Tuesday, May 11, 2010
मैं इनसक्रिप्ट कीबोर्ड पर यूनीकोड में लिख रहा हूं। ऑफिस में मैं फोनेटिक पर लिखता था। दोनों एक हैं, केवल ह्रस्व इ की मात्रा लगाने की व्यवस्था और रेफ लगाने का तरीका फर्क है। प्रश्नसूचक चिह्न भी नहीं मिलता। बहरहाल इधर से उधर कॉपी करने से कभी फॉण्ट बदलता है, कभी कुछ और। हिन्दी के लिए जल्द से जल्द बेहतर तकनीक की ज़रूरत है।
खबरों की गलाई, ढलाई और मरम्मत यानी पत्रकारिता
समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम पर प्रकाशित तीन पुरानी पोस्ट भी मैं यहाँ रख रहा हूं। मैं अपने विचार को तराश कर साफ करना चाहता हूँ। यदि आपको मेरी धारणा में अंतर्विरोध नज़र आए तो मुझे ज़रूर बताएं।
बदलाव माने कचरा-कल्चर नहीं
सोमवार, 3 मई 2010
प्रमोद जोशी
अखबार में काम करना अनोखा अनुभव है। सामाजिक संरचना में किसी ने तय नहीं किया था कि अखबार की क्या भूमिका होगी, पर वह अपनी जगह बनाता गया। दुनिया की संसदों और संविधानों ने उसे जगह दी। हमारे घरों का हिस्सा बनाता गया। मुझे अखबार की नौकरी के शुरुआती दिन याद आते हैं। वह हॉट मेटल का दौर था। पायनियर लिमिटेड, 20, स्टेशन रोड, लखनऊ के गेट पर रात के दो बजे मजमा लगता था। बेनी की चाय- दुकान बंद हो चुकी होती थी और उसकी जगह राजकुमार की दुकान रात के दो बजे शुरू होती थी। पहले ग्राहक होते थे एक- दो चीफ सब एडिटर, सब एडिटर, प्रूफ रीडर , फोरमैन , मेकअपमैन, लाइनो, मोनो ऑपरेटर, करैक्टर, डिस्टीब्यूटर वगैरह। वे लोग जो अखबार छोड़कर बाहर निकलते थे। इसके बाद प्रिंटरों, सेल्समैनों और हॉकरों वगैरह का काम शुरू होता था।
शीशे के गिलास में चाय लेकर सूनी सड़क के बीचो-बीच डिवाइडर पर बैठकर पन्द्रह-बीस मिनट की उस कांफ्रेस में गम्भीर मसलों से लेकर हल्की-फुल्की गॉसिप तक हो जाती थी। कई तरह के लोगों को डायरेक्ट या इनडायरेक्ट रोजगार देता था अखबार। इमर्जेंसी खत्म होने के बाद 1977 में जिस रात चुनाव परिणाम आ रहे थे, पायनियर के गेट पर जैसे आधा लखनऊ उमड़ पड़ा था। तब अखबार में छपे हर्फं ध्रुव सत्य माने जाते थे। अखबार का हर कर्मचारी खास होता था। जेब में पैसा नहीं, पर बाहर इज्जत थी। पत्रकारों के तीन-चार ठीए होते थे। विधानसभा की कैंटीन, कॉफी हाउस, रवीन्द्रालय और अमीनाबाद का कंचना रेस्त्रां। जेब में पैसा होता तो ‘बेनबोज’ में बैठ जाते। राजनीति, रंगमंच, कला और साहित्य के इर्द-गिर्द जिंदगी चलती थी। यह सब बड़ा पर्सनल है और जो लखनऊ के नहीं है, उनके लिए बोरिंग भी होगा। दिल्ली में भी ऐसा ही कुछ होता रहा होगा। इन्दौर, कोलकाता, चेन्नई और मुम्बई में भी।
सन 1450 में जब गुटेनबर्ग ने पहला मूवेबल टाइप बनाया, तो वह अजूबा था। किसी ने सोचा नहीं था कि यह इन्वेंशन दुनिया के लिए क्रांतिकारी होने वाला है। इस टाइप की बदौलत छपी बाइबल की प्रतियां जब पहली बार पेरिस पहुंचीं तब लोग डर गए। उन्हें लगा, जरूर यह प्रेत विद्या हैं। इतने साफ-सुथरे एक समान अक्षरों वाली किताब कैसे संभव है। पर छपाई का आविष्कार उस बाइबिल के लिए नहीं हुआ था। ज्ञान और सूचना की वह क्रांति नहीं होती, तो दुनिया ऐसी न होती । सन 1470 के दौर के किसी यूरोपियन के मन को पढ़ने का मौका मिले तो हम उस रोमांच से परिचित हो सकेंगे। शुरुआती न्यूजबुक्स आज के मुकाबले बदरंग, अनगढ़ और निहायत बोर थीं, पर वह उस दौर की नई चीज थी। उनमें एक-दूसरे से चोरी करके चीजें छापीं जाती थीं। वह चोरी न होती तो पत्रकारिता का विकास शायद सुस्त होता। जोनाथन स्विफ्ट और डेनियल डैफो जैसे लेखक उसी दौर में निकले। उस दौर की खासियत थी लेखकों का शासकों से टकराव। इसके अगले सौ-दो सौ साल यूरोप में वैचारिक क्रांति के नाम थे। गांव-गांव, गली-गली के लेखक एनसायक्लोपीडिया लिखने में जुट गए। पाठकों के भीतर ज्ञान की प्यास थी। राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को बांधने वाला यह धागा, खुद-ब-खुद मजबूत होता चला गया।
