Monday, July 18, 2011

धमाके दैवीय आपदा नहीं


हमारी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में छिपे हैं सुरक्षा के खोट
धमाके दैवीय आपदा नहीं

पिछले हफ्ते भारतीय मीडिया पर तीन विषय छाए थे। स्वाभाविक रूप से पहला विषय था भ्रष्टाचार और दूसरा था केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार। और तीसरा विषय था या अभी है-आतंकवाद। इन तीनों में क्या कोई आपसी रिश्ता भी है? आप चाहें तो इनमें कुछ विषय और जोड़ लें जो अक्सर चर्चा में होते हैं। भारत-पाक समस्या, कश्मीर, माओवादी हिंसा, जातीय और साम्प्रदायिक सवाल, बॉलीवुड और मीडिया। मुम्बई धमाकों का इन सब के साथ रिश्ता जोड़ा जा सकता है।

मुम्बई धमाके हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। इनके पीछे कौन है, इसका पता लग भी जाए, पर ऐसा फिर से न होने पाए इसे सुनिश्चित करने वाली मशीनरी बननी चाहिए। पिछले धमाकों की फाइलें ही अधूरी पड़ीं हैं। कोई घटना होते ही हम सबसे पहले अपनी पेशबंदी करते हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री ने पहले दिन ही कह दिया कि यह इंटेलिजेंस फेल्यर नहीं था। तब यह क्या था? धमाके कहीं भी हो सकते हैं। आतंकियों ने अमेरिका जैसे देश की सुरक्षा व्यवस्था को भेदकर दिखा दिया। उन्होंने लंदन, मैड्रिड और मॉस्को तक में धमाके किए। पिछले साल मई में न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में एक कार में बम रखा मिला। कार ही नहीं पकड़ी गई, बम रखने वाला भी पकड़ा गया।  यह कैसे सम्भव हुआ? इसकी वजह यह है कि उन्होंने एकबार किसी संगठन या समूह को पहचान लिया तो उसकी धमनियों, शिराओं और नाड़ियों तक पर नज़र रखना शुरू कर दिया। वे अपनी सुरक्षा के लिए चौकस हैं। अक्सर अमेरिकी सुरक्षा कर्मी अभद्रता करते हैं, पर सुरक्षा चूक नहीं करते।

क्या हमारी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में कोई खोट है जो हमें सख्ती के साथ निपटने से रोकती है? गृहमंत्री चिदम्बरम ने सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों का समर्थन किया है। पर सवाल है कि धमाकों के लिए जिम्मेदार कौन है? कहीं न कहीं किसी किस्म की विफलता है। यह राजनैतिक प्रश्न नहीं प्रशासनिक सवाल है। आमतौर पर होने वाली आतंकी घटनाओं की जाँच होती है और हम कुछ लोगों की पकड़-धकड़ भी करते हैं, पर इस बात की जाँच नहीं होती कि किस खुफिया एजेंसी या सुरक्षा एजेंसी की चूक से ऐसा हुआ। आमतौर पर सरकार ऐसी जाँच कराने से बचती है। जब गृहमंत्री ही एजेंसियों का बचाव कर रहे हैं, तब जाँच की ज़रूर क्या है? 26/11 के बाद महाराष्ट्र सरकार ने अपनी पुलिस व्यवस्था की त्रुटियों की जाँच के आदेश दिए थे, पर केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय एजेंसियों की जाँच नहीं कराई। इस किस्म की गफलत अमेरिका या इंग्लैंड की सुरक्षा एजेंसियां नहीं कर सकतीं। और हम हर बार धमाकों के बाद इसे दैवीय आपदा मान लेते हैं।   

आतंकवादियों पर उनके अड़्डे से नज़र रखी जाती है। अनेक संगठन और उनके प्रमुख कार्यकर्ता जाने-पहचाने हैं। वे किस से मिलते हैं, क्यों मिलते हैं वगैरह की नियमित रूप से जानकारी रखनी होती है। इंटेलिजेंस का काम धीमा और सुस्थिर होता है। उसे जनता के बीच अच्छा सम्पर्क रखना होता है। पर हमारे यहाँ पुलिस की छवि दोस्त की नहीं दुश्मन की है। छवि को बदले बगैर बेहतर इंटेलिजेंस सम्भव नहीं। दूसरे हमारे यहाँ इंटेलिजेंस के तमाम संगठन हैं, जिनके बीच तालमेल लगभग शून्य है। पाकिस्तान को सौंपी गई आतंकियों की सूची का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं है।

