Monday, January 7, 2013

तुम्हारा नाम क्या था दामिनी?

हिन्दू में केशव का कार्टून

लंदन के डेली मिरर ने दिल्ली गैंग रेप की पीड़ित लड़की का नाम और पहचान उजागर कर दी। उसके पिता चाहते हैं कि नाम उजागर हो। कानून का जो उद्देश्य है मामला उससे आगे चला गया है। सारा देश उस लड़की को उसकी बहादुरी के लिए याद रखना चाहता है। यदि उसे याद रखना है तो उसका नाम क्यों न बताया जाए। उसका दर्जा शहीदों में है। बहरहाल रेप पर चर्चा कम होती जाएगी, पर उससे जुड़े मसले खत्म नहीं होंगे। 

दिल्ली पुलिस ने शुक्रवार की रात ज़ी न्यूज़ चैनल के खिलाफ एक मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप है कि दिल्ली गैंगरेप के बाबत कुछ ऐसी जानकारियाँ सामने लाई गईं हैं, जिनसे पीड़िता की पहचान ज़हिर होती है। इसके पहले एक अंग्रेजी दैनिक के खिलाफ पिछले हफ्ते ऐसा ही मामला दर्ज किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए के तहत समाचार पत्र के संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, दो संवाददाताओं और संबंधित छायाकारों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। सम्भव है ऐसे ही कुछ मामले और दर्ज किए गए हों। या आने वाले समय में दर्ज हों। बलात्कार की शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू दिया है जिसमें उसने उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का विवरण दिया है। उस विवरण पर जाएं तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। पर उससे पहले सवाल यह है कि जिस लड़की को लेकर देश के काफी बड़े हिस्से में रोष पैदा हुआ है, उसका नाम उजागर होगा तो क्या वह बदनाम हो जाएगी? उसकी बहादुरी की तारीफ करने के लिए उसका नाम पूरे देश को पता लगना चाहिए या कलंक की छाया से बचाने के लिए उसे गुमनामी में रहने दिया जाए? कुछ लोगों ने उसे अशोक पुरस्कार से सम्मानित करने का सुझाव दिया है। पर यह पुरस्कार किसे दिया जाए? पुरस्कार देना क्या उसकी पहचान बताना नहीं होगा

Sunday, January 6, 2013

अफगानिस्तान में तुर्की की पहल और भारत

 हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति  अब्दुल्ला ग़ुल
और 
आसिफ अली ज़रदारी,

अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटने के पहले भावी योजना में तुर्की को महत्वपूर्ण भूमिका देती नज़र आती है। इस योजना में कुछ पूर्व तालिबान नेता भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान की जेलों से रिहा किया गया है। मोटे तौर पर इस प्रक्रिया में कोई असामान्य बात नहीं लगती, पर इसके पीछे भारत के महत्व को कम करने की कोशिश ज़रूर नज़र आएगी। सन 2012 में जून के पहले हफ्ते भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली थी अमेरिका के रक्षामंत्री लियन पेनेटा का अफगानिस्तान और भारत का दौरा। और दूसरी थी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की पेइचिंग में हुई बैठक। पेनेटा की भारत यात्रा के पीछे इस वक्त कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ अमेरिका की नीति में एशिया को लेकर बन रहे ताज़ा मंसूबों से भारत सरकार को वाकिफ कराना था। इन मंसूबों के अनुसार भारत को आने वाले वक्त में न सिर्फ अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभानी है, बल्कि हिन्द महासागर से लेकर चीन सागर होते हुए प्रशांत महासागर तक अमेरिकी सुरक्षा के प्रयत्नों में शामिल होना है। अमेरिका की यह सुरक्षा नीति चीन के लिए परेशानी का कारण बन रही है। वह नहीं चाहता कि भारत इतना खुलेआम अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए।

Saturday, January 5, 2013

आपकी उदासीनता??!!!?


     

सड़क पर फैला खून...
तैरकर या लांघकर निकल जाते हैं लोग
चुपचाप, बिना रुके...
कहां भीगता है कोई इस शहर में
-विजय किशोर 'मानव'