अखबार सिर्फ खबर या सूचना नहीं देता। वह अपना प्रभाव या असर बेचता है। उसकी साख उसका संबल है। वह कारोबार भी है, पर सिर्फ कारोबार नहीं। कागज के रूप में वह बिकता है, पर उसका सामाजिक प्रभाव बिकाऊ नहीं होता, कारोबारी असर ही बिकाऊ होता है, इसीलिए अखबार में विज्ञापन की जगह अलग होती है। जब खबरों के बीच विज्ञापन के आईलैंड पहली बार लगे तब झटका लगा था। बगैर पूंजी के वह निकल नहीं सकता। पूंजी लगाने वाला रिटर्न मांगता है, वह सामाजिक जिम्मेदारी नहीं जानता। इसीलिए अखबार के कारोबार के बारे में सोचने का वक्त है। बाजार की छुट्टा पूँजी उसे जीने नहीं देगी। उसे उसका पाठक ही बचा सकता है।
पूंजी लगाने वाले और उसे मैनेज करने वाले अपने प्रोडक्ट और पाठक के रिश्तों को नहीं जानते। उधर इस कर्म से जुड़े लोग बदलते बाजार को नहीं देख पा रहे हैं। वे बिजनेस को कोसते है। यह पत्रकारिता कारोबार भी है, पर साबुन और तेल-फुलेल बेचने जैसा धंधा भी नहीं है। प्योर न्यूज ऑर्डियेंस कम हुआ है। नया पाठक मजेदार खबरें चाहता है। ऑरकुट, ट्विटर और फेसबुक के पाठक अखबार के पाठक से अलग हैं। एनडीटीवी का अंग्रेजी न्यूज चैनल तक यू ट्यूब और नेट से रोचक खबरें उठाकर पाठकों को दिखा रहा है। बाजार की उपेक्षा करके बाजार में कैसे बना रह सकता है। पर यह नई बात नहीं है। एक जमाने तक अखबार बेहद उबाऊ होते थे। उनमें रोचक कविताएं, कहानियां, चुटकुले, कार्टून और कॉमिक्स कालांतर से जुड़े। रंगीन छपाई तो कुछ और देर की बात है। रोचक होना क्या सचाई, जागरूकता और जिम्मेदारी को भुलाना है, जो पत्रकारिता की बुनियादी जरूरत है?
समाचारफॉरमीडिया में प्रकाशित आलेखों को पढ़ते वक्त मैंने पाया कि अधिकतर लेखक मानते हैं कि मीडिया क्रमश: गैर जिम्मेदार होता गया है। खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। अखबारों में भी ह्रास हुआ है। मैं यहां दो टिप्पणियों का उल्लेख करना चाहता हूं। मेरा उद्देश्य लेखकों के विचारों पर टिप्पणी करना नहीं है।, केवल उनकी उठाई बातों को हाइलाइट करना है। राजकिशोर ने पाठकों से पूछा है कि क्या आप ‘जनसत्ता’ पढ़ते हैं? उन्होंने लिखा है कि पत्रकारिता की दुनिया से साहित्य और संस्कृति पर चर्चा जिस तरह से नदारद हुई है, उस पर आंसू बहाने वाले भी नहीं मिलते।... शायद पत्रकारिता की प्रोफेशनल परिभाषा में साहित्य के लिए कोई स्थान नहीं है। राजकिशोर मानते हैं कि ‘जनसत्ता’ के पराभव के अपने कारण हैं, पर आज भी युवा पत्रकार अपनी राय बनाने के लिए उसे पढ़ते हैं।
स्टार न्यूज के सीईओ उदय शंकर ने अपने आलेख में विवेचन करने के बजाय स्टार न्यूज की कवरेज को डिफेंड किया है। उनके शब्दों में खासकर ‘बुद्धिजीवी किस्म के’ अखबार वाले खामखां चिंता व्यक्त कर रहे हैं। बदलते वक्त के साथ न्यूज चैनलों में बदलाव आ रहा है। तो गलत क्या है? उनके अनुसार न्यूज चैनल ही आज की तारीख में बेईमान, भ्रष्ट, अपराधी और दलाल किस्म के लोगों पर सबसे अधिक हमला कर रहे हैं। चैनल न होते तो क्या प्रिंस गढ्ढे से वापस आ सकता था? लब्बो-लुवाब यह कि हमें सिर्फ दर्शक की चिंता है। दर्शक फलां-फलां चीजें देखता है तो हम दिखाते हैं। अखबार में अश्लील फोटो छापते हैं। उदय शंकर का सवाल है- अगर मास गायब कर देंगे। तो मीडिया किस काम का?
जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, तहलका, एमपीलैड, संसद में सवाल पूछने के लिए पैसा जैसे मामले उठाने में इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। पर जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था, तब भी तो ये मामले उठते थे। अखबारों की उस परम्परा ने ही देश में प्राइवेट चैनलों का रास्ता खोला। बल्कि इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों की खबरों पर चैनलों की फॉलोअप खबरे बनती हैं। तात्तकालिकता और विजुअल इस मीडिया की ताकत है। अखबार वालों और चैनल वालों का यह झगड़ा यही नहीं है। मीडिया में सनसनी नकारात्मक वैल्यू है। चैनल संचालक सनसनी को बढ़ावा देते हैं। दर्शक देखना चाहता है तो आप जरूर दिखाएं, कौन रोकेगा आपको? पर दर्शक की सुरुचि और कुरुचि बनाने में भी हमारी भूमिका है। विजुअल का असर क्या होता है, यह हम अस्सी के दशक में आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान एक युवा छात्र के आत्मदाह के प्रयास की तस्वीरों से देख चुके हैं। गनीमत है, उस समय चैनल नहीं थे। बाबरी आंदोलन के वक्त नहीं थे। होते तो क्या होता? खबर की प्राथमिकता सनसनी से तय होती है। दावतों में सारी भीड़ चटपटी चीजों पर टूटती है। काफी देर बाद पता लगता है कि जंक फूड नुकसानदेह है। यह समझदारी देर से बनती है। हमारे यहां भी बनेगी। पर जो समझदार लोग हैं, उनसे उम्मीद की जाती है वे आग न भड़काएं। धंधे के उसूल बनाएं।
बीबीसी को देखें तो लगेगा कि वह भारतीय न्यूज चैनलों से काफी पीछे है। हमने न्यूज चैनल और एंटरटेनमेंट चैनल का अंतर खत्म कर दिया है। हम समझते थे कि खबरों का ट्रीटमेंट खबर की तरह होना चाहिए। माधुरी गुप्ता प्रकरण पर एक हिंदी न्यूज चैनल ने बाकायदा अभिनय करके माधुरी गुप्ता की कहानी को पेश की। यह तब है जब हम इस मामले की तमाम ज़रूरी बातें नहीं जानते। उदय शंकर कहते है कि ‘मास’ गायब कर देंगें तो ’मीडिया’ किस काम का? टीआरपी के पैमाने में सारी आईबॉल्स की वैल्यू बराबर होती है। मार्केटिंग कहती है, हमें आईबॉल्स लाकर दो। क्वालिटी व्यूअर का नम्बर छोटा है।
हिंदी में श्रेष्ट अखबार की जरूरत है, जो आर्थिक रूप से सफल हों। अपने पाठक के लिए विश्वविद्यालय का काम करें। जो हिंदी के बौद्धिक जगत को स्वीकार हो और आम जनता को भी। ‘आनन्द बाजार पत्रिका’ और ‘मलयालम मनोरमा’ जैसे, बल्कि उनसे बेहतर अखबार हम क्यों नहीं निकाल सकते? जिनमें गहराई, गंभीरता और समझदारी हो। हिंदी में अभी तक कम से कम दस साल तक अखबार बढते रहेंगे। मास और क्लास के मुहावरों में थोड़ा अंतर होगा, पर यह धारणा गलत है कि मास मीडिया माने कुरुचि है। अच्छा अखबार क्लास और मास दोनों को पंसद होगा। फिर भी हमें एक क्लास के अखबार की जरूरत है। उदयशंकर ने ‘बुद्धिजीवी किस्म के’ लोगों पर फिकरा कसा है। इधर ऐसे लोगों की खिल्ली उड़ाने का चलन बढ़ा है, जो बहस करते हैं।
बदलती टेक्नॉलजी और संस्कृति के साथ सूचना के माध्यम जरूर बदल रहे हैं। पर ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर, एफएम या टीवी के मुकाबले अखबार आज भी ज्यादा असरदार है। समय के साथ बदलना चाहिए। अखबार को भी। पर बदलाव माने क्या? कौन से संपादक इस बदलाव के प्रणेता हैं? इस बदलाव के ड्राइवर संपादक नहीं मैनेजर हैं। खबर लिखने के शिल्प, उसे पेश करने की स्टाइल और छपाई की टेक्नॉलजी बदलना स्वाभाविक है। पर क्या हमारे मसले भी बदले जाने चाहिए? क्या न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और लंदन टाइम्स ने खबरें छापना बंद कर दिया है? सारी आफत हम पर ही आकर क्यों पड़ी है? दर्शक या पाठक तक जाकर कौन पूछता है कि तुम्हें क्या चाहिए? किसी अखबार के पास रीडरशिप रिसर्च की व्यवस्था नहीं है।
रात के दो-तीन बजे जब पत्रकार अपने घर पहंचते हैं अखबार बांटने वाले अपने घर से निकलते हैं। वे होते हैं हमारे सबसे पहले पाठक। गांवों और कस्बों में अक्सर वे संवाददाता भी होते हैं। अखबार की अपनी व्यवस्था है। उससे जुड़े लोग इसे अपने घर और परिवार जैसा मानते हैं। कुछ परिवारों की दो-दो, तीन-तीन पीढियां किसी खास अखबार के साथ जुड़ी रहीं। यह मामूली कारोबार नहीं है। ये परिवार अखबार विक्रताओं के हैं, संवाददाताओं के और पाठकों के भी। अखबारों के परंपरागत मैनेजर भी अलग होते थे। अब मैनेजर भी बाहर से आ रहे हैं। कोई बूट पॉलिश बेचता था, तो कोई कुरकुरे। इस बाहरी मनोदशा ने कहा, सब बदलो। पाठक भी बदलो। कारोबारी लोग पाठकों की भी नयी पीढ़ी तैयार करना चाहते हैं। उन्हें बूढ़े पाठक नहीं चाहिए, भले ही वे लॉयल हों। वे पाठक को रिटायर कर देंगे। हाल में नवभारत टाइम्स में सीरीज चल रही थी, डोंट प्रीच डैडी। इस अखबार का नया नाम एनबीटी-यंग इंडिया-यंग पेपर है। हिंदी के नए मार्केटिंग मैनेजर भारतीय युवा वर्ग को बेहतर जानते हों, पर माता-पिता से वह उस तरह नहीं कटा है, जैसी आपकी मनोकामना है। नए की चमक-दमक जरूर है। कुछ नौजवान ज्यादा लम्बे डग भरना चाहते हैं। पर वही समूचा युवा वर्ग नहीं है।
हिंदी इलाके में लगातार साक्षरता बढ़ रही है। नए पाठक बढ़ रहे हैं। हमें नए लेखकों की जरूरत है, जो विश्वकोष लिखें। अपने इलाके का अध्ययन करें। आर्थिक-सामाजिक वास्तविकताओं को समझें। साहित्य-संस्कृति से जुड़ें। बिजनेस, सांइस और वैश्विक घटनाचक्र को समझने और समझा सकने में समर्थ पत्रकारों का हिंदी में टोटा है। संपादकीय पेज के लिए मैनेजरों को सेलेब्रिटी चाहिए। जहां-जहां बौद्धिक उत्कृष्टता की जरूरत है, वहां कचरा भरने का प्रयास हो रहा है। इन लटके-झटकों से कुछ देर के लिए ध्यान बंट जाएगा, पर आने वाले वक्त का हिंदी पाठक का कचरा-कल्चर को मंजूर नहीं करेगा। उसे वास्तव में एक अच्छे और पूर्ण अखबार की जरूरत है। बिजनेस नहीं कंटेंट की सफलता ही अखबार की सफलता का पैमाना है। ऐसा अखबार शायद कोई विदेशी उद्यमी लेकर आएगा।
कमाई में आगे क्वालिटी में पीछे
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
प्रमोद जोशी
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल का पिछले साल अगस्त में जब नया सेशन शुरू हो रहा था, तब मुझे वहां जाने और नए पुराने छात्रों से संवाद करने का मौका मिला। मैने छात्रों से पूछा- आप पत्रकार क्यों बनना चाहते हैं? ज्यादातर छात्रों का जवाब था- सामाजिक जरूरत के लिए। अपने ज्ञान का इस्तेमाल सबकी भलाई के लिए। सामाजिक बदलाव के लिए। पाठकों को सही जानकारी देने के लिए वगैरह।
एक छात्र ने खड़े होकर कहा, “ मैं पैसे, पहचान और ऊंची पहुंच के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं”। पूरे हाउस में ठहाका लगा। पता नहीं उस छात्र ने वह बात गंभीरता में कही या मजाक में, पर यह महत्वपूर्ण बात थी। सभी को न सही कुछ पत्रकारों को अपने जीवन में सेलिब्रिटी बनने का मौका मिलता है। पैसे पद औऱ पहचान के मामले में वे टाप पर आ जाते हैं। पर किस कीमत पर। और यह कीमत कौन देता है ?
