Friday, April 11, 2014

चुनाव सुधारों को भी तो मुद्दा बनाएं

तृणमूल कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय चुनाव घोषणापत्र में चुनाव और प्रशासनिक सुधार को महत्वपूर्ण मसला बनाया है. इस घोषणापत्र में पार्टियों के धन संचय को लेकर कुछ कड़ी बातें भी कही गईं हैं. कहना मुश्किल है कि तृणमूल कांग्रेस इस मसले पर कितनी संजीदा है, पर उसने औपचारिक रूप से ही सही इसे चुनाव का सवाल बनाया है. अभी तक का अनुभव है कि देश के राजनीतिक दल और सरकारें चुनाव सुधारों का या तो विरोध करते हैं या उन्हें लागू करने में देर लगाते हैं. सरकार ने जितनी आसानी से चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने का सुझाव मान लिया, उतनी आसानी से पार्टियों के धन-संग्रह के नियमन से जुड़े सुझावों को भी मान लेना चाहिए. खर्च की सीमा बढ़ाने के इस फैसले के पीछे भी पाखंड नजर आता है. हर पार्टी चाहती है कि खर्च की सीमा बढ़ाई जाए, जबकि अभी तक अधिकतर प्रत्याशी खर्च का विवरण देते वक्त सीमा के आधे के आसपास का खर्च ही दिखाते हैं. जब खर्च करते ही नहीं तो सीमा बढ़ाना क्यों चाहते हैं?


विडंबना है कि विधि आयोग ने चुनाव से जुड़े मौजूदा कानूनों में सुधार की सिफारिशों पर राजनीतिक दलों की राय मांगी और कांग्रेस को छोड़कर ज्यादातर पार्टियों ने अपनी राय भी नहीं दी. पिछले 62 साल में चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग की पहल पर हुआ या अदालतों के दबाव के कारण. मतदाता पत्र बनाने और प्रत्याशियों के हलफनामे दाखिल कराने की व्यवस्था इसका उदाहरण है. हलफनामा देने की व्यवस्था दुनिया भर में अनूठी है. यह लागू तभी हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की पहल को समर्थन दिया. सन 2002 में जब चुनाव आयोग ने हलफनामों की व्यवस्था की तो सरकार ने उसे अध्यादेश जारी करके रोक दिया. इसके बाद 13 मार्च 2003 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह व्यवस्था लागू हो पाई.

चुनाव की घोषणा के बाद आदर्श चुनाव संहिता लागू करना भी राजनीतिक दलों को पसंद नहीं आता. फिलहाल कम से कम तीन ऐसे मामले हैं, जिनसे पार्टियों बचती हैं. चुनावी चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाना, दागी प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाना और गलत हलफनामे दाखिल करने पर कार्रवाई करना. पार्टियाँ ओपीनियन पोल पर चर्चा करना चाहती हैं, चुनावी चंदे पर नहीं. चुनाव प्रणाली में काले धन का जमकर इस्तेमाल होता है. यह काला धन राजनीतिक दलों को कहाँ से मिलता है इसका अनुमान लगाया जा सकता है. पिछले साल छह राष्ट्रीय दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की कोशिश को पार्टियों ने पसंद नहीं किया। वे इसे वापस कराने में सफल भी हो गए थे, पर अंततः संसद ने जन-भावनाओं का आदर करने हुए इस आदेश स्ठायी समिति को भेज दिया. इसी तरह दो साल से ज्यादा सजा पाने वाले जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्ति के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने वाला विधेयक पास नहीं हुआ और जनता के दबाव के कारण अध्यादेश भी नहीं लाया जा सका. इस लिहाज से यह हमारे लोकतंत्र की जीत है.

