Monday, August 3, 2015

संसदीय गतिरोध का राजनीतिक लाभ किसे?

संसद न चलने से किसे मिलेगा फायदा?

  • 57 मिनट पहले
राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी
संसदीय गतिरोध को तोड़ने के लिए सोमवार को होने वाली कोशिशें सफल नहीं हुईं तो 'मॉनसून सत्र' के शेष दिन भी निःशेष मानिए.
सरकार ने सोमवार को सर्वदलीय बैठक बुलाई है. लेकिन उसके पहले सुबह कांग्रेस संसदीय दल की बैठक है.
फ़िलहाल स्पष्ट नहीं है कि कांग्रेस सर्वदलीय बैठक में भाग लेगी या नहीं. दोनों बैठकों से ही पता लगेगा कि राजनीति किस करवट बैठने वाली है. कांग्रेस चाहती है कि प्रधानमंत्री इस सिलसिले में कोई ठोस फॉर्मूले का सुझाव दे सकते हैं.

किसका फायदा?

(फाइल फोटो)
संसदीय सत्र का इस तरह फना हो जाना किसके फायदे में जाएगा? फिलहाल कांग्रेस ने बीजेपी के किले में दरार लगा दी है. लेकिन बीजेपी को जवाब के लिए उकसाया भी है.
दोनों ने इसका जोड़-घटाना जरूर लगाया है. देखना यह भी होगा कि बाकी दल क्या रुख अपनाते हैं. वामपंथी दल इस गतिरोध में कांग्रेस का साथ दे रहे हैं, लेकिन बाकी दलों में खास उत्साह नज़र नहीं आता.
सवाल है कि संसद का नहीं चलना नकारात्मक है या सकारात्मक?
बीजेपी ने इसे दुधारी तलवार की तरह इस्तेमाल किया है. यूपीए-दौर में उसने इसका लाभ लिया था और अब वह कांग्रेस को 'विघ्न संतोषी' साबित करना चाहती है, उन्हीं तर्कों के साथ जो तब कांग्रेस के थे.
कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा है, "हम महत्वपूर्ण विधेयकों को पास करने के पक्ष में हैं, लेकिन सर्वदलीय बैठक का एजेंडा होना चाहिए कि सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ क्या कार्रवाई होगी."
सरकार चाहती है कि इस सत्र में कम से कम जीएसटी से जुड़ा संविधान संशोधन पास हो जाए, लेकिन इसकी उम्मीद नहीं लगती.

आक्रामक रणनीति

राजनाथ सिंह और अरुण जेटली
कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिक बने रहने के लिए उसे संसद में आक्रामक रुख रखना होगा. लेकिन देखना होगा कि क्या वह सड़क पर भी कुछ करेगी या नहीं. और यह भी कि उसका सामर्थ्य क्या है.
यूपीए के दौर में बीजेपी के आक्रामक रुख के बरक्स कांग्रेस बचाव की मुद्रा में थी. इससे वह कमजोर भी पड़ी. राहुल गांधी ने दागी राजनेताओं से जुड़े अध्यादेश को फाड़ा. अश्विनी कुमार, पवन बंसल और जयंती नटराजन को हटाया गया.
इसका उसे फायदा नहीं मिला, उल्टे चुनाव के ठीक पहले वह आत्मग्लानि से पीड़ित पार्टी नजर आने लगी थी. फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि बीजेपी अपनी विदेश मंत्री को हटाएगी. कांग्रेस को इस आधार पर ही भावी रणनीति बनानी होगी.
बीजेपी बजाय 'रक्षात्मक' होने के 'आक्रामक' हो रही है. कांग्रेस की गतिरोध की रणनीति के जवाब में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कांग्रेस पर 'हिन्दू आतंकवाद' का जुमला गढ़ने की तोहमत लगाकर अचानक नया मोर्चा खोल दिया है.
गुरदासपुर और याकूब मेमन जैसे मसलों पर बीजेपी ने 'भावनाओं का ध्रुवीकरण' कर दिया है, जो उसका ब्रह्मास्त्र है.

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Sunday, August 2, 2015

हम टाइगर और दाऊद को क्यों नहीं ला सकते?

याकूब मेमन की फाँसी के बाद क्या यह मान लें कि मुम्बई सीरियल बम धमाकों से जुड़े अपराधों पर अंतिम रूप से न्याय हो गया है? याकूब मेमन अब जीवित नहीं है, इसलिए इस मामले से जुड़े एक महत्वपूर्ण पात्र से अब भविष्य में पूछताछ सम्भव नहीं। हम अब इस मामले से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण अपराधियों को सज़ा देने की दिशा में क्या करेंगे? क्या हम टाइगर मेमन और दाऊद इब्राहीम को पकड़कर भारत ला सकेंगे? सन 1992-93 में हुए मुम्बई दंगों और उसके बाद के सीरियल धमाकों के बारे में हमारे देश के मीडिया में इतनी जानकारी भरी पड़ी है कि उसे एकसाथ पढ़ना और समझना मुश्किल काम है। फिर तमाम बातें हमारी जानकारी से बाहर हैं। तमाम भेद दाऊद इब्राहीम और टाइगर मेमन के पास हैं। हमें जो जानकारी है, वह सफेद और काले रंगों में है। यानी कुछ लोग साफ अपराधी हैं और कुछ लोग नहीं हैं। पर काफी ‘ग्रे’ बातें छिपी हुई हैं।

Thursday, July 30, 2015

दिल्ली और 'दिल्ली' क्या दो देश हैं?