पत्रकार महात्मा गांधी थे, तिलक भी। महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राजेंद्र माथुर तक तमाम नाम हैं। मुझे लगता है उस छात्र का आशय यह नहीं था। वह ताकतवर बनना चाहता है, जिससे लोग डरें। ऐसे पत्रकार हुए हैं, जिन्हें सत्ताधारियों, सरमाएदारों, और माफिया तक ने सिर पर बिठाया। एक पत्रकार को अपने जीवन में शासन, कारोबार और अंडरवर्ल्ड की अंधेरी गुफाओं से गुज़रने का मौका मिलता है। उसे ईमानदार और बेईमान बनने के मौके मिलते हैं। बेशक पत्रकारिता उत्तम कर्म है, नोबल प्रोफेशन। वह हमें धवल छवि के साथ सेलेब्रेटी बनने का मौका देती है। और अनैतिकता के कीचड़ में उतरने का भी। फिक्सर, दलाल, बिचौलिए और ठेकेदार भी पत्रकार बनना चाहते हैं। और बनते हैं।
पत्रकारिता से मेरा आशय प्रिंट, टीवी-रेडियो या इंटरनेट तक सीमित माध्यमों से नहीं है। ये टूल हैं, जो आने वाले समय में बदल जाएंगे। इन सब माध्यमों के मर्म में उस कर्म की जरुरत है, जो हमें महत्वपूर्ण बनाता है। उसका रिश्ता लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकास से जुड़ा है। पूंजी के मुक्त प्रवाह ने भी कुछ संदेह खड़े किए हैं। इन दिनों का चर्चित पेड न्यूज़ प्रकरण मूल्यों और कारोबार के अंतर्विरोधों की कहानी है। सवाल अखबारों के बचने या तबाह होने का नहीं है। सवाल है सूचना की ऑनरशिप किसकी है? क्या बिजनेस जिस रेट पर चाहेगा उसे बेचेगा? सूचना महत्वपूर्ण है। वह हमारा वोटिंग व्यवहार तय करती है। हमें यह मानने को आश्वस्त करती है कि सद्दाम हुसैन के पास एटम बम था। वह बताती है कि सानिया मिर्जा के कपड़ों का डिजाइन किसने बनाया।
शायद मीडिया संसार में इस वक्त सबसे तेज ग्रोथ हिन्दी मीडिया की है। किसी के पास ठहर कर सोचने का मौका ही नहीं है। इस दौरान भाषा, कथ्य-शिल्प, स्टाइल, डिजाइन, शोध, तथ्य, मूल्यों संवेदनाओं के तमाम मसले हर रोज़ खड़े हो रहे हैं। मीडिया कारोबार भी है। उसके विस्तार के लिए पूंजी चाहिए। पूंजी लगाने वाले को मुनाफा चाहिए। पैसा फूंककर सामाजिक जिम्मेदारियां निभाने का दौर भी गया। ज्यादातर मीडिया हाउस शेयर बाजार में उतर रहे हैं। शेयर होल्डर को अपनी पूंजी पर रिटर्न चाहिए।
हिंदी का पहला साप्ताहिक 1826 में निकला। उसके बाद 1947 तक छिटपुट अखबार निकलते रहे। पर वह पत्रकारिता आंदोलनकारी, सुधारवादी और एक हद तक धार्मिक थी। मुनाफा कमाने वाली अखबारनबीसी वह नहीं थी। 1947 के बाद भी हिन्दी के अखबार या तो किसी बड़े उद्योग की छत्रछाया में शौकिया निकाले गए या फिर एकदम छोटे शहरो में लोकल उद्यमियों ने कुछ बिजनेस और कुछ सामाजिक संपर्क के लिए निकाले। जून 1975 से फरवरी 1977 के बीच यानी इमर्जेंसी के दौरान हिन्दी प्रेस की नई ताकत के रुप में जरुरत महसूस हुई। आज बाज़ार में मौजूद ज्यादातर हिन्दी अखबारों ने 1977 के बाद से ही विस्तार शुरु किया है। उन्हें प्रादेशिक राजनेताओं ने संरक्षण दिया और बदले में अखबारों ने राजनेता को प्रतिष्ठा दी। इस बार्टर ने पत्रकारों की एक पीढ़ी तैयार कर दी।
कारोबार पहले है या गुणवत्ता? मेरे विचार से दोनों में रिश्ता है। बेहतर कारोबार होने पर अखबार को अपनी गुणवत्ता सुधारने का मौका मिलता है। गुणवत्ता और बेहतर कारोबार का रास्ता खोलती है। अंग्रेज़ी के मुकाबले हिन्दी अखबार कारोबार में पीछे हैं। पर यह कमजोरी अगले कुछ साल की है। उसके बाद कहानी बदलनी चाहिए। दिल्ली को छोड़ दें, तो राजनैतिक ताकत में अंग्रेजी के अखबार कहीं नहीं टिकते। लखनऊ, पटना, रांची, भोपाल, जयपुर, रायपुर, देहरादून और चंडीगढ़ समेत तमाम हिन्दी शहरों में सत्ता और संस्कृति का एजेंडा हिन्दी अखबार तय करते है। उनके संस्करणों की संख्या और लोकल कवरेज में कोई तुलना ही नहीं है। पर कहानी यहीं तक है।
