जस्टिस भगवती का सबसे बड़ा योगदान जनहित याचिकाएं हैं, जिन्हें उन्होंने परिभाषित किया थाजनता के बीच देश की न्याय-व्यवस्था की जो साख बनी है, उसे बनाने में जस्टिस पीएन भगवती जैसे न्यायविदों की बड़ी भूमिका है. वे ऐसे दौर में न्यायाधीश रहे जब देश को जबर्दस्त अंतर्विरोधों के बीच से गुजरना पड़ा. इसके छींटे भी उनपर पड़े. पर उनकी मंशा और न्याय-प्रियता पर किसी को कभी संदेह नहीं रहा.
भारतीय इतिहास में जिस तरह आम आदमी को जहांगीर ने न्याय की घंटियां बजाने का अधिकार दिया था, उसी तरह जस्टिस भगवती ने न्याय के दरवाजे हरेक के लिए खोले. उन्होंने सामान्य नागरिक को सार्वजनिक हित में देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाने की पैरोकारी की और जो अंततः अधिकार बना.
इस वजह से याद रहेंगे भगवती
व्यवस्था को पारदर्शी बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के बारे में उनकी सुस्पष्ट राय थी. सन् 1990 में आकाशवाणी पर डॉ राजेंद्र प्रसाद पर दिया गया व्याख्यान जिसने सुना है, उसे वे काफी देर तक याद रखेंगे. अलबत्ता उनका सबसे बड़ा योगदान जनहित याचिकाएं हैं, जिन्हें उन्होंने परिभाषित किया था. उनके दौर में लोक-अदालतों ने त्वरित-न्याय की अवधारणा को बढ़ाया.
सत्तर और अस्सी के दशक भारत में न्यायिक सक्रियता के थे. इस दौर में हमारी अदालतों ने सार्वजनिक हित में कई बड़े फैसले किए. दिसंबर, 1979 में कपिला हिंगोरानी ने बिहार की जेलों में कैद विचाराधीन कैदियों की दशा को लेकर एक याचिका दायर की. इस याचिका के कारण बिहार की जेलों से 40,000 ऐसे कैदी रिहा हुए, जिनके मामले विचाराधीन थे. अदालतों की न्यायिक सक्रियता की वह शुरुआत थी.
सन् 1981 में एसपी गुप्ता बनाम भारतीय संघ के केस में सात जजों की बेंच में जस्टिस भगवती भी एक जज थे. उन्होंने अपना जो फैसला लिखा उसमें दूसरी बातों के अलावा यह लिखा कि यह अदालत सार्वजनिक हित में मामले को उठाने के लिए यह अदालत औपचारिक याचिका का इंतजार नहीं करेगी, बल्कि यदि कोई व्यक्ति केवल एक चिट्ठी भी लिख देगा तो उसे सार्वजनिक हित में याचिका मान लेगी.
इस फैसले ने पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन को परिभाषित कर दिया. बड़ी बात यह है कि इस व्यवस्था में भारी न्यायिक शुल्क को जमा किए बगैर सुनवाई हो सकती है. अस्सी के दशक के पहले तक न्याय के दरवाजे केवल उसके लिए ही खुले थे, जो किसी सार्वजनिक कृत्य से प्रभावित होता हो.
कोई तीसरा व्यक्ति सार्वजनिक हित के मामले को लेकर भी अदालत में नहीं जा सकता था. उस दौर मे जस्टिस पीएन भगवती और जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर जैसे न्यायाधीशों को न्याय के दरवाजे सबके लिए खोलने का श्रेय जाता है.
इस वजह से हुई थी आलोचना
जस्टिस भगवती को पीआईएल और लोक अदालतों के लिए तारीफ मिली तो इमर्जेंसी के दौर में इंदिरा गांधी की तारीफ और उनकी नीतियों के समर्थन की वजह से काफी आलोचना का सामना भी करना पड़ा. सन् 1976 के एडीएम जबलपुर मामले में सुप्रीम कोर्ट के जिन चार सदस्यों ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को नामंजूर कर दिया था, उसमें एक जज वे भी थे. एचआर खन्ना अकेले जज थे, जिन्होंने सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया.
भगवती पर ढुलमुल होने का आरोप था. इमर्जेंसी में उन्होंने इंदिरा गांधी की तारीफ की, जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद आलोचना. और जब इंदिरा की वापसी हुई तो उनकी फिर से तारीफ कर दी. शायद उन्हें अपनी गलती मानने में देर नहीं लगती थी. सन् 1976 के बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में उन्होंने अपनी गलती सन् 2011 में जाकर मान ली.
देश की न्यायिक व्यवस्था को लेकर उनकी राय काफी खुली हुई थी. जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था के पक्ष में वे नहीं थे. एक इंटरव्यू के जवाब में उन्होंने कहा, ‘मैं इसके पक्ष में नहीं हूं. मुझे हकीकत तो नहीं मालूम, लेकिन अफवाहों पर ध्यान दें तो कॉलेजियम में रखे जाने वाले न्यायाधीशों के बीच मोल-भाव होता है. लोग न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके में भरोसा खोते जा रहे हैं. लिहाजा, इसे बदलना जरूरी हो गया है.’
