Thursday, March 12, 2015

क्या ‘स्वांग’ साबित होगी आम आदमी कथा?

भगवती चरण वर्मा की कहानी ‘दो बांके’ का अंत कुछ इस प्रकार होता है... इस पार वाला बांका अपने शागिर्दों से घिरा हुआ चल रहा था. शागिर्द कह रहे थे, ”उस्ताद इस वक्त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं. उस्ताद हम सब के सब अपनी-अपनी जान दे देते...!”

इतने में किसी ने बांके से कहा, “मुला स्वांग खूब भरयो.” 


यह बात सामने खड़े एक देहाती ने मुस्कराते हुए कही थी. उस वक्त बांके खून का घूंट पीकर रह गए। उन्होंने सोचा-एक बांका दूसरे बांके से ही लड़ सकता है, देहातियों से उलझना उसे शोभा नहीं देता. और शागिर्द भी खून का घूंट पीकर रह गए. उन्होंने सोचा-भला उस्ताद की मौजूदगी में उन्हें हाथ उठाने का कोई हक भी है?

आम आदमी पार्टी की कथा भी क्या स्वांग साबित होने वाली है?


आप: 'एक अनूठे प्रयोग का हास्यास्पद हो जाना'




केजरीवाल, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव

दिल्ली में सरकार बनाने के लिए कथित तौर पर विधायकों की खरीद-फ़रोख्त का आरोप लगने के बाद आम आदमी पार्टी की राजनीति पर कुछ दाग लगते नज़र आ रहे हैं. ख़ास बात ये है कि आम आदमी पार्टी पर ये दाग कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी ने नहीं बल्कि उसके पू्र्व सहयोगियों ने लगाए हैं.
ऐसे सहयोगी जो पहले दोस्त थे, उन्हें अब 'सहयोगी' कहना अनुचित होगा. आम आदमी पार्टी पर बीते कुछ दिनों में कई तरह की तोहमतें लगी हैं. उसी कड़ी मेें नई तोहमत ये है कि एक ऑडियो रिकॉर्डिंग सामने आई है जिसमें अरविंद केजरीवाल पर कांग्रेस विधायकों को अपने पाले में लाने की कोशिश का आरोप है.
ये तब की बात बताई जा रही है जब दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा था और नए सिरे से विधानसभा के चुनाव नहीं हुए थे.

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आम आदमी पार्टी समर्थक

आम आदमी पार्टी की फ़ज़ीहत के लिए यह टेप ही काफी नहीं था. इसके बाद योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने चिट्ठी जारी की जिसमें सफाई कम आरोप ज़्यादा थे.
योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति से जिस तरह निकाला गया और उसके बाद यह मसला खींचतान के साथ जिस मोड़ पर आ गया है, उससे नेताओं का जो भी बने, पार्टी समर्थकों का मोहभंग ज़रूर होगा. दोनों तरफ के आरोपों ने पार्टी की कलई उतार दी है.
इस घटनाक्रम ने भारतीय राजनीति के एक अभिनव प्रयोग को हास्यास्पद बनाकर रख दिया है. लोकतांत्रिक मूल्य-मर्यादाओं की स्थापना का दावा करने वाली पार्टी संकीर्ण मसलों में उलझ गई. उसके नेताओं का आपसी अविश्वास खुलकर सामने आ गया.

केजरीवाल का वर्चस्व



केजरीवाल, मयंक गांधी

'नई राजनीति' के 'प्रवर्तक' अरविंद केजरीवाल पर उनके ही 'साथियों' ने विधायकों की ख़रीद-फ़रोख्त का आरोप लगाया है.
योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने पार्टी की रीति-नीति को निशाना बनाया है पर मामला इतना ही नहीं लगता. इसमें कहीं न कहीं व्यक्तिगत स्वार्थ और अहम का टकराव भी है.
यह स्वस्थ आत्ममंथन तो नहीं है. इस झगड़े के बाद पार्टी में अरविंद केजरीवाल का वर्चस्व ज़रूर कायम हो जाएगा, पर गुणात्मक रूप से पार्टी को ठेस लग चुकी है.

Monday, March 9, 2015

बलात्कार को लेकर भारत के खिलाफ क्या कोई वैश्विक साजिश है?