हिन्दी संपादकों को अपनी तारीफ करनी होती है। तो वे कहते है कि हमारा मुकाबला अंग्रेज़ी अखबारों से है। पर हिन्दी के अखबार अपनी गुणवत्ता सुधारने के प्रयास में नज़र नहीं आते। ग्रैफिक डिजाइन पर अत्यधिक जोर देते हुए उन्होंने खबरों और उनके लेखन से हाथ खींच लिया है। वे नहीं देख पा रहे हैं कि सादगी और सामान्य खबरों के सहारे ‘जागरण’ हिन्दी का नम्बर एक अखबार है। साइंस-टेकनॉलजी, बिजनेस और विदेशी मामलों पर हिन्दी के ज्यादातर अखबार शुद्ध चोरी और नकल के सहारे हैं। एक धारणा है कि ‘गुगल’ में सब कुछ मिलता है। हिन्दी अखबार आज इस स्थिति में हैं कि वे मार्केट में उपलब्ध बेहतर लेखकों या रिसोर्सेज का हायर कर सकें। बेहतर कारोबार का फायदा पाठक को नहीं मिलता।
भारतीय अखबारों में बदलाव की शुरुआत हालांकि आनन्द बाजार ग्रुप ने की थी, पर हिन्दी अखबारों के कॉरपोरेट या प्राइवेट नियंता ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के समीर जैन से प्रभावित हैं। टाइम्स हाउस ने पिछले तीन दशक में कई तरह के प्रयोग किए, जिनमें मिश्रित सफलता मिली है। समीर जैन ने अखबार के परंपरागत साँचे को नहीं तोड़ा। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने डिजाइन, कलर और बाजारु लटकों का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपने प्रतिद्वंदियों को उसमें उलझा दिया। दूसरों के पास मौलिकता थी नहीं, वे रंग-रोगन के टोटकों में ही लगे रह गए। दिल्ली में क्रेस्ट की शुरुआत करके लंबी खबरें देने का सिलसिला भी टाइम्स ने शुरु किया है। हिन्दी अखबार का कोई मानक टाइम्स ने नहीं बनाया। हिन्दी इलाकों में उसकी उपस्थिति है ही नहीं।
मेरा मानना है कि हिन्दी प्रिंट मीडिया में इस वक्त 15 हजार से ज्यादा फुल टाइम और लगभग 60 हजार पार्ट टाइम पत्रकार हैं। जरुरत तेजी से बढ़ रही है। ट्रेनिंग की वाजिब व्यवस्था नहीं है। किसी भी अखबार के पन्नों को सावधानी से पलटें तो उसमें कई तरह की खामियां नजर आएंगी। चूंकि विस्तार तेज़ है और तैयार पत्रकार कम हैं इसलिए यह संभव है, पर गुणात्मक सुधार के लिए कदम उठाने की जरुरत है। हिन्दी अखबार के नए मैनेजर इस भाषा के लिए एक हद तक परदेसी होते हैं। खबर और विज्ञापन का फर्क अब मिट गया है। दोनों में बुनियादी फर्क है। अखबार सूचना से ज्यादा अपनी साख बेचता है। पाठक पहले उसपर भरोसा करना चाहेगा, फिर उसके बताए प्रोडक्ट खरीदने के बारे में सोचेगा। ‘क्रेडिबिलिटी’ और ‘क्वालिटी’ दो बेहद संवेदनशील मसले हैं। उन्हें हासिल कीजिए। पाधक आपको हाथों- हाथ लेगा। सेलेब्रिटी भी बना देगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
यहां खबरों की गलाई, ढलाई और मरम्मत की जाती है
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
प्रमोद जोशी
पत्रकारिता विद्यालय का सेशन शुरू होने के बाद पहली बार जुटी कक्षा में अध्यापक सवाल उठाता है, ‘व्हाट इज़ न्यूज ’? खबर क्या है? खबर की परिभाषा पर चर्चा करने के पहले अध्यापक छात्रों का ध्यान एकाग्र करते हैं।
एक-दूसरे से मुलाकात होने पर हम अक्सर पूछते हैं, और क्या खबर ? कोई नयी-ताजी ?
