इन पंक्तियों के छपने तक
चुनाव के चार दौर पूरे हो चुके हैं. कुल 110 यानी बीस फीसदी से ज्यदा सीटों का
फैसला देश का वोटर कर चुका है. इस बार के चुनाव को देश के लिए युगांतरकारी माना जा
रहा है. इस उम्मीद से कि इस बार युवा वोटरों की काफी बड़ी तादाद है. माना जा रहा
है कि देश की बेशर्म राजनीति को जनता कुछ करारे तमाचे लगाना चाहती है. बावजूद इस
उम्मीद के मतदान के दो-एक रोज पहले से कुछ ऐसी प्रवृत्तियों ने सिर उठाया है जो
शर्मसार करती हैं. राजनीतिक दल सामाजिक ध्रुवीकरण के अभियान में जुट गए हैं. खासतौर
से पश्चिमी उत्तर प्रदेश से कुछ ऐसे वक्तव्य आए हैं जो कत्तई घटिया और फूहड़ हैं. अनावश्यक
रूप से देश की सेना को भी इसमें घसीट लिया गया.
Sunday, April 13, 2014
Friday, April 11, 2014
चुनाव सुधारों को भी तो मुद्दा बनाएं
तृणमूल कांग्रेस
ने अपने राष्ट्रीय चुनाव घोषणापत्र में चुनाव और प्रशासनिक सुधार को महत्वपूर्ण
मसला बनाया है. इस घोषणापत्र में पार्टियों के धन संचय को लेकर कुछ कड़ी बातें भी
कही गईं हैं. कहना मुश्किल है कि तृणमूल कांग्रेस इस मसले पर कितनी संजीदा है, पर
उसने औपचारिक रूप से ही सही इसे चुनाव का सवाल बनाया है. अभी तक का अनुभव है कि
देश के राजनीतिक दल और सरकारें चुनाव सुधारों का या तो विरोध करते हैं या उन्हें
लागू करने में देर लगाते हैं. सरकार ने जितनी आसानी से चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने
का सुझाव मान लिया, उतनी आसानी से पार्टियों के धन-संग्रह के नियमन से जुड़े
सुझावों को भी मान लेना चाहिए. खर्च की सीमा बढ़ाने के इस फैसले के पीछे भी पाखंड नजर
आता है. हर पार्टी चाहती है कि खर्च की सीमा बढ़ाई जाए, जबकि अभी तक अधिकतर
प्रत्याशी खर्च का विवरण देते वक्त सीमा के आधे के आसपास का खर्च ही दिखाते हैं.
जब खर्च करते ही नहीं तो सीमा बढ़ाना क्यों चाहते हैं?
Tuesday, March 25, 2014
राजनीति माने यू-टर्न और भगदड़
प्रमोद मुतालिक भाजपा में
शामिल क्यों हुए और पाँच घंटे के भीतर बाहर क्यों कर दिए गए? क्या वजह है कि पार्टी को जसवंत सिंह, आडवाणी
और हरिन पाठक जैसे वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करनी पड़ती है? यह कहानी सिर्फ भाजपा की नहीं है. बूटा सिंह,
सतपाल महाराज, सीके जाफर शरीफ, डी पुरंदेश्वरी और जगदम्बिका पाल जैसे नेताओं ने
कांग्रेस क्यों छोड़ी? राम कृपाल यादव और राम
विलास पासवान ने अपना भाजपा विरोध क्यों त्यागा? बंगाल में माकपा विधायक पार्टी छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल क्यों हो
रहे हैं? ये सवाल मन में तो आते हैं पर हम उन्हें पूछते
नहीं. हमने मान लिया है कि राजनीति में सब जायज है.
Monday, March 24, 2014
राजनीति में उल्टा-पुल्टा
लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़कर बिहार में रामकृपाल सिंह
भाजपा में शामिल हो गए। इसके पहले राम विलास पासवान की पार्टी ने भाजपा के साथ
गठबंधन किया। बिहार में भारतीय जनता पार्टी के एक हाथ में जाति का कार्ड है।
नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति के नेता के रूप में भी पेश किया जा रहा है। उधर
मुलायम सिंह यादव और मायावती ब्राह्मण वोटर का मन जीतने की कोशिश में लगे हैं। कांग्रेस
पार्टी ने जाटों को आरक्षण देने की घोषणा की है। लगभग हर राज्य में जातीय, धार्मिक
और क्षेत्रीय आधार पर बने राजनीतिक गठजोड़ों ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। टिकट
वितरण शुरू होते ही अचानक पार्टियों से भगदड़ शुरू हो गई है। अब कोई नहीं देख रहा
है कि किस पार्टी में जा रहे हैं। कल तक उसके बारे में कुछ कहते थे। आज कुछ और
कहते हैं। आरजेडी के गुलाम गौस ने लालटेन छोड़कर जेडीयू का तीर थाम लिया। वहीं
पप्पू यादव ने फिर राजद में आ गए हैं। बीजेपी में नरेंद्र मोदी के लिए वाराणसी और
राजनाथ सिंह के लिए लखनऊ की सीट खाली कराना मुश्किल हो रहा है।
वोट जो सिर्फ बैंक नहीं है
भारतीय राजनीति में अनेक
दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती
हैं। यह फर्क उसके राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। बीसवीं सदी के शुरू में इस आंदोलन ने
राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ली और तबसे लगातार इसकी शक्ल राष्ट्रीय रही। इस आंदोलन
के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के
आंदोलन भी चले। इनमें कुछ अलगाववादी भी थे। पर एक वृहत भारत की संकल्पना कमजोर
नहीं हुई। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ। छोटे
देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे भारत के पक्ष
में थी। यह एक नई राजनीति थी, जिसकी धुरी था लोकतंत्र। कुछ लोग कहेंगे कि भारत
हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है। पर वह सांस्कृतिक अवधारणा थी। लोकतंत्र
एकदम नई अवधारणा है। पर यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य
हैं।
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