नरेन्द्र
मोदी को सपनों का सौदागर कहा जा सकता है और उनके विरोधियों की भाषा में ‘जुमलेबाज़’ भी। उनका अंतरिम बजट पूरे बजट पर भी भारी
है। वैसा ही लुभावना
और उम्मीदों से भरा, जैसा सन 2014 में उनका पहला बजट था। इसमें गाँवों और किसानों
के लिए तोहफों की भरमार है और साथ ही तीन करोड़ आय करदाताओं के लिए खुशखबरी है। कामगारों
के लिए पेंशन है। उन सभी वर्गों का इसमें ध्यान रखा गया है, जो जनमत तैयार करते
हैं। यानी की कुल मिलाकर पूरा राजनीतिक मसाला है। इसे आप राजनीतिक और चुनावोन्मुखी बजट कहें, तो आपको ऐसा कहने का पूरा हक है, पर आज की राजनीति में क्या यह बात अजूबा है? वोट के लिए ही तो सारा खेल चल रहा है। ऐसा भी नहीं कि इन घोषणाओं से खजाना खाली हो जाएगा, बल्कि अर्थ-व्यवस्था
बेहतरी का इशारा कर रही है। इस अंतरिम बजट में सरकार ने सन 2030 तक की तस्वीर भी
खींची है। यह वैसा ही बजट है, जैसा चुनाव के पहले होना चाहिए।
इस
तस्वीर का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है पाँच साल में पाँच ट्रिलियन और आठ साल में दस
ट्रिलियन की अर्थ-व्यवस्था बनना। इस वक्त हमारी अर्थ-व्यवस्था करीब ढाई ट्रिलियन
डॉलर की है। अगले 11 साल में भारत के रूपांतरण का जो सपना यह सरकार दिखा रही है,
वह भले ही बहुत सुहाना न हो, पर असम्भव भी नहीं है।