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Saturday, July 13, 2013

नरेन्द्र मोदी की बात पर हंगामा है क्यों...

 शनिवार, 13 जुलाई, 2013 को 13:55 IST तक के समाचार
नरेंद्र मोदी
मोदी के "कुत्ते के पिल्ले के मरने पर भी दुख होता है" बयान के बाद हंगामा मच गया है
नरेन्द्र मोदी भारत के ध्रुवीकारी नेताओं में सबसे आगे हैं, इसे मान लिया जाना चाहिए. उनका समर्थन और विरोध लगभग समान आक्रामक अंदाज़ में होता है. इस वजह से उन्हें ख़बरों में बने रहने के लिए अब कुछ नहीं करना पड़ता.
ख़बरों को उनकी तलाश रहती है. इसमें आक्रामक समर्थकों से ज़्यादा उनके आक्रामक विरोधियों की भूमिका होती है.
दूसरी बात यह कि उनसे जुड़ी हर बात घूम फिर कर सन 2002 पर जाती है. रॉयटर्स के रॉस कॉल्विन और श्रुति गोत्तीपति का पहला सवाल इसी से जुड़ा था. वे जानना चाहते थे कि नरेन्द्र मोदी को क्या घटनाक्रम पर कोई पछतावा है.

पिल्ले का रूपक

मोदी का वही जवाब था जो अब तक देते रहे हैं. उनका कहना था, "फ्रस्टेशन तब आएगा जब मैने कोई ग़लती की होगी. मैंने कुछ ग़लत किया ही नहीं."

विपक्ष का ‘गेम चेंजर’ भी हो सकता है खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

खाद्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा विधेयक और खाद्य सुरक्षा अध्यादेश एक सिक्के के तीन पहलू हैं। खाद्य सुरक्षा पर सिद्धांततः राष्ट्रीय सवार्नुमति है। किसी पार्टी में हिम्मत नहीं कि वह खुद को जन-विरोधी साबित करे।
भले ही अर्थशास्त्रीय दृष्टि कहती हो कि अंततः इसकी कीमत गरीब जनता को चुकानी होगी। पर खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर गहरी असहमतियाँ हैं। वामपंथी दल चाहते हैं कि खाद्य सुरक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए। सबके लिए समान। 
भाजपा बहस चाहती है। अध्यादेश के रास्ते इसे लागू करने का समर्थन किसी ने नहीं किया है। पर क्या विपक्ष इस अध्यादेश को रोकेगा? और रोका तो क्या कांग्रेस को इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा? और क्या विपक्ष इस मामले में कांग्रेस का पर्दाफाश कर पाएगा?
 दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक-कल्याण योजना क्या बगैर संसदीय विमर्श के लागू हो जाएगी? कांग्रेस क्या अर्दब में है या विपक्ष एक मास्टर स्ट्रोक में मारा गया?

Friday, July 5, 2013

क्या भाजपा चेहरा बदल रही है?

 शुक्रवार, 5 जुलाई, 2013 को 06:49 IST तक के समाचार
भाजपा की अंदरूनी राजनीति
मीडिया रिपोर्टों पर भरोसा करें तो इशरत जहाँ मामले में क्लिक करेंचार्जशीटदाखिल होने के बाद सीबीआई और आईबी के भीतर व्यक्तिगत स्तर पर गंभीर चर्चा है.
ये न्याय की लड़ाई है या राजनीतिक रस्साकसी, जिसमें दोनों संगठनों का क्लिक करेंइस्तेमाल हो रहा है?
जावेद शेख उर्फ प्रणेश पिल्लै के वकील मुकुल सिन्हा हैरान हैं कि आईबी के स्पेशल डायरेक्टर राजेन्द्र कुमार का नाम सीबीआई की पहली चार्जशीट में क्यों नहीं है.
उन्हें लगता है कि राजेन्द्र कुमार का नाम न आने के पीछे क्लिक करेंराजनीतिक दबाव है.
इसका मतलब है कि जिस रोज सरकार सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई को आजाद पंछी बनाने का हलफनामा दे रही थी उसी रोज सीबीआई ऐसा आरोप-पत्र पेश कर रही थी, जिसके कारण उसपर सरकारी दबाव में काम करने का आरोप लगता है.
राजेन्द्र कुमार का नाम होता तो भाजपा को आश्चर्य होता. नहीं है तो मुकुल सिन्हा को आश्चर्य है.
अभी क्लिक करेंतफ्तीश ख़त्म नहीं हुई है. सीबीआई सप्लीमेंट्री यानि पूरक चार्जशीट भी दाखिल करेगी लेकिन इस मामले में अभी कई विस्मय बाकी हैं.

Sunday, June 16, 2013

सबका पेट भरने से रोकता कौन है?