मुम्बई हादसे में अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल हुआ। इसके पहले के धमाकों में भी हुआ। अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल खेती में होता है। अमेरिका में फरबरी 1993 में न्यूयॉर्के के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ाने की कोशिश करने वालों ने अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किया था। उसके बाद से अमेरिका, कनाडा और अन्य पश्चिमी देशों ने ऐसा नेटवर्क बनाया है कि कहीं भी अमोनियम नाइट्रेट की अस्वाभाविक खरीद-फरोख्त होती है तो अलर्ट मिल जाती है। यों भी उसकी खरीद के नियम बदल गए हैं। क्या हमने खाद विक्रेताओं को आगाह किया है कि कोई गैर-किसान नज़र आने वाला व्यक्ति अमोनियम नाइट्रेट खरीदे तो पुलिस को बताए? क्या पुलिस वालों की ट्रेनिंग इस किस्म की है कि वे खतरे को समझें?

हम जब भ्रष्टाचार की बात करते हैं, तब ऊपरी  सतह से ज्यादा वह निचली सतह पर होता है। जनता जब सबको चोर कहती है तब उसका अपना अनुभव बोलता है। आतंकी खतरों को टालने में इसी जनता के सहयोग की ज़रूरत होती है। पर वह किसे सहयोग दे? जिन्हें सहयोग देना है उनसे वह डरती है। नब्बे के दशक में जब सबसे पहले जैन हवाला मामला सामने आया तब मसला राजनैतिक नेताओं का नहीं सुरक्षा व्यवस्था का था। कश्मीर के आतंकवादियों के लिए हवाला के मार्फत पैसा आ रहा था। आतंकवादियों और राजनेताओं के शक्तिस्रोत जब इतने करीब होंगे तब क्या होगा, यह आप समझ सकते हैं। 1993 की वोहरा कमेटी की रपट हमारे यहाँ लम्बे अर्से तक धूल खाने के बाद सामने भी आई तो क्या हो गया? यह बात तब से कही जा रही है कि हमारी सुरक्षा का वास्ता हमारी व्यवस्था से भी है।   

फिलहाल खबर यह है कि जाँच एजेंसियों ने कुछ व्यक्तियों पर ज़ीरो-इन किया है। शायद किसी का स्केच भी बनाया गया है। अच्छी बात यह है कि यह स्केच अभी सिर्फ जाँचकर्ताओं को दिया गया है। वर्ना तमाम चैनल उसे अपना एक्सक्ल्यूसिव बता कर चला चुके होते। 26/11 के मौके पर चैनलों के धारावाहिक प्रसारण से पाकिस्तान में बैठे लश्करियों को बड़ी मदद मिली थी। हम धीरे-धीरे समझदार हो रहे हैं। हमारे पास बेहतरीन जाँचकर्ता हैं। वे अपराधियों को खोज निकालेंगे। पर वक्त है कि हम सुरक्षा को व्यापक संदर्भों में देखें। 

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित


Friday, July 15, 2011

मंत्रिमंडल में फेर-बदल क्यों होता है?


संसदीय लोकतंत्र के विशेषज्ञों के लिए यह शोध का विषय है कि प्रधानमंत्री बीच-बीच में अपने मंत्रिमंडल में फेर-बदल क्यों करते हैं। और यह भी कि फेर-बदल कब करते हैं। किसी भी बदलाव का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि पूरी टीम के बीच काम का नया माहौल बनता है, चुस्ती आती है। नए लोग सामने आते हैं और ढीला काम करने वाले बाहर होते जाते हैं। इस फेर-बदल के पीछे सप्लाई और डिमांड का मार्केट गणित भी होता है। यानी कुछ लोग सरकार में शामिल होने के लिए दबाव बनाते हैं और कुछ खास तरह के लोगों की ज़रूरत बनती जाती है। साथ ही मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा भी हो जाती है। इन सब बातों के अलावा राजनैतिक माहौल, विभिन्न शक्तियों के बीच संतुलन बैठाने और यदि गठबंधन सरकार है तो सहयोगी दलों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी बदलाव होते हैं। इतनी लम्बी कथा बाँचने की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि हम केन्द्रीय मंत्रिमंडल के ताजा फेर-बदल का निहितार्थ समझ सकें।