हमारे चुनाव पावर गेम हैं. इसमें मसल और मनीमिलकर माइंडपर हावी रहते हैं. जनता का बड़ा तबका भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का समर्थन सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे लगता है कि व्यवस्था पूरी तरह ठीक न भी हो, पर एक हद तक ढर्रे पर लाई जा सकती है. पिछले साल हुए पाँच विधानसभाओं के चुनाव में नोटा नाम की व्यवस्था शुरू हुई है. यह भी तब लागू हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकों के राइट टु रिजेक्टको मंजूरी दी. हालांकि यह व्यावहारिक रूप से राइट टु रिजेक्ट नहीं है, पर उस दिशा में एक कदम है. इसकी तार्किक परिणति है, ‘राइट टु रिकॉलयानी चुने जाने के बाद भी छुट्टी. इतने कड़े कानूनों को लागू करने के पहले हमें हमें अपने मतदाता तो भी इन अधिकारों के प्रति जागरूक बनाना होगा. पहले हमें राइट टु रिजेक्टको परिभाषित करना होगा. हमारी फर्स्ट पास्ट द पोस्ट व्यवस्था में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला प्रत्याशी जीतकर जाता है। भले ही उसके खिलाफ पड़े वोटों की संख्या उसे प्राप्त वोटों की दुगुनी हो. वह अपनी जीत को जनादेश घोषित कर देता है. इसका एक कारण प्रत्याशियों की बड़ी संख्या और वोटरों का जातीय-साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण है. इस ध्रुवीकरण को बढ़ाने की जिम्मेदार राजनीति है. पर इसमें जनता की जिम्मेदारी भी है. इसे ठीक करने का काम मीडिया और जागरूक नागरिकों को करना चाहिए.  

अभी तक हलफनामों में गलत विवरण देने पर कठोर सजा की व्यवस्था नहीं है. अब जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 125 ए में बदलाव की ज़रूरत है. और यह भी कि क्या एक प्रत्याशी को एक से ज्यादा जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति होनी चाहिए? एक सुझाव यह भी है कि ऐसे मामलों में जिनमें दो साल या उससे ज्यादा की सजा मिल सकती हो अदालतों में आरोप पत्र दायर हो जाने के बाद प्रत्याशी को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया जाना चाहिए. यह सच है कि उनके खिलाफ फर्जी मामले भी दर्ज होते हैं. पर यदि अदालतें कम से कम समय में फैसले करने लगें तो यह दुविधा खत्म हो सकती है. हाल में सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों को निर्देश दिया है कि जन प्रतिनिधियों के मुकदमे आरोप पत्र दाखिल होने के बाद एक साल के भीतर निपटाए जाएं. इससे कम से कम इतना होगा कि मुकदमे लम्बे नहीं खिंचेंगे.

विधि आयोग इस साल अप्रैल के मध्य तक चुनाव कानून में व्यापक सुधार पर अपनी रिपोर्ट दे सकता है. अब अगली सरकार और 16वीं लोकसभा ही रिपोर्ट पर चर्चा कर पाएगी. चुनाव सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जन-हित याचिका पर भी अप्रैल में सुनवाई होनी है. इस दौरान देश में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया भी चलेगी. ऐसे में वोटरों को प्रत्याशियों से पूछना चाहिए कि वे चुनाव सुधारों के लिए क्या करने जा रहे हैं. जिस तरह लोकपाल आंदोलन ने राजनीति की दिशा बदली है उसी तरह चुनाव सुधार भी इसे नई दिशा देंगे.

प्रभात खबर पॉलिटिक्स के 30 मार्च 2014 के अंक में यह आलेख प्रकाशित हुआ था। 26 मार्च 2014 को मेरी बाईपास सर्जरी हुई थी। सर्जरी के दो दिन पहले मैने यह लेख लिखा था। इसके बाद 6 अप्रेल 2014 के अंक के लिए लेख लिखने की स्थिति में मैं नहीं था। अब स्थिति बेहतर है। सम्भवतः 13 अप्रेल के अंक में मेरा लेख प्रकाशित होगा। वह भी प्रकारांतर से इसी लेख का एक और पहलू है।


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