Sunday, February 3, 2019

सीमांत किसान और मध्यवर्ग का बजट

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इसमें दो राय नहीं कि मोदी सरकार का चुनावी साल का बजट लोक-लुभावन बातों से भरपूर है, पर इसके पीछे सामाजिक-दृष्टि भी है। इस बजट से तीन तबके सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। एक सीमांत किसान, दूसरे असंगठित क्षेत्र के श्रमिक और तीसरे वेतन भोगी वर्ग। छोटे किसानों और मध्यवर्ग के लिए की गई घोषणाओं पर करीब एक लाख करोड़ रुपये (जीडीपी करीब 0.5 फीसदी) के खर्च की घोषणा सरकार ने की है, पर राजकोषीय अनुशासन बिगड़ा नहीं है। इस सरकार की उपलब्धि है, टैक्स-जीडीपी अनुपात को 2013-14 के 10.1 फीसदी से बढ़ाकर 11.9 फीसदी तक पहुंचाना। यानी कि कर-अनुपालन में प्रगति हुई है। आयकर चुकता करने वालों की तादाद से और जीएसटी में क्रमशः होती जा रही बढ़ोत्तरी से यह बात साबित हो रही है।

सरकार ने छोटे और सीमांत किसानों को आय समर्थन के लिए करीब 75,000 करोड़ रुपये की योजना की घोषणा की है। यह धनराशि कृषि उपज के मूल्य में कमी की भरपाई करेगी। सरकार का यह कदम कल्याणकारी राज्य की स्थापना की दिशा में एक कदम है। तेलंगाना में यह कार्यक्रम पहले से चल रहा है। केन्द्र सरकार इसका श्रेय चाहती है, तो इसमें गलत क्या है? दूसरी कल्याण योजना है असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए पेंशन। कल्याण योजनाओं के लिए संसाधन मौजूदा कार्यक्रमों में कमी करके उपलब्ध कराए गए हैं। यह भी सच है कि आयकर-दाताओं के सबसे निचले स्लैब को राहत देने से राजनीतिक लाभ मिलेगा। इस लिहाज से यह बजट विरोधी-दलों को खटक रहा है। अंतरिम बजट में बड़े नीतिगत फैसले को लेकर उनकी आपत्ति है, पर पहली बार अंतरिम बजट में बड़ी घोषणाएं नहीं हुईं हैं।

Saturday, February 2, 2019

असमंजस से घिरी कांग्रेस की मंदिर-राजनीति

सही या गलत, पर राम मंदिर का मसला उत्तर प्रदेश समेत उत्तर के ज्यादातर राज्यों में वोटर के एक बड़े तबके को प्रभावित करेगा। इस बात को राजनीतिक दलों से बेहतर कोई नहीं जानता। हिन्दू समाज के जातीय अंतर्विरोधों के जवाब में बीजेपी का यह कार्ड काम करता है। चूंकि मंदिर बना नहीं है और कानूनी प्रक्रिया की गति को देखते हुए लगता नहीं कि लोकसभा चुनाव के पहले इस दिशा में कोई बड़ी गतिविधि हो पाएगी। इसलिए मंदिर के दोनों तरफ खड़े राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से वोटर को भरमाने की कोशिश में लगे हैं।
कांग्रेस की कोशिश राम मंदिर को लेकर बीजेपी को घेरने और उसके अंतर्विरोधों को उजागर करने की है, पर वह अपनी नीति को साफ-साफ बताने से बचती रही है। अभी जनवरी में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि राम मंदिर का मसला अभी कोर्ट में है,  पर 2019 के चुनाव में नौकरी, किसानों से जुड़े मुद्दे पर अहम होंगे। उनका आशय यह था कि मंदिर कोई मसला नहीं है। पर वे इस मसले से पूरी तरह कन्नी काटने को तैयार भी नहीं हैं। इस मामले में उन्होंने विस्तार से कभी कुछ नहीं कहा।
हिन्दू छवि भी चाहिए
हाल में पाँच राज्यों में हुए चुनावों के दौरान उन्होंने अपनी हिन्दू-छवि को कुछ ज्यादा उजागर किया, पर मंदिर के निर्माण को लेकर सुस्पष्ट राय व्यक्त नहीं की। मंदिर ही नहीं मस्जिद के पुनर्निर्माण का वादा भी तत्कालीन सरकार ने किया था। उसके बारे में भी पार्टी ने साफ-साफ शब्दों में कुछ नहीं कहा। कांग्रेस पार्टी अदालत के फैसले को मानने की बात कहती है, पर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में कपिल सिब्बल ने अदालती फैसला विलंब से करने की जो प्रार्थना की थी, उसे लेकर पार्टी पर फैसले में अड़ंगा लगाने का आरोप जरूर लगता है। कांग्रेस पार्टी का यह असमंजस आज से नहीं अस्सी के दशक से चल रहा है। 

बजट में सपने हैं, जुमले और जोश भी!