निर्भया मामले को लेकर बीबीसी की डॉक्यूमेट्री पर पाबंदी के विरोध में मेरे एक लेख का लिंक फेसबुक पर प्रकाशित करने पर कई पाठकों की प्रतिक्रिया से लगा कि वे इस देश की प्रतिष्ठा का प्रश्न मानते हैं। एक पाठक ने लिखा, 'जोशी जी कभी अपने समाज और देश के हित में भी सोचें। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं कि देश के खिलाफ बोलने लगें।'  इस आशय के विचार उन सब लोगों ने व्यक्त किए हैं जो डॉक्यूमेंट्री पर पाबंदी लगाने के पक्षधर हैं। मेरी धारणा शुद्ध रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल्यों पर आधारित है। मैं मानता हूँ कि यह स्वतंत्रता हमारे समाज के हित में है। 

इधर नीति सेंट्रल वैबसाइट ने एक विश्लेषण पेश किया है कि  क्या वजह है कि भारत में रेप की एक घटना सारी दुनिया में चर्चा का विषय बन जाती है। दिल्ली में एक कैब में हुआ बलात्कार न्यूयॉर्क टाइम्स की सुर्खी बन जाता है। वह भी तब जब दुनिया में बलात्कार के मामलों में भारत का स्थान काफी नीचा यानी 94 वें स्थान पर है, जबकि अमेरिका का नम्बर 14वाँ है। नीति सेंट्रल का विश्वास है कि यह सब वैश्विक ईसाई समुदाय से भारत के नाम पर चंदा वसूली के वास्ते हो रहा है। इस लेख के अनुसार भारत धर्मांतरण अभियान का महत्वपूर्ण देश है। इसने अपनी बात के पक्ष में वील ऑफ टियर्स फिल्म का हवाला भी दिया है।   

यह इस बात का एक दूसरा पहलू है। मेरे पास इस आरोप की पुष्टि या खंडन करने के आधार नहीं हैं और न मैं इस आरोप का समर्थन करता हूँ। बीबीसी की फिल्म पर पाबंदी लगाने के लिए यह उचित आधार भी नहीं है। अलबत्ता इस बात को पढ़ने और छानबीन करने लायक मानता हूँ। यह स्पष्ट करना भी जरूरी है कि नीति सेंट्रल, मीडिया क्रुक्स और अंग्रेजी दैनिक पायनियर बीजेपी के पक्षकार हैं। मैं यह भी नहीं कहता कि बीजेपी के पक्ष को पढ़ा या सुना नहीं जाना चाहिए। हमें अपनी जानकारी का स्तर बढ़ाना चाहिए और ऑब्जेक्टिव तरीके से चीजों को देखना चाहिए। इस विषय पर और भी पढ़ना चाहें तो कुछ लिंक नीचे दिए हैं।

नीति की साइट पर इस विषय को लेकर विश्लेषण

Sunday, March 8, 2015

अनुचित है फिल्म पर रोक लगाना

दिल्ली रेप कांड पर लेज़्ली उडविन की डॉक्यूमेंट्री 'इंडियाज़ डॉटर' में दिखाई गई सामग्री, उसकी उपयोगिता, निरर्थकता और दुष्प्रभाव को लेकर तमाम तरह की धारणाएं हैं। उनपर विमर्श किया जाना चाहिए, पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या इसके प्रदर्शन पर रोक लगनी चाहिए? वह भी इस जमाने में जब इंटरनेट पर किसी चीज के वायरल होने में सेकंड भी नहीं लगते हैं। इस फिल्म के साथ भी यह हुआ। सरकारी पाबंदी के बावजूद बीबीसी ने इस फिल्म को जारी कर दिया और देखते ही देखते यह फिल्म इंटरनेट पर जारी हो गई और लाखों लोगों ने इसे देख लिया। लोग अब पूछ रहे हैं कि इसमें ऐसा क्या था जिसके कारण इसपर पाबंदी लगाई गई। बहरहाल सरकार अपने रुख पर कायम है और यूट्यूब के प्रमुख यूजर्स के एकाउंट से फिल्म को हटवा दिया गया है। पर न जाने कितने लोगों ने इस फिल्म को डाउनलोड कर लिया है और वे यूट्यूब और इसी किस्म की दूसरी साइट्स पर इस फिल्म को अपलोड कर रहे हैं।
फिल्म को लेकर कई सवाल एक साथ उठे हैं जो इस प्रकार हैं:-
· क्या यह फिल्म भारत की छवि को खराब करती है?
· क्या इसे तैयार करते वक्त भारतीय जेल नियमों का पालन किया गया?· क्या बलात्कार के दोषी मुकेश सिंह को मंच देना उचित था? यह मामला अभी न्यायालय के विचाराधीन है। ऐसे में इसका प्रदर्शन अदालती निर्णय को प्रभावित कर सकता है।
· इस फिल्म में पीड़िता की पहचान की गई है। नियमानुसार और नैतिकता के तकाजे से भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए था।· यह फिल्म व्यावसायिक लाभ के लिए नहीं बनाई गई थी, पर इसका व्यावसायिक लाभ लिया जा रहा है।
· यह भी लगता है कि इस फिल्म के प्रदर्शन के विरोध के पीछे दो मीडिया हाउसों की प्रतिस्पर्धा है। एक मीडिया हाउस इसका प्रसारण करने जा रहा था कि दूसरे ने इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया और सरकार उसके दबाव में आ गई। कुछ मीडिया हाउसों की भूमिका विस्मयकारी है। वेअभिव्यक्ति पर रोक वाले पक्ष को देख ही नहीं पा रहे हैं।