फर्स्ट पोस्ट में प्रकाशित
भारतीय इतिहास में जिस तरह आम आदमी को जहांगीर ने न्याय की घंटियां बजाने का अधिकार दिया था, उसी तरह जस्टिस भगवती ने न्याय के दरवाजे हरेक के लिए खोले. उन्होंने सामान्य नागरिक को सार्वजनिक हित में देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाने की पैरोकारी की और जो अंततः अधिकार बना.
इस वजह से याद रहेंगे भगवती
व्यवस्था को पारदर्शी बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के बारे में उनकी सुस्पष्ट राय थी. सन् 1990 में आकाशवाणी पर डॉ राजेंद्र प्रसाद पर दिया गया व्याख्यान जिसने सुना है, उसे वे काफी देर तक याद रखेंगे. अलबत्ता उनका सबसे बड़ा योगदान जनहित याचिकाएं हैं, जिन्हें उन्होंने परिभाषित किया था. उनके दौर में लोक-अदालतों ने त्वरित-न्याय की अवधारणा को बढ़ाया.
सत्तर और अस्सी के दशक भारत में न्यायिक सक्रियता के थे. इस दौर में हमारी अदालतों ने सार्वजनिक हित में कई बड़े फैसले किए. दिसंबर, 1979 में कपिला हिंगोरानी ने बिहार की जेलों में कैद विचाराधीन कैदियों की दशा को लेकर एक याचिका दायर की. इस याचिका के कारण बिहार की जेलों से 40,000 ऐसे कैदी रिहा हुए, जिनके मामले विचाराधीन थे. अदालतों की न्यायिक सक्रियता की वह शुरुआत थी.
सन् 1981 में एसपी गुप्ता बनाम भारतीय संघ के केस में सात जजों की बेंच में जस्टिस भगवती भी एक जज थे. उन्होंने अपना जो फैसला लिखा उसमें दूसरी बातों के अलावा यह लिखा कि यह अदालत सार्वजनिक हित में मामले को उठाने के लिए यह अदालत औपचारिक याचिका का इंतजार नहीं करेगी, बल्कि यदि कोई व्यक्ति केवल एक चिट्ठी भी लिख देगा तो उसे सार्वजनिक हित में याचिका मान लेगी.
इस फैसले ने पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन को परिभाषित कर दिया. बड़ी बात यह है कि इस व्यवस्था में भारी न्यायिक शुल्क को जमा किए बगैर सुनवाई हो सकती है. अस्सी के दशक के पहले तक न्याय के दरवाजे केवल उसके लिए ही खुले थे, जो किसी सार्वजनिक कृत्य से प्रभावित होता हो.
कोई तीसरा व्यक्ति सार्वजनिक हित के मामले को लेकर भी अदालत में नहीं जा सकता था. उस दौर मे जस्टिस पीएन भगवती और जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर जैसे न्यायाधीशों को न्याय के दरवाजे सबके लिए खोलने का श्रेय जाता है.
इस वजह से हुई थी आलोचना
जस्टिस भगवती को पीआईएल और लोक अदालतों के लिए तारीफ मिली तो इमर्जेंसी के दौर में इंदिरा गांधी की तारीफ और उनकी नीतियों के समर्थन की वजह से काफी आलोचना का सामना भी करना पड़ा. सन् 1976 के एडीएम जबलपुर मामले में सुप्रीम कोर्ट के जिन चार सदस्यों ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को नामंजूर कर दिया था, उसमें एक जज वे भी थे. एचआर खन्ना अकेले जज थे, जिन्होंने सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया.
भगवती पर ढुलमुल होने का आरोप था. इमर्जेंसी में उन्होंने इंदिरा गांधी की तारीफ की, जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद आलोचना. और जब इंदिरा की वापसी हुई तो उनकी फिर से तारीफ कर दी. शायद उन्हें अपनी गलती मानने में देर नहीं लगती थी. सन् 1976 के बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में उन्होंने अपनी गलती सन् 2011 में जाकर मान ली.
देश की न्यायिक व्यवस्था को लेकर उनकी राय काफी खुली हुई थी. जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था के पक्ष में वे नहीं थे. एक इंटरव्यू के जवाब में उन्होंने कहा, ‘मैं इसके पक्ष में नहीं हूं. मुझे हकीकत तो नहीं मालूम, लेकिन अफवाहों पर ध्यान दें तो कॉलेजियम में रखे जाने वाले न्यायाधीशों के बीच मोल-भाव होता है. लोग न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके में भरोसा खोते जा रहे हैं. लिहाजा, इसे बदलना जरूरी हो गया है.’
फर्स्ट पोस्ट में प्रकाशित