Thursday, July 30, 2015

दिल्ली और 'दिल्ली' क्या दो देश हैं?

दिल्ली महिला आयोग की नई अध्यक्ष का कार्यकाल 20 जुलाई से नहीं, 28 जुलाई से माना जाएगा। एक हफ्ते का अंतर उस प्रशासनिक रस्साकसी की भेंट चढ़ गया जिसने पिछले कुछ समय से दिल्ली को घेर रखा है। पर यह नियुक्ति तभी पूरी हुई है जब उपराज्यपाल नजीब जंग ने इसकी औपचारिक मंज़ूरी दी है। प्रश्न है कि यह मंजूरी पहले क्यों नहीं मिली थी? इसके कारणों को जाने-बूझे बगैर मुख्यमंत्री ने उपराज्यपाल के नाम खुला खत क्यों लिखा? और दिल्ली का प्रशासन केंद्र सरकार से टकराव लेता नजर क्यों आता है?
आम आदमी पार्टी या दूसरे शब्दों में कहें तो ‘केजरीवाल सरकार’ यदि दिल्ली पुलिस को अपने अधिकार क्षेत्र में लाने और दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रही है तो उसमें गलत कुछ नहीं। अलबत्ता उसके तौर-तरीकों से साबित हो रहा है कि ये दोनों काम क्यों नहीं होने चाहिए। मोदी सरकार ही नहीं, कभी केंद्र में केजरीवाल सरकार आएगी तो वह भी यह काम इस तरीके से नहीं होने देगी। अभी तक यह अंदेशा था, पर अब तो साबित हो रहा है कि दिल्ली और केंद्र के टकराव से कैसी अराजकता पैदा होगी। थोड़ी देर के लिए इसे नजीब जंग और केजरीवाल के निजी अहम की लड़ाई मान लें। पर वास्तव में यह दिल्ली के प्रशासनिक स्वरूप निर्धारण की राजनीतिक लड़ाई है। केजरीवाल सरकार की इस बात को मान लेते हैं कि केंद्र सरकार उन्हें काम नहीं करने दे रही है, पर उसके प्रतिकार का तरीका समझ में नहीं आता। उनकी सरकार का यूपीए सरकार के साथ भी ऐसा ही रिश्ता था।

पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम से नहीं लगता कि दिल्ली भारत का प्रदेश है। लगता है दो देश आमने-सामने हैं। यह स्थिति किसी लिहाज से अच्छी नहीं है। यह सत्ता की लड़ाई जरूर है, पर फूहड़ तौर-तरीकों से लड़ी जा रही है। मुख्यमंत्री दिल्ली की पुलिस के बारे में और दिल्ली पुलिस के कमिश्नर मुख्यमंत्री के बारे में टिप्पणी कर रहे हैं। ऐसा जिस वजह से भी हुआ हो उसे ठीक होना चाहिए। पुलिस दिल्ली सरकार के अधीन हो या न हो इसके बारे में या तो न्यायपालिका को कोई व्यवस्था देनी होगी या संसद को। एक बार में इसका फैसला हो जाना चाहिए, वरना अगले चार-साढ़े चार साल का समय निरर्थक विवादों की भेंट चढ़ता रहेगा।

दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष की नियुक्ति का मामला विवाद का विषय क्यों बना? उपराज्यपाल के पद का मतलब क्या है? यह पद राज्यों के राज्यपाल जैसा है या उससे कुछ फर्क है? क्या दिल्ली सरकार केंद्र की प्रतिनिधि है? महिला आयोग की अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए दिल्ली सरकार को यदि राज्यपाल की स्वीकृति की जरूरत नहीं थी तो बाद में अनुमति क्यों माँगी गई? यह भी कि चुने हुए मुख्यमंत्री के होते हुए उपराज्यपाल ने क्यों कहा कि ‘मैं ही सरकार हूँ?’ यह बात अटपटी लगती है, पर उपराज्यपाल ने अपने पत्र में स्पष्ट किया है कि उनका आशय क्या है।

मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच के पत्र व्यवहार का सार्वजनिक होना अपने आप में अच्छी बात नहीं। दोनों एक ही सरकार के पदाधिकारी हैं। दोनों का संवैधानिक महत्व है। राज्यपाल ने अपने पत्र में लिखा है, ‘मेरे कार्यालय ने ’सरकार’ की कानूनी परिभाषा भारत सरकार द्वारा 2002 में स्पष्टीकरण सहित संवैधानिक पुस्तक के अनुसार की है, जो कहती है कि सरकार का अर्थ है राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 239 एवं अनुच्छेद 239 ए के तहत नियुक्त किया हुआ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का उपराज्यपाल।’ उन्होंने यह भी लिखा है ‘...मुझे यह याद नहीं है कि आपके द्वारा भेजे गए किसी भी नीतिगत एवं निर्णय लेने वाले मामले में मैंने कभी अपनी सहमति न दी हो।’

राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच व्यक्तिगत लड़ाई होने का कोई कारण समझ में नहीं आता, पर उसे खारिज भी नहीं किया जा सकता। पर जब राज्य सरकार, देश के प्रधानमंत्री पर आरोप लगाती है तब विचार करने की जरूरत पैदा होती है। संघीय व्यवस्था में यह असहज स्थिति नहीं है, अटपटी जरूर है। यह सिर्फ राजनीतिक स्तर तक होता तब भी ठीक था। दिल्ली सरकार की ओर से विज्ञापन जारी किए गए हैं, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से केंद्र पर काम में बाधा डालने के आरोप लगाते हैं। हाल में दिल्ली सरकार ने सड़क किनारे जगह-जगह होर्डिंग लगवाए हैं, जिनमें प्रधानमंत्री से दिल्ली सरकार के कामकाज में दखल न देने की अपील की गई है। होर्डिंगों पर लिखा है-‘‘प्रधानमंत्री सर! दिल्ली सरकार को काम करने दीजिए। दिल्ली सरकार ठीक काम कर रही है।’’

टीवी विज्ञापनों में भी दिल्ली सरकार के कामकाज में बाधा डालने को लेकर मोदी सरकार और भाजपा पर परोक्ष रूप से निशाना साधा गया है। प्रिंट में तो सीधे मोदी पर निशाना साधा गया है। यह मामला अब दिल्ली हाईकोर्ट में है। अदालत ने इन विज्ञापनों पर कोई अंतरिम रोक लगाने से कर दिया है, पर केंद्र सरकार के हलफनामे के बाद 3 अगस्त को आगे की कार्यवाही होगी। यह केवल छवि निर्माण का मामला नहीं है। इस बात का भी है कि राज्य सरकार अपने धन का इस्तेमाल किस प्रकार करेगी। इस बात का भी कि अच्छे कार्यों से जनता को परिचित कराने के अलावा क्या केंद्र सरकार या किसी दूसरी संस्था के प्रति अपनी असहमति या आलोचना जताने के लिए भी क्या सार्वजनिक धन का इस्तेमाल होना चाहिए? सरकारी विज्ञापन कहते हैं कि कोई उन्हें काम करने से रोक रहा है। कौन रोक रहा है? पहेली बनाने के बजाय साफ-साफ कहना चाहिए।

आम आदमी पार्टी ने अपने तौर-तरीकों से जनता का ध्यान खींचा था। उसे इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने जनता से खुद को और राजनीति को मुख्यधारा के दलों के मुकाबले बेहतर तरीके से जोड़ा। पर यह भी दिखाई पड़ रहा है कि संवैधानिक संस्थाओं को लेकर वह अपनी व्याख्याएं स्थापित करना चाहती है। दिल्ली राज्य की संवैधानिक स्थिति को वह ग्रीस में हुए रेफरेंडम की तर्ज पर तय करने की कोशिश करने लगी। उसकी भावना कितनी भी सही हो, हमारे फैसले हमारी व्यवस्था और परम्परा के तहत ही होंगे। ग्रीस सरकार भी रेफरेंडम कराने के बाद उस फैसले को लागू नहीं करा पाई। कहीं न कहीं उसकी अव्यावहारिकता आड़े आती थी।

अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक समझ कच्ची नहीं है। उनके पास जनता के मन को पढ़ने की कुव्वत है, पर उनके पास राष्ट्रीय जनाधार नहीं है। उनके पास राजनीतिक दल को चलाने का अभी दो साल का अनुभव ही है। दिल्ली के बाद शायद वे बिहार के चुनाव में नीतीश कुमार के समर्थन में जाएं, पर उन्हें देखना होगा कि वे लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के साथ तालमेल किस तरह बैठाएंगे। जेडीयू ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान और उसके पहले नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी में समर्थन दिया था। इस पारस्परिक सहयोग की राजनीति के दूरगामी प्रभाव को भी उन्हें पढ़ना होगा। साथ ही इस बारे में खुलकर राय व्यक्त करनी चाहिए। जब बिहार के बाबत केजरीवाल से पूछा गया कि क्या वे जेडीयू के लिए प्रचार करेंगे तो उन्होंने साफ जवाब नहीं दिया, बल्कि कहा कि देखते हैं, क्या होता है।

आम आदमी पार्टी ‘एंटी बीजेपी स्पेस’ पर काबिज़ होना चाहती है। अरविंद केजरीवाल अपने आपको नरेंद्र मोदी के मुकाबले खड़ा कर रहे हैं। इसीलिए दिल्ली में वे इस बात का प्रचार कर रहे हैं कि मोदी उन्हें काम नहीं करने देते। उनका निशाना नरेंद्र मोदी ही है। बिहार में भी वे बीजेपी का खेल बिगाड़ने वाले नेता के रूप में जाना चाहते हैं। इस रणनीति के फायदे और नुकसान दोनों हैं। यह पार्टी तेजी से पहाड़ चढ़ती है या तेज ढलान पर आ जाती है। इसे कुछ समय के लिए समतल ज़मीन पर चलने का अभ्यास करना होगा।

केजरीवाल और उनके समर्थकों ने जब सत्ता की राजनीति में शामिल होने का निश्चय किया था तब उन्हें इसके व्यावहारिक पक्ष के बारे में भी सोचना चाहिए था। ऐसा सोचा नहीं गया और दिसम्बर 2013 से आज तक इस नासमझी को रेखांकित करने वाले मौके कई बार आए और अभी आएंगे। यह पार्टी विधायकों के जोड़-तोड़ और सत्ता की राजनीति के उन सारे फॉर्मूलों पर काम कर रही है, जिनका आरोप वह मुख्यधारा की पार्टियों पर लगाती रही है। मार्च-अप्रैल के महीने में जब योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के साथ विवाद चल रहा था तब ये अंतर्विरोध खुलकर सामने आए। अरविंद केजरीवाल का वर्चस्व जरूर कायम हो गया है, पर गुणात्मक रूप से पार्टी को ठेस लग चुकी है। कोई आश्चर्य नहीं कि उसे जनता के तमाचे का स्वाद भी लेना पड़े।

राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

1 comment:

  1. केजरीवाल केवल विवादी लाल हैं , वे विवाद खड़े कर ख़बरों में बने रहने की नब्ज पकडे हुए हैं , लेकिन शायद उन्हें इस बात का गुमां नहीं है कि ये हथकंडे ज्यादा समय नहीं चलते , इनकी आयु बहुत कम होती है , पहले मनमर्जी से मलीवाल को नियुक्त करना फिर विवाद होने पर फाइल भेज राज्यपाल से स्वीकृति लेना किस बात का संकेत है लगभग वे हे मामले में ऐसा ही कर रहे हैं , यह छिछली राजनीति का ध्योतक है ,आखिर कब तक वे थूक थूक कर चाटते रहेंगे , जनता से माफ़ी मांगते रहेंगे ?

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