Saturday, March 7, 2015

मीडिया में इंडियाज़ डॉटर

Surendra's Cartoon in The Hindu
India's Daughter: activists asking for postponement give legitimacy to illegal censorship
In their letter dated March 5, 2015 to NDTV, a group of activist lawyers and civil liberties campaigners have listed 13-odd reasons for requesting the channel to postpone the broadcast of Leslee Udwin’s film India’s Daughter till the Supreme Court delivers its verdict on the appeals lodged by those convicted and sentenced to death for committing the December 2012 Delhi gang rape. They state that the documentary’s centre-point is the interview with Mukesh Singh, one of the convicts on death row, in which he protests his innocence by asserting that the now-deceased victim was solely responsible for her plight; in fact, he nonchalantly claims that she deserved to be taught a lesson. According to them, this inculpatory statement could seriously prejudice his chances of escaping the hangman’s noose when the Supreme Court hears his appeal.
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'इंडियाज़ डॉटर' पर क्या कहते हैं लोग?

दिसंबर 2012 में दिल्ली में एक छात्रा के साथ हुए गैंगरेप और उसकी हत्या पर बनी डॉक्यूमेंट्री पर भारत में भी प्रतिक्रियाएं हो रही हैं.

Wednesday, March 4, 2015

कश्मीर में 'घोड़े और घास' की यारी!

कई प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक वर्जनाएं राजनीति तय करती है और फिर उनके उल्लंघन का रास्ता भी वही बताती है. सन 1996 में भाजपा इस राजनीति के लिए अछूत पार्टी थी, पर सन 2004 के चुनाव के ठीक पहले जिस तरह से अनेक उदारवादी प्रतिभाएं भाजपा में शामिल हो रहीं थीं उसे देखते हुए लगता था कि कांग्रेस का जमाना गया. पर उस चुनाव में भाजपा का गणित फेल हुआ और कांग्रेस का जमाना फिर से वापस आ गया. पर उस राजनीति में भी पेच था. श्रीमती सोनिया गांधी ने 'त्याग' करने का निश्चय किया और अपेक्षाकृत अनजाने व्यक्ति को देश का प्रधानमंत्री बना दिया. यह भी एक अजूबा था. दुनियाभर की राजनीति में ऐसे अजूबे होते रहते हैं. सन 1947 के पहले कौन कह सकता था कि भारत की संसदीय प्रणाली में कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका होगी. वे तो संसदीय प्रणाली के खिलाफ थीं. पर 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार चुनाव जीतकर बनी तो यह अजूबा था. दो साल बाद वह सरकार बर्खास्त की गई तो वह भी अजूबा था. जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा की सरकार बनना भी अजब लगता है, पर यह चुनाव परिणामों की तार्किक परिणति है. वहाँ की जो परिस्थितियाँ हैं उन्हें देखते हुए भविष्य में भी ऐसी सरकारें ही बनेंगी. कम से कम तब तक बनेंगी जब तक कोई अकेली ऐसी पार्टी सामने न आए जो जम्मू और घाटी दोनों जगह समान रूप से लोकप्रिय हो. हो सकता है ऐसा भी कभी हो, पर वर्तमान स्थितियों में जो हुआ है वह कुछ लोगों को अजूबा भले लगे, पर अपरिहार्य था. 

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा गठबंधन घोड़े और घास की दोस्ती जैसा लगता है. जम्मू के लोगों को लगता है कि घाटी वाले इसे कबूल नहीं करेंगे और घाटी वालों को लगता है कि यह सब तमाशा है. मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के बयान के बाद विघ्नसंतोषी बोले हम कहते थे न कि सब कुछ ठीक-ठाक चलने वाला नहीं है. पाकिस्तान और हुर्रियत की सकारात्मक भूमिका का जिक्र चल ही रहा था कि अफजल गुरु के अवशेषों की माँग सामने आ गई. मुफ्ती के बयान की गूँज संसद में भी सुनाई पड़ी है. गठबंधन के विरोधी तो मुखर हैं ही भाजपा के कार्यकर्ता भी उतर आए हैं. लगता है सरकार बस अब गई.