दिल्ली में बलात्कार का शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू में उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का जो विवरण दिया है वह एक भयावह माहौल की ओर संकेत करता है। टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में पीड़ित लड़की के मित्र ने पूरी घटना का सिलसिलेवार ब्योरा दिया है। लड़के का कहना था कि पीड़ित ने 100 नंबर पर पुलिस कंट्रोल रूम को फोन करने की कोशिश की थी, लेकिन अभियुक्तों ने उसका मोबाइल फोन छीन लिया। उनकी दोस्त के शरीर से बहुत ज्यादा खून बह रहा था। जब उसे और पीड़ित लड़की को नग्न अवस्था में बस से फेंक दिया गया तो उन्होंने राह पर आते-जाते लोगों को रोकने की कोशिश की लेकिन 20-25 मिनट तक कोई नहीं रुका। करीब 45 मिनट बाद पुलिस की पीसीआर वैन्स घटनास्थल पर पहुंची लेकिन आपस में अधिकार क्षेत्र तय करने में उन्हें समय लगा। वह बार-बार कोई कपड़ा दिए जाने की गुहार लगाता रहा लेकिन किसी ने उसकी बात न सुनी और काफी देर बाद एक बेडशीट फाड़ कर दी गई जिससे उसने पहले अपनी मित्र को ढँका। शायद उन्हें डर था कि वे रुकेंगे तो पुलिस के चक्कर में फंस जाएंगे। अस्पताल पहुंचने पर भी ठीक से मदद नहीं मिली। वहां भी किसी ने तन ढकना जरूरी नहीं समझा। युवक के अनुसार, वह वारदात की रात से ही स्ट्रेचर पर था। 16 से 20 दिसंबर तक वह थाने में ही रहा। इस दौरान पुलिस ने उसका उपचार भी नहीं करवाया। 

क्या यह आम नागरिक की बेरुखी थी? या व्यवस्था से लगने वाला डर? 
दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों में शायद यही बात हैः-

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर
खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ 

सरकारी व्यवस्था की उदासीनता को कोस कर क्या होगा, जब सामान्य व्यक्ति भी उतना ही उदासीन है। सरकार किसकी है? आपकी ही तो है? 


कोई नहीं आया मदद के लिए बीबीसी समाचार
ज़ी न्यूज़ पर इंटरव्यू

Monday, December 31, 2012

इस आंदोलन ने भी हमें कुछ नया दिया है


दिल्ली में जो जनांदोलन इस वक्त चल रहा है उसे थोड़ी सी दिशा दे दी जाए तो उसकी भूमिका सकारात्मक हो सकती है। पर इस दिशा के माने क्या हैं? दिशा के माने राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, लैंगिक और तमाम रूप और रंगत में देखे जा सकते हैं। इसलिए कहना मुश्किल है कि यह सकारात्मक भूमिका दो रोज में दिखाई पड़ेगी। पर इतना ज़रूर है कि जनता के इस रोष ने व्यवस्था को एक ताकतवर संदेश दिया है। पर सब कुछ सत्ता और व्यवस्था को ही नहीं करना है। उसे गुस्से के साथ-साथ हमारी सहमतियों, असहमतियों, सलाहों, सिफारिशों और निर्देशों की ज़रूरत भी है। पर सलाह-मशविरा देने वाली जनता भी तो हमें बनना होगा। इस आंदोलन में भी काफी बातें सकारात्मक थीं, जैसे कि किसी आंदोलन में होती हैं। ज़रूरत ऐसे आंदोलनों और सामूहिक भागीदारियों की हैं। यह भागीदारी जितनी बढ़ेगी, उतना अच्छा। फिलहाल इस आंदोलन ने भारतीय राज्य और जनता की दूरी को परिभाषित किया है। हमें  लगता है कि यह दूरी बढ़ी है, जबकि वह घटी है। प्रधानमंत्री और देश की सबसे ताकतवर नेता रात के तीन बजे कड़कड़ाती ठंड में एक गरीब लड़की के शव को लाते समय हवाई अड्डे पर मौज़ूद रहे, यह इस बात को बताता है कि नेतृत्व जनता की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं चाहता। पर यह सिर्फ मनोकामना है, इस मनोकामना को व्यावहारिक रूप में लागू करने वाली क्रिया-पद्धति इसकी आदी नहीं है। 

साल का आखिरी दिन पश्चाताप का हो या आने वाली उम्मीदों का? एक ज़माने में जब अखबार ब्लैक एंड ह्वाइट होते थे, साल के आखिरी दिन और अगले साल के पहले दिन के लिए पहले सफे पर छापने के लिए दो फोटो चुने जाते थे। अक्सर सूरज की फोटो छपती थी। एक सूर्यास्त की और दूसरी सूर्योदय की। इन तस्वीरों के आगे पीछे किसी पक्षी, किसी मीनार, किसी पेड़ या किसी नाव, नदी, पहाड़ की छवि होती थी। इसके साथ होता था कवितानुमा कैप्शन जो वक्त की निराशा और आशा दोनों को व्यक्त करने की कोशिश करता था। बहरहाल वक्त बदल गया। जीवन शैली बदल गई। दूरदर्शन के साथ बैठकर नए साल का इंतज़ार के दिन गए। अब लोग सनी लियोनी या कैटरीना कैफ के डांस के साथ पिछले साल को विदा देना चाहते हैं। जिनकी हैसियत इतनी नहीं है वे अपने शहर या कस्बे की लियोनी खोजते हैं। बहरहाल साल का अंत होते-होते भारतीय क्रिकेट टीम ने पाकिस्तान की टीम को टी-20 के दूसरे मैच में हराकर हमारी निराशा को कम किया, वहीं सिंगापुर के अस्पताल में उस अनाम लड़की ने दम तोड़ दिया, जिसकी एक-एक साँस के साथ यह देश जुड़ चुका था। देश का मीडिया उसे अनाम नहीं रहने देना चाहता था, इसलिए उसने उसे निर्भया, अमानत, दामिनी और न जाने कितने नाम दिए। और उसके नाम पर कितने टीवी शो निकल गए।

