी बात है। पर यह सब देशभक्ति तक सीमित नहीं होगा, राष्ट्रवाद का अर्थ, उसकी जरूरत, भारतीय राष्ट्र राज्य की संरचना, उसकी अवधारणा और उसका विकास ये सारे मुद्दे उसमें शामिल होंगे। हमारे यहाँ किसी वजह से कुछ लोग राष्ट्रवाद का नाम सुनकर ही भड़कने लगते हैं। जबकि जरूरत इस विषय पर गहराई से जाने की है।  

Saturday, March 9, 2019

कांग्रेस का ‘सर्जिकल-संकट’


http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//09032019//09032019-md-hst-2.pdf
कांग्रेस नेता बीके हरिप्रसाद ने पिछले गुरुवार को कहा कि पुलवामा आतंकी हमला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच ‘मैच फिक्सिंग’ का नतीजा है। उनका कहना था कि पुलवामा हमले के बाद के घटनाक्रम पर यदि आप नजर डालेंगे तो पता चलता है कि यह पीएम नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच मैच फिक्सिंग थी।  हरिप्रसाद कांग्रेस के बहुत बड़े नहीं, तो छोटे नेता भी नहीं हैं। पिछले साल राज्यसभा के उप सभापति के चुनाव में पार्टी ने कर्नाटक के इस सांसद को अपना प्रत्याशी बनाया था। हालांकि कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने बाद में सफाई दी, बीके हरिप्रसाद ने जो भी कहा है कि वह पार्टी का स्टैंड नहीं है, उनकी अपनी राय है। पर कैसी राय? उन्होंने मामूली बात नहीं कही है। साफ है कि पार्टी ने उनके बयान की अनदेखी की। यह अनदेखी सायास थी या अनायास?

मंदिर-मस्जिद विवाद के समाधान की दिशा में पहला बड़ा कदम

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की जो पहल की है, उससे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं बाँधनी चाहिए, पर इसे समाधान की दिशा में पहला बड़ा कदम माना जा सकता है। इसकी कुछ बड़ी वजहें हैं। एक, अदालत ने तीनों मध्यस्थों को तय करते समय इस बात का ख्याल रखा है कि वे पूर्वग्रह से मुक्त हों। तीनों दक्षिण भारतीय हैं और उत्तर भारत के क्षेत्रीय विवादों से दूर हैं। कहा जा सकता है कि समाधान के प्रयासों से श्रीश्री रविशंकर पहले से जुड़े हैं। वे कई बार समाधान के प्रयास कर चुके हैं, इसलिए इससे जुड़े मुद्दों के बेहतर समझते हैं। दोनों पक्षों के साथ उनके सम्बन्ध मधुर हैं। पर उनकी तटस्थता को लेकर आपत्तियाँ हो सकती हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके पहले हुई मध्यस्थताओं और इसबार में अंतर है। यह कोर्ट की निगरानी में चलने वाली मध्यस्थता है, इसमें एक अनुभवी न्यायाधीश शामिल हैं और मध्यस्थों को एक समय सीमा दी गई है। फिर वे मध्यस्थ हैं, समझौता पक्षकारों के बीच होगा, मध्यस्थों की भूमिका उसमें मदद करने की होगी। वे जज नहीं हैं। तीसरे, मध्यस्थता से हासिल हुए समझौते में कटुता नहीं होगी, किसी पक्ष की हार या किसी की जीत की भावना नहीं होगी। चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मामले पर अब जो भी होगा, वह लोकसभा चुनाव के बाद होगा। मध्यस्थ किसी समझौते पर पहुँचे भी तो इसमें दो महीने लगेंगे। यानी कि मई के दूसरे हफ्ते से पहले कुछ होगा नहीं और उसी वक्त चुनाव परिणाम आ रहे होंगे। उसके बाद अदालती कार्यवाही चलेगी।

Friday, March 8, 2019

राजनीति के दरवाजे से बाहर क्यों हैं स्त्रियाँ?

http://inextepaper.jagran.com/2059095/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/08-03-19#page/14/1
बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारत के तकनीकी-आर्थिक रूपांतरण के समांतर सबसे बड़ी परिघटना है सामाजिक जीवन में लड़कियों की बढ़ती भागीदारी. सत्तर के दशक तक भारतीय महिलाएं घरों तक सीमित थीं, आज वे जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद हैं. युवा स्त्रियाँ आधुनिकीकरण और सामाजिक रूपांतरण में सबसे बड़ी भूमिका निभा रहीं हैं. भूमिका बढ़ने के साथ उनसे जुड़े सवाल भी खड़े हुए हैं. पिछले साल जब मी-टू आंदोलन ने भारत में प्रवेश किया था, तब काफी स्त्रियों ने अपने जीवन के ढके-छिपे पहलुओं को उजागर किया. न जाने कितने तथ्य अभी छिपे हुए हैं.

यत्र नार्यस्तु...के देश में स्त्रियों के जीवन की जमीन बहुत कठोर है. उन्हें अपनी जगह बनाने में जबर्दस्त चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. फिर भी वे इनका मुकाबला करते हुए आगे बढ़ रहीं हैं. दिसम्बर, 2012 में दिल्ली रेप कांड के बाद स्त्री-चेतना में विस्मयकारी बदलाव हुआ था. लम्बे अरसे से छिपा गुस्सा एकबारगी सामने आया. यह केवल स्त्रियों का गुस्सा नहीं था, पूरे समाज की नाराजगी थी. उस आंदोलन की अनुगूँज शहरों, कस्बों, गाँवों और गली-मोहल्लों तक में सुनाई पड़ी थी. उस आंदोलन से बड़ा बदलाव भले नहीं हुआ, पर सामाजिक जीवन में एक नया नैरेटिव तैयार हुआ. 

Sunday, March 3, 2019

क्या यह सिर्फ मीडिया का स्वांग था?


http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-03-03
पिछले पखवाड़े भारत-पाकिस्तान टकराव का एक और दौर पूरा हो गया। इस दौरान सीमा के दोनों तरफ के मीडिया का एक और चिंतनीय चेहरा सामने आया है। मीडिया ने हमारे विमर्श का एजेंडा तय करना शुरू कर दिया है, जबकि वह खुद संशयों का शिकार है। वह अपने थिएटरी निष्कर्षों को दर्शकों के दिलो-दिमाग में डाल रहा है। यह बात पिछले एक पखवाड़े के घटनाक्रम से समझी जा सकती है। शुक्रवार देर रात तक टीवी से चिपके लोगों को एंकर और रिपोर्टर समझाते रहे कि अभिनंदन अब आए, अब आने वाले हैं, आते ही होंगे वगैरह। बहरहाल जब वे आए वाघा सीमा पर मौजूद भीड़ से मुखातिब होने का मौका उन्हें नहीं मिला। क्यों हुआ इतना लम्बा ड्रामा?