नरेन्द्र मोदी को सपनों का सौदागर कहा जा सकता है और उनके विरोधियों की भाषा में जुमलेबाज़ भी। उनका अंतरिम बजट पूरे बजट पर भी भारी है। वैसा ही लुभावना और उम्मीदों से भरा, जैसा सन 2014 में उनका पहला बजट था। इसमें गाँवों और किसानों के लिए तोहफों की भरमार है और साथ ही तीन करोड़ आय करदाताओं के लिए खुशखबरी है। कामगारों के लिए पेंशन है। उन सभी वर्गों का इसमें ध्यान रखा गया है, जो जनमत तैयार करते हैं। यानी की कुल मिलाकर पूरा राजनीतिक मसाला है। इसे आप राजनीतिक और चुनावोन्मुखी बजट कहें, तो आपको ऐसा कहने का पूरा हक है, पर आज की राजनीति में क्या यह बात अजूबा है? वोट के लिए ही तो सारा खेल चल रहा है। ऐसा भी नहीं कि इन घोषणाओं से खजाना खाली हो जाएगा, बल्कि अर्थ-व्यवस्था बेहतरी का इशारा कर रही है। इस अंतरिम बजट में सरकार ने सन 2030 तक की तस्वीर भी खींची है। यह वैसा ही बजट है, जैसा चुनाव के पहले होना चाहिए।

इस तस्वीर का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है पाँच साल में पाँच ट्रिलियन और आठ साल में दस ट्रिलियन की अर्थ-व्यवस्था बनना। इस वक्त हमारी अर्थ-व्यवस्था करीब ढाई ट्रिलियन डॉलर की है। अगले 11 साल में भारत के रूपांतरण का जो सपना यह सरकार दिखा रही है, वह भले ही बहुत सुहाना न हो, पर असम्भव भी नहीं है। 

उड़ानें भरता बजट


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मोदी सरकार का अंतिम बजट वैसा ही लुभावना और उम्मीदों से भरा है, जैसा सन 2014 में इस सरकार का पहला बजट था. इसमें गाँवों और किसानों के लिए तोहफों की भरमार है और साथ ही तीन करोड़ आय करदाताओं के लिए खुशखबरी है. कामगारों के लिए पेंशन है. उन सभी वर्गों का इसमें ध्यान रखा गया है, जो जनमत तैयार करते हैं. ऐसा भी नहीं कि इन घोषणाओं से खजाना खाली हो जाएगा, बल्कि अर्थ-व्यवस्था बेहतरी का इशारा कर रही है.

दो हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों सालाना छह हजार रुपये की मदद देने की जो घोषणा की गई है, उसे सार्वभौमिक न्यूनतम आय कार्यक्रम की शुरूआत मान सकते हैं. बेशक यह चुनाव से जुड़ा है, पर इस अधिकार से सरकार को वंचित नहीं कर सकते. अलबत्ता पूछ सकते हैं कि इसे लागू कैसे करेंगे? व्यावहारिक रूप से इन्हें लागू करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. बल्कि आने वाले वर्षों में ये स्कीमें और ज्यादा बड़े आकार में सामने आएंगी, क्योंकि अर्थ-व्यवस्था इन्हें सफलता से लागू करने की स्थिति में है.

पिछले साल जिस तरह से आयुष्मान भारत कार्यक्रम की घोषणा की गई थी, उसी तरह यह एक नई अवधारणा है, जो समय के साथ विकसित होगी. किसान सम्मान निधि से करीब 12 करोड़ छोटे किसानों का भला होगा. इन्हीं परिवारों को उज्ज्वला, सौभाग्य और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का लाभ मिलेगा. यह स्कीम 1 दिसम्बर 2018 से लागू हो रही है. यानी कि इसकी पहली किस्त चुनाव के पहले किसानों को मिल भी जाएगी. 

Saturday, January 26, 2019

भारतीय गणतंत्र की विडंबनाएं


इस साल हम अपना सत्तरवाँ गणतंत्र दिवस मनाएंगे. सत्तर साल कुछ भी नहीं होते. पश्चिमी देशों में आधुनिक लोकतंत्र के प्रयोग पिछले ढाई सौ साल से ज्यादा समय से हो रहे हैं, फिर भी जनता संतुष्ट नहीं है. पिछले नवम्बर से फ्रांस में पीली कुर्ती आंदोलनचल रहा है. फ्रांस में ही नहीं इटली, बेल्जियम और यूरोप के दूसरे देशों में जनता बेचैन है. हम जो कुछ भी करते हैं, वह दुनिया की सबसे बड़ी गतिविधि होती है. हमारे चुनाव दुनिया के सबसे बड़े चुनाव होते हैं, पर चुनाव हमारी समस्या है और समाधान भी.
ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को भारत की आजादी को लेकर संदेह था. उन्होंने कहा था, ‘धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरे हाथों में सत्ता चली जाएगी. सभी भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्त्वहीन व्यक्ति होंगे. वे जबान से मीठे और दिल से नासमझ होंगे. सत्ता के लिए वे आपस में ही लड़ मरेंगे और भारत राजनैतिक तू-तू-मैं-मैं में खो जाएगा.’
चर्चिल को ही नहीं सन 1947 में काफी लोगों को अंदेशा था कि इस देश की व्यवस्था दस साल से ज्यादा चलने वाली नहीं है. टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा. ऐसा नहीं हुआ, पर सपनों का वैसा संसार भी नहीं बसा जैसा गांधी-नेहरू ने कहा था. हम विफल नहीं हैं, पर सफल भी नहीं हैं. इस सफलता या विफलता का श्रेय काफी श्रेय हमारी राजनीति को जाता है और राजनीति की सफलता या विफलता में हमारा भी हाथ है.