द ‘न्यू’ इज़ द न्यूज। ‘न्यू’ का बहुवचन है ‘न्यूज ’। समझे।
नया तो बहुत कुछ है। सैकड़ों बातें हर रोज़ हरेक के साथ गुजरती हैं। सब कुछ तो खबर नहीं है।
अध्यापक बताते हैं, ‘कुत्ता आदमी को काटे तो खबर नहीं है, पर आदमी कुत्ते को काटे तो खबर है। जो सच है, बेहद रोचक या त्रासद है, जो काफी बड़े तबके को अपील करे, वह खबर है।’ धीरे-धीरे खबर की परिभाषा खड़ी होती जाती है। छात्र के कान उंडेले जाते हैं कुछ शब्द-एक्यूरेसी, ऑब्जेक्टिविटी, फेयरनेस, जर्नलिस्टिक्स एथिक्स वगैरह-वगैरह। जब क्लासरूम से सीखकर वह बाहर आता है, तब उसका परिचय जीवन के यथार्थ से होता है।
‘कोई जुगाड़ है यार ‘आजतक’ में इंटर्नशिप का? एनडीटीवी में कोई पूछता नहीं, टोटल टीवी में जान- पहचान है? ज़ी, पी-10, डी-9, सी-4, नया सवेरा, हिंद स्वराज वगैरह में धक्के खाता वह कहीं घुसता है। फिर नजर आता है पत्रकारिता का व्यवहारिक रूप। हर न्यूज रूम का संदेश है-खेलो प्यारे खेलो।’ वह कुत्तों को काटने वाले आदमी की तलाश में निकल पड़ता है। कुत्तों को काटने वाले आदमियों की भी फौज तैयार है, पर उसमें नयापन नहीं रहा। कुछ और करो। वर्ना कहानियां गढ़ो। दूसरी ओर संपादक जी उदात्त विचारों वाले सम्पादकीय लिखते है – ‘इस पिछड़े क्षेत्र में हम विकास का संदेश लेकर आए हैं।’ चैनल के प्रोमों आते हैं – ‘ खबर धार-दार, ज़िदगी के आर-पार। सबसे पहले हम निकल जाए चाहे दम्म। झाँय-झाँय झम्म। निडर, निर्भय- निष्पक्ष...........’ इसके आगे हमें नहीं आता।
हाल में एडिटर्स गिल्ड के एक पदाधिकारी आन्नद बाला ने गिल्ड के अध्यक्ष राजदीप सरदेसाई को एक ओपेन लेटर लिखा – ‘क्या मुख्यधार के मीडिया ने सामूहिक रूप से उस प्राकृतिक विपदा की उपेक्षा करने का फैसला किया था, जिसमें पश्चिम बंगाल के 120 लोगों की जान चली गई थी ?.....बीबीसी तक ने हमारे राष्ट्रीय दैनिकों और चैनलों से ज्यादा कवरेज दी।.....मैं नहीं कहता कि आईपीएल के कंकालों और एंटरटेनमेंट की कवरेज न की जाए, पर इतना जानता चाहता हूं कि इतनी बड़ी प्राकृतिक आपदा को उस कवरेज के मुकाबले को टुच्ची सी भी जगह क्यों नहीं मिल पाई ?’ यह पत्र एक वेबसाइट में छापा और इसके जबाव में राजदीप ने लिखा – ‘आपने एक राष्ट्रीय महत्व का उठाया है। निश्चित रूप से हम संपादक के अंदर चेतना जागाने का कार्य करेंगे।’ शायद वे चेतना जगाएं, पर क्या हमें मालूम है कि एडिटर्स गिल्ड में कितने सदस्य आज सक्रिय संपादक है ? और क्या वे इन बातों को सुनते हैं ? क्या वे कवरेज के इस अंतर को नहीं जानते हैं? क्या वे वास्तव मे अपने चैनल या अखबार की कवरेज तय करते हैं ? मुझे इतना समझ में आता है कि मीडिया हाउसों में परिभाषाएं बदल रहीं हैं। खबर की भी और संपादक की भी। संपादक ट्रैक्टिकल फैसले भी करते होंगे, पर कहानी बदल रही है। ट्रैक्टिकल और स्ट्रैटजिक क्या है, इस पर कभी और चर्चा करेंगे, अभी केवल खबर के प्रति बदलते दृष्टिकोण पर ध्यान दें।
तीन दशक पहले अखबार तक अखबार अपमार्केट और डाउनमार्केट खबरों से ज्यादा फर्क नहीं करता था। गरीब आदमी की हत्या की खबरों का फर्क तब भी था, पर पत्रकार ने उसे बहुत परिभाषित नहीं किया था। आज का पत्रकार सायास फर्क करता है। दिल्ली में आपातकाल में जब चोपड़ा बच्चों की अपहरण के बाद हत्या हुई तो उसकी कवरेज पर चर्चा भी हुई तो उसकी कवरेज पर चर्चा भी हुई। उस वक्त तक पत्रकार पनीला ही सही, पर नैतिक दायित्व महसूस करता था। आज वह एसईसी-ए(सोशियो-इकोनमिक इंडीकेटर-ए) बी और सी का फर्क जानता है। वह जानता है कि हमारा विज्ञापन विभाग एसईसी-ए की रीडरशिप चाहता है। यह काफी हद तक सच है। बात सिर्फ नंबर की होती तो अंग्रेजी अखबारों का जुलूस कब का निकल चुका होता। दिल्ली को छोड़ किसी भी शहर में अंग्रेजी अखबार बारह पेज से ज्यादा के नहीं होते, क्योंकि उसका नंबर ही नहीं है। हमारे अंग्रेजीदां प्रभुओं के साथ मीडिया मैनेजरों की ऐसी सैटिंग है कि अंग्रेजी का बिजनेस हिंदी का कई गुना है।
यही मीडिया प्लानर हिंदी अखबार का कंटेंट और भाषा तय कर रहा है। कस्बों के अपवर्डली मोबाइल यूथ के नाम पर पाठकों को देश की वास्तविक समस्याओं से अलग करने की कोशिश हो रही है। ऐसा करते हुए खबर की परिभाषा ही उल्टी कर दी गई है। न्यूज एंड एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट एज न्यूज के जोड़ से एक शब्द बना इनफोटेनमेंट। प्रेमचंद की कहानी है “शतरंज के खिलाड़ी”। इसमें लखनऊ के दो नवाब शतरंज में मशरूफ रहते हैं। इनका मनोरंजन चलता रहा और फिरंगरियों ने अवध पर कब्ज कर लिया। मनोरंजन आनंद और आह्लाद निर्थक शब्द नहीं और न ही गंभीर, सीरियस या संजीदा होना वाजिब है। जीवन रसहीन नहीं है। पर यह कोई बात नहीं। बात इतनी है कि जीवन में सारी बातों का संतुलन चाहिए। पत्रकारिता के ओल्ड स्कूल और न्यू स्कूल के जुमले उन्होंने गढ़े हैं, जो या तो नएपन से घबराते हैं या पुराने को सहन नहीं कर पाते। हजारों साल में मानवीय मूल्य नहीं बदलते, शिल्प और मुहावरों के फर्क कोई बुनियादी सत्य नहीं है। अक्सर पुराना फैशन नया बनकर लौटता है।