Thursday, December 27, 2012

आइए आज गीत ग़ालिब का गाएं


27 दिसम्बर 1797 को मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ग़ालिब” का जन्म आगरा मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे। उन्हें उर्दू के सार्वकालिक महान शायरों में गिना जाता है। ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। 1850 मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फर द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को "दबीर-उल-मुल्क" और "नज़्म-उद-दौला" के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे "मिर्ज़ा नोशा" का खिताब भी मिला। आगरादिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। 15 फरवरी 1869। सन 1969 को भारत सरकार ने महात्मा गांधी की जन्मशती मनाई। संयोग से वही साल ग़ालिब के निधन का साल है। इस मौके पर भारत सरकार ने ग़ालिब की पुण्य तिथि की शताब्दी मनाई। कहना मुश्किल है कि स्वतंत्र भारत में महात्मा गांधी से लेकर हिन्दी और उर्दू का सम्मान कितना बढ़ा, पर उर्दू के शायर साहिर लुधयानवी के मन में उर्दू को लेकर ख़लिश रही। इस मौके पर मुम्बई में हुए एक समारोह में साहिर ने उर्दू को लेकर जो नज़्म पढ़ी उसे दुबारा पढ़ाने को मन करता है। शायद आप में से बहुत से लोगों ने इसे पढ़ा हो।

इक्कीस बरस गुज़रे, आज़ादी-ए-कामिल को
तब जाके कहीं हमको, ग़ालिब का ख़याल आया
तुर्बत है कहाँ उसकी, मसकन था कहाँ उसका
अब अपने सुख़नपरवर ज़हनों में सवाल आया
आज़ादी-ए-कामिल: संपूर्ण स्वतंत्रता         तुर्बत: क़ब्र, मज़ार
मसकन: घर             सुख़नपरवर ज़हनों: शायरी के संरक्षक, ख़यालों

सौ साल से जो तुर्बत, चादर को तरसती थी
अब उसपे अक़ीदत के, फूलों की नुमाइश है
उर्दू के तअल्लुक़ से, कुछ भेद नहीं खुलता
यह जश्न यह हंगामा, ख़िदमत है कि साज़िश है
अक़ीदत: श्रद्धा, निष्ठा         तअल्लुक़: प्रेम, सेवा, पक्षपात

जिन शहरों में गूँजी थी, ग़ालिब की नवा बरसों
उन शहरों में अब उर्दू, बेनाम-ओ-निशाँ ठहरी
आज़ादी-ए-कामिल का, ऐलान हुआ जिस दिन
मअतूब ज़ुबाँ ठहरी, ग़द्दार ज़ुबाँ ठहरी
नवा: आवाज़                    बेनाम-ओ-निशाँ: गुमनाम
मअतूब: दुखदाई, घृणा योग्य, अभागी

जिस अहद-ए-सियासत ने, यह ज़िंदा ज़ुबाँ कुचली
उस अहद-ए-सियासत को, मरहूमों का ग़म क्यों है
ग़ालिब जिसे कहते हैं, उर्दू ही का शायर था
उर्दू पे सितम ढाकर, ग़ालिब पे करम क्यों है
अहद-ए-सियासत: सरकार के काल          मरहूमों: मृतक, स्वर्गीय
ग़ालिब: श्रेष्ठ व्यक्ति, मिर्ज़ा ग़ालिब            करम: कृपा, उदारता, दया, दान

यह जश्न यह हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं
कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएँ
जो वादा-ए-फ़र्दा पर, अब टल नहीं सकते हैं
मुमकिन है कि कुछ अरसा, इस जश्न पे टल जाएँ
वादा-ए-फ़र्दा: आनेवाले कल के वादे

यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाक़त है
हम लोग हक़ीक़त के, एहसाह से आरी हैं
गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में
हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं
सदाक़त: वास्तविकता, सच्चाई        आरी: रिक्त, महरूम