दिल्ली महिला आयोग की नई अध्यक्ष का कार्यकाल 20 जुलाई से नहीं, 28 जुलाई से माना जाएगा। एक हफ्ते का अंतर उस प्रशासनिक रस्साकसी की भेंट चढ़ गया जिसने पिछले कुछ समय से दिल्ली को घेर रखा है। पर यह नियुक्ति तभी पूरी हुई है जब उपराज्यपाल नजीब जंग ने इसकी औपचारिक मंज़ूरी दी है। प्रश्न है कि यह मंजूरी पहले क्यों नहीं मिली थी? इसके कारणों को जाने-बूझे बगैर मुख्यमंत्री ने उपराज्यपाल के नाम खुला खत क्यों लिखा? और दिल्ली का प्रशासन केंद्र सरकार से टकराव लेता नजर क्यों आता है?

Wednesday, July 29, 2015

‘राजनीति’ फिर वापस पटरी पर आएगी इस ब्रेक के बाद

‘राजनीति’ वापस आएगी इस ब्रेक के बाद

  • 2 घंटे पहले
कलाम श्रद्धांजलि
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, याक़ूब मेमन और पंजाब के गुरदासपुर के एक थाने पर हुए हमले के कारण मीडिया का ध्यान कुछ देर के लिए बंट गया.
इस वजह से मुख्यधारा की राजनीति कुछ देर के लिए ख़ामोश है.
दो-तीन रोज़ में जब सन्नाटा टूटेगा तब हो सकता है कि मसले और मुद्दे बदले हुए हों, पर तौर-तरीक़े वही होंगे.

मॉनसून सत्र का हंगामा

हंगामा, गहमागहमी और शोर हमारी राजनीति के दिल-ओ-दिमाग़ में है.
एक धारणा है कि इसमें संजीदगी, समझदारी और तार्किकता कभी थी भी नहीं. पर जैसा शोर, हंगामा और अराजकता आज है, वैसी पहले नहीं था.
क्या इसे राजनीति और मीडिया के ‘ग्रास रूट’ तक जाने का संकेतक मानें?
लोकसभा, मानसून सत्र
शोर, विरोध और प्रदर्शन को ही राजनीति मानें? क्या हमारी सामाजिक संरचना में अराजकता और विरोध ताने-बाने की तरह गुंथे हुए हैं?
संसद के मॉनसून सत्र के शुरुआती दिनों में अनेक सदस्य हाथों में पोस्टर-प्लेकार्ड थामे टीवी कैमरा के सामने आने की कोशिश करते रहे.
कैमरा उनकी अनदेखी कर रहा था, इसलिए उन्होंने स्पीकर के आसपास मंडराना शुरू किया या जिन सदस्यों को बोलने का मौक़ा दिया गया उनके सामने जाकर पोस्टर लगाए ताकि टीवी दर्शक उन्हें देखें.
हमने मान लिया है कि संसद में हंगामा राजनीतिक विरोध का तरीक़ा है और यह हमारे देश की परम्परा है. इसलिए लोकसभा टीवी को इसे दिखाना भी चाहिए.
लोकतांत्रिक विरोध को न दिखाना अलोकतांत्रिक है.
पिछले हफ़्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि लोकसभा में कैमरे विपक्ष का विरोध नहीं दिखा रहे हैं. सिर्फ़ सत्तापक्ष को ही कैमरों में दिखाया जा रहा है.
उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि मोदी सरकार विपक्ष की आवाज़ दबा देना चाहती है.

मेरा बनाम तेरा भ्रष्टाचार

अधीर रंजन, लोकसभा, मानसून सत्र
कांग्रेस की प्रतिज्ञा है कि जब तक सरकार भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे नेताओं को नहीं हटाएगी, तब तक संसद नहीं चलेगी.

कैसा होगा टेक्नोट्रॉनिक दौर का युद्ध?

युद्ध की अनुपस्थिति माने शांति. दुनिया में पहले शांति आई या युद्ध? पहले शांति थी और बाद में युद्ध शुरू हुए तो क्यों? युद्ध क्यों होते हैं? क्या हथियारों और सेना की वजह से लड़ाइयाँ होती हैं? इन्हें खत्म कर दिया जाए तो क्या अमन-चैन कायम हो जाएगा? ऐसा नहीं है. जब से दुनिया बनी है इंसान युद्ध कर रहा है. उसे अपनी खुशहाली के लिए भी युद्ध करना पड़ता है, शांति के लिए भी.

लड़ाई की विनाशकारी प्रवृत्तियों के बावजूद तीसरे विश्व-युद्ध का खतरा हमेशा बना रहेगा. अमेरिकी लेखक पीटर सिंगर और ऑगस्ट के ताजा नॉवेल ‘द गोस्ट फ्लीट’ का विषय तीसरा विश्व-युद्ध है, जिसमें अमेरिका, चीन और रूस की हिस्सेदारी होगी. उपन्यास के कथाक्रम से ज्यादा रोचक है उस तकनीक का वर्णन जो इस युद्ध में काम आई. यह उपन्यास भविष्य के युद्ध की झलक दिखाता है. आने वाले वक्त की लड़ाई में शामिल सारे योद्धा परम्परागत फौजियों जैसे वर्दीधारी नहीं होंगे. काफी लोग कम्प्यूटर कंसोल के पीछे बैठकर काम करेंगे. काफी लोग नागरिकों के भेस में होंगे, पर छापामार सैनिकों की तरह महत्वपूर्ण ठिकानों पर हमला करके नागरिकों के बीच मिल जाएंगे. काफी लोग ऐसे होंगे जो अराजकता का फायदा उठाकर अपने हितों को पूरा करेंगे.