इधर एक चलन है , घटियापन को स्थापित करने का । इसकी बुनियाद में पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों को आउटडेटेड साबित करने की उतावली है। कारोबार को बेहतर बनाने की जल्दबाजी में प्रोफेशन के बुनियादी मूल्यों को लोग भूल रहे हैं। पेड न्यूज और एडवर्टोरियल जैसे विचार किसी भी काल में पत्रकारिता को कबूल नहीं होंगे। और यदि किसी अखबार में संपादक की चलती हैं, तो पेड न्यूज उस अखबार में चल ही नहीं सकती। पर वह अनेक अखबारों में प्रकट हुई। इसका साफ साफ अर्थ है कि उन अखबारों में संपादक नही थे भले ही प्रिंट लाइन में संपादक का कोई नाम जाता हो। मूल्यविहीनता पहले भी थी, पर उसे प्रैक्टिस करने वाले अगली कतार में नही थे। अब वे बेहतर प्लेस्ड हैं।
हाल के दिनों में आईपीएल की खबरें छाने के पहले शोएब-सानिया खबरों पर छाए थे। अचानक वे खबरों से गायब हो गए। आईपीएल में खबर के तमाम तत्व हैं। उसमें मनोरंजन हैं, खेल और राजनीति भी। गवर्नेंस के गम्भीर मसले भी इसमें शामिल हैं। इसमें सार्वकालिक महत्व के तमाम सवाल शामिल हैं। इनवेस्टिगेशन के अनेक सूत्र इसमें छिपे है। ये सारे सूत्र दो साल पहले भी थे। तब किसी ने पड़ताल नहीं की। आईपीएल बड़ा बिजनेस भी हैं। उसके साथ देश के तमाम कारोबारी और राजनेता जुड़े हैं। इनकी असलियत सामने लाने के लिए निर्भीक और निष्पक्ष मीडिया की जरूरत है। वह मीडिया फिलहाल अनुपस्थित है। जो बातें सामने आ रही हैं, वे कोई किसी को लीक कर रहा है। अच्छी खबर तभी बनती है जब पत्रकार ‘फेयर’ और ‘ऑब्जेक्टिव’ हो । यह पत्रकारिता का मर्म है। यह विचार किसी न्यू स्कूल का नहीं हैं। और न यह कभी पुराना होगा। इसे प्रैक्टिस करने वाले कम हुये हैं। अब जब झूठी और शुद्ध कपोल-कल्पित बातें खबर बताकर पेश की जा रहीं हैं, यह नहीं मान लेना चाहिए कि खबर की परिभाषा बदल गई। यह सब ज्यादा देर तक नही चलेगा। जिस मायाजाल का पर्दाफाश करने के लिए पत्रकारिता ने जन्म लिया था, वह पहले से ज्यादा जटिल हुआ है। इसे आगे बढ़ाने के लिए न तो पत्रकारों की कमी है और न जनता के समर्थन की। आप देखते रहिए इसी के बीच से उभरेगी नई पत्रकारिता ।
साभार http://samachar4media.com/
Monday, May 10, 2010
टेक्नॉलजी के तूफान में पत्रकारिता
इंडियन रीडरशिप सर्वे 2010 की पहली तिमाही की रपट का संकेत है कि टीवी, रेडियो, इंटरनेट, अखबार और पत्रिका पर एक भारतीय औसतन 125 मिनट का समय खर्च करता है, जबकि 2007 में यह 117 था। मेरा अनुमान है कि यह समय प्रतिमाह का है। एक महीने में 125 मिनट का समय खास नहीं है। इकोनॉमिस्ट ने नील्सन के सर्वे के आधार पर अनुमान लगाया है कि औसत अमेरिकन एक महीने में 210 मिनट से ज्यादा समय ऑनलाइन वीडियो, ब्रॉडकास्ट टीवी और इससे जुड़ी गतिविधियों को देता है। इसके अलावा 154 मिनट वह इंटरनेट को देता है। उसका अनुमान है कि अमेरिकी किशोर करीब साढ़े सात घंटे से दस घंटे इस मीडिया को देता है। अमेरिकी आँकड़ों से तुलना करें तो अभी हमारे यहाँ काफी सम्भावनाएं हैं। यह सम्भावना टेक्नॉलजी और मीडिया-कारोबार के लिए जितनी महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण उन लोगों के लिए है, जो इसके सॉफ्टवेयर यानी कंटेंट के बारे में सोचते हैं।
जिस वक्त अखबारों का जन्म हो रहा था, उन्हीं दिनों वैश्विक व्यवस्था सामंतवाद से हटकर पूँजीवाद की ओर बढ़ रही थी। व्यापार के कारण पाबंदियाँ खत्म हो रहीं थीं। व्यापारियों और सामंतों के बीच हितों का टकराव था। इस टकराव ने तमाम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को जन्म दिया। इसके बीच औद्योगिक क्रांति हुई। युरोपीय कारोबारी हितों ने उपनिवेशों को जन्म दिया। उपनिवेशों के मध्यवर्ग ने देर-सबेर राष्ट्रीय आंदोलन शुरू किए। अपनी व्यवस्थाएं बनाईं। इसमें अखबार की भूमिका थी। भारत के औपनिवेशिक दौर में दो या तीन तरह के अखबार थे। एक अंग्रेजों के, दूसरे राष्ट्रवादी और तीसरे अंग्रेज समर्थक देशी अखबार। अनेक परतें और होंगी, पर मैं इन्हें मोटे तौर पर अभी तीन हिस्सों में देख रहा हूँ। तीनों का हमारे सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव में कोई न कोई योगदान है। इस बदलाव का वाहक इन अखबारों के कंटेंट के कारण था। काफी छोटे स्तर पर ही सही, अखबार सहमतियों और मतभेदों को उजागर करते थे। दूसरे देशों और सुदूर इलाकों से वे जानकारियाँ लाते थे, जो पाठकों के लिए ज़रूरी थी। उस समय के लिहाज से आधुनिक तकनीक अखबार लेकर आए। टेकनॉलजी और बिजनेस ने उस वैचारिक क्रांति को बढ़ाया।