न्यूयॉर्क, लंदन और मैड्रिड सुरक्षित हैं तो मुम्बई क्यों नहीं


मुम्बई में एक बार फिर से हुए धमाकों से घबराने या परेशान होकर बिफरने की ज़रूरत नहीं है। यह स्पष्ट भले न हो कि इसके पीछे किसका हाथ है, पर यह स्पष्ट है कि वह हाथ किधर से आता है। पहला शक इंडियन मुजाहिदीन पर है। सन 2007 में लखनऊ और वाराणसी में हुए धमाकों और 2008 में जयपुर और अहमदाबाद के धमाकों की शैली से ये धमाके मिलते-जुलते हैं। पर इन मुजाहिदीन की मुम्बई के निर्दोष लोगों से क्या दुश्मनी? दहशत के जिन थोक-व्यापारियों की यह शाखा है, उन तक हम नहीं पहुँच पाते हैं।

घूम-फिरकर संदेह का घेरा लश्करे तैयबा और तहरीके तालिबान पाकिस्तान वगैरह पर जाता है। अब यह जानना बहुत महत्वपूर्ण नहीं कि उनके पीछे कौन है। वे जो भी हैं पहचाने हुए हैं। और उनके इरादे साफ हैं। महत्वपूर्ण है उनका धमाके कराने में कामयाब होना। और धमाके रोक पाने में हमारी सुरक्षा व्यवस्था का विफल होना। यह भी सच है कि सुरक्षा एजेंसियाँ अक्सर धमाकों की योजना बनाने वालों की पकड़-धकड़ करती रहतीं है। ऐसा न होता तो न जाने कितने धमाके हो रहे होते। देखना यह भी चाहिए कि मुम्बई में ऐसा क्या खास है कि वह हर दूसरे तीसरे बरस ऐसी खूंरेजी का शिकार होता रहता है। क्या वजह है कि वहाँ का अपराध माफिया इतना पावरफुल है?

Monday, July 11, 2011

लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है



सवालों के ढेर में जवाब खोजिए

पिछले कुछ समय से लगता है कि देश में सरकार नहीं, सुप्रीम कोर्ट काम कर रही है। ज्यादातर घोटालों की बखिया अदालतों में ही उधड़ी है। अक्सर सरकारी वकील अदालतों में डाँट खाते देखे जाते हैं। परिस्थितियों के दबाव में सरकार की दशा सर्कस के जोकर जैसी हो गई है जो बात-बात में खपच्ची से पीटा जाता है। इसके लिए सरकार भी जिम्मेदार है और कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि सरकार का बचाव करना मुश्किल है। पर शासन की यह दुर्दशा शुभ लक्षण नहीं है। हमारी व्यवस्था में सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के काम बँटे हुए हैं। जिसका जो काम है उसे वही सुहाता है। पर ऐसा नहीं हो रहा है तो क्यों? और कौन जिम्मेदार है इस दशा के लिए?

Saturday, July 9, 2011

NoW का अंत

न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड यानी Now ऐसा कोई बड़ा सम्मानित अखबार नहीं था। पर 168 साल पुराने इस अखबार को एक झटके में बन्द करने की ऐसी मिसाल नहीं मिलेंगी। रूपर्ट मर्डोक ने युनाइटेड किंगडम की पत्रकारिता को लगभग बदल कर रख दिया। अखबारों की व्यावसायिकता को इस हद तक सम्माननीय बना दिया कि कमाई के नाम पर कुछ भी करने का उनका हौसला बढ़ा। तुर्रा यह कि पत्रकारिता के प्रवचन भी वह लपेट कर देते थे। बहरहाल इंग्लैंड में पत्रकारिता, अपराध और सरकार के रिश्तों पर नई रोशनी पड़ने वाली है। हमारे देश के लिए भी इसमें कुछ संकेत छिपे हैं बशर्ते उन्हें समझा जाए।