जिस वक्त अखबारों का जन्म हो रहा था, उन्हीं दिनों वैश्विक व्यवस्था सामंतवाद से हटकर पूँजीवाद की ओर बढ़ रही थी। व्यापार के कारण पाबंदियाँ खत्म हो रहीं थीं। व्यापारियों और सामंतों के बीच हितों का टकराव था। इस टकराव ने तमाम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को जन्म दिया। इसके बीच औद्योगिक क्रांति हुई। युरोपीय कारोबारी हितों ने उपनिवेशों को जन्म दिया। उपनिवेशों के मध्यवर्ग ने देर-सबेर राष्ट्रीय आंदोलन शुरू किए। अपनी व्यवस्थाएं बनाईं। इसमें अखबार की भूमिका थी। भारत के औपनिवेशिक दौर में दो या तीन तरह के अखबार थे। एक अंग्रेजों के, दूसरे राष्ट्रवादी और तीसरे अंग्रेज समर्थक देशी अखबार। अनेक परतें और होंगी, पर मैं इन्हें मोटे तौर पर अभी तीन हिस्सों में देख रहा हूँ। तीनों का हमारे सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव में कोई न कोई योगदान है। इस बदलाव का वाहक इन अखबारों के कंटेंट के कारण था। काफी छोटे स्तर पर ही सही, अखबार सहमतियों और मतभेदों को उजागर करते थे। दूसरे देशों और सुदूर इलाकों से वे जानकारियाँ लाते थे, जो पाठकों के लिए ज़रूरी थी। उस समय के लिहाज से आधुनिक तकनीक अखबार लेकर आए। टेकनॉलजी और बिजनेस ने उस वैचारिक क्रांति को बढ़ाया।
Sunday, May 9, 2010
अखबारी दुनिया मे जाकर मेरे जैसे साधारण व्यक्ति को धक्का लगता है। मैं 1971 में इस दुनिया से जुड़ा था। वह रोमांटिक दौर था। आज के मुकाबले जीवन में आदर्श ज्यादा थे। काफी ढोंग भी था। मेरी उम्र भी आदर्शों वाली थी। ऐसे लोग भी आस-पास नज़र आते थे, जो जैसा कहते थे, उसके आसपास होते थे। उस दौर में भी ऐसे लोग थे, जो व्यवस्था का दोहन करते थे, और सम्मान भी पाते थे। यशपाल के झूठा-सच और नागार्जुन के उपन्यासों में ऐसे पात्र मिले जो आज़ादी के आंदोलन के दौरान ढोंगी जीवन को जीते थे। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी पेंशन मिली, पद्म पुरस्कार भी। ज्यादातर पुरस्कार इसी तरह दिए जाते हैं। ढोंग की एक लम्बी सीढ़ी है।
इन दिनों संचार मंत्री ए राजा को लेकर जो कहानियाँ सामने आ रहीं हैं, वे सच हैं या नहीं, कहना मुश्किल है, पर इनके बारे में सुनकर आश्चर्य नहीं होता। मैं अपने आसपास ऐसे लोगों को देख चुका हूँ, जो बेशर्मी से सिस्टम का फायदा उठाते हैं। मीडियाकर्मियों की तादाद बड़ी है। उनमें से ज़्यादातर कुछ मूल्यों से जुड़े होते हैं। या कम से कम पहचानते हैं. पर व्यक्ति की परख तब होती है, जब उसे बेईमान होने का मौका मिले और वह बेईमान बनने से इनकार कर दे। मैने बहुत गौर से ऐसे हालात और व्यक्तियों को दोखा है। अक्सर उन लोगों का ईमान डोलता है, जिन्हें बहुत कुछ मिल चुका है। ग़रीब आजमी पर चोरी का इल्ज़ाम कोई भी लगा सकता है, पर खाते-पीते लोग चोरी करते हैं, तो परेशानी होती है। पर क्या करें।
लगता है हम आमतौर पर ईमानदारी को घटिया मूल्य मानते हैं। या यह मानते हैं कि एडवेंचर से घबराने वाले दब्बू लोगों की वैल्यू ईमानदारी है। हमारे भीतर आत्मबल होता और कुछ खोने की ताकत होती, तो मीडिया की वह दशा नहीं होती जो आज है।
इन दिनों संचार मंत्री ए राजा को लेकर जो कहानियाँ सामने आ रहीं हैं, वे सच हैं या नहीं, कहना मुश्किल है, पर इनके बारे में सुनकर आश्चर्य नहीं होता। मैं अपने आसपास ऐसे लोगों को देख चुका हूँ, जो बेशर्मी से सिस्टम का फायदा उठाते हैं। मीडियाकर्मियों की तादाद बड़ी है। उनमें से ज़्यादातर कुछ मूल्यों से जुड़े होते हैं। या कम से कम पहचानते हैं. पर व्यक्ति की परख तब होती है, जब उसे बेईमान होने का मौका मिले और वह बेईमान बनने से इनकार कर दे। मैने बहुत गौर से ऐसे हालात और व्यक्तियों को दोखा है। अक्सर उन लोगों का ईमान डोलता है, जिन्हें बहुत कुछ मिल चुका है। ग़रीब आजमी पर चोरी का इल्ज़ाम कोई भी लगा सकता है, पर खाते-पीते लोग चोरी करते हैं, तो परेशानी होती है। पर क्या करें।
लगता है हम आमतौर पर ईमानदारी को घटिया मूल्य मानते हैं। या यह मानते हैं कि एडवेंचर से घबराने वाले दब्बू लोगों की वैल्यू ईमानदारी है। हमारे भीतर आत्मबल होता और कुछ खोने की ताकत होती, तो मीडिया की वह दशा नहीं होती जो आज है।
Subscribe to:
Posts (Atom)