खाद्य सुरक्षा विधेयक सरकार के गले की हड्डी बन गया है। बजट सत्र के दूसरे दौर में जब अश्विनी कुमार और पवन बंसल को हटाने का शोर हो रहा था, खाद्य सुरक्षा विधेयक पेश होने की खबरें सुनाई पड़ीं। ऐसा नहीं हो पाया। इसके बाद सुनाई पड़ा कि सरकार अध्यादेश लाएगी, पर वैसा भी सम्भव नजर नहीं आता। सच यह है कि इतने लम्बे अरसे से इस कानून को बनाने की चर्चा के बावज़ूद इसके प्रावधानों को लेकर आम सहमति नहीं है। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की असहमतियों की बात अलग है, सरकार के भीतर असहमति है। सरकार ने विधेयक का जो रूप तैयार किया है उससे खाद्य मंत्री केवी थॉमस तक सहमत नहीं हैं। कृषि मंत्री शरद पवार इसके पक्ष में नहीं हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इसे चाहती हैं, पर सरकार अनमनी है।

Friday, June 14, 2013

'जिन्हें इमरजेंसी याद है वे वीसी शुक्ल को नहीं भूल सकते'

'जिन्हें इमरजेंसी याद है वे वीसी शुक्ल को नहीं भूल सकते'

 गुरुवार, 13 जून, 2013 को 18:58 IST तक के समाचार
विद्या चरण शुक्ल
छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में शुक्ल की मौत हो गई थी
जिस रोज़ माओवादी हमले में विद्या चरण शुक्ल के क्लिक करेंघायल होने की ख़बर मिली, काफी लोगों की पहली प्रतिक्रिया थी, कौन से वीसी शुक्ल इमरजेंसी वाले. वीसी शुक्ल पर इमरजेंसी का जो दाग लगा वह कभी मिट नहीं सका.
विद्याचरण शुक्ल मध्यप्रदेश के ताकतवर राजनेताओं में गिने जाते थे. उनके परिवार की ताकत और सम्मान का लाभ उन्हें मिला, पर उन्हें जिस बात के लिए याद रखा जाएगा वो ये कि वो ज्यादातर सत्ता के साथ रहे. ख़ासतौर से जीतने वाले के साथ.
इमरजेंसी के बाद शाह आयोग की सुनवाई के दौरान चार नाम सबसे ज्यादा ख़बरों में थे. इंदिरा गांधी, संजय गांधी, वीसी शुक्ल और बंसी लाल. इमरजेंसी के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा और सज़ा भी मिली, पर इमरजेंसी ने ही उन्हें बड़े कद का राजनेता बनाया.
क्लिक करेंवीसी शुक्ल का राजनीतिक जीवन शानदार रहा. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शानदार थी. वे देश के सबसे कम उम्र के सांसदों में से एक थे. 28 साल की उम्र में वे लोकसभा के सदस्य बने, राजसी ठाठ से जुड़े 'विलासों' के प्रेमी.

Tuesday, June 11, 2013

मोदी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' का मतलब क्या है?

 मंगलवार, 11 जून, 2013 को 07:25 IST तक के समाचार
क्लिक करेंभाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सँभालने के बाद क्लिक करेंनरेंद्र मोदी ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया.
उन्होंने ट्विटर पर भी लिखा, "हम कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे."
नरेन्द्र मोदी की बातों में आवेश होता है, और ठहराव की कमी. चूंकि उन्होंने इस बात को कई बार कहा है. इसलिए यह समझने की ज़रूरत है कि वे कहना क्या चाहते है.
उन्होंने ‘कांग्रेस मुक्ति’ की अपनी अवधारणा स्पष्ट नहीं की. वे यदिक्लिक करेंकांग्रेस की चौधराहट को खत्म करना चाहते हैं तो यह उनका मौलिक विचार नहीं है.
साठ के दशक के शुरुआती दिनों में राम मनोहर लोहिया 'गैर-कांग्रेसवाद' का नारा दे चुके हैं.
इस गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति में तत्कालीन जनसंघ भी शामिल था और 1967 में पहली बार बनी कई संविद सरकारों में उसकी हिस्सेदारी थी.
'गैर-कांग्रेसवाद' राजनीतिक अवधारणा थी. इसमें कांग्रेस का विकल्प देने की बात थी, उसके सफाए की परिकल्पना नहीं थी.
बेशक कांग्रेस की राजनीति ने तमाम दोषों को जन्म दिया, पर उससे उसकी विरासत नहीं छीनी जा सकती.
क्लिक करेंकांग्रेस से मुक्ति माने कांग्रेस की विरासत से मुक्ति. आइए यह जानने की कोशिश करें कि कांग्रेस को समाप्त करने के मायने क्या हैं. कांग्रेस से मुक्ति के मायने इन बातों से मुक्तिः-

Sunday, June 9, 2013

धन-संचय के मामले में पार्टियों की पर्दादारी ठीक नहीं

देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के अधिकार के दायरे में रखे जाने को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं हैं। इसका समर्थन करने वालों को लगता है कि राजनीतिक दलों का काफी हिसाब-किताब अंधेरे में होता है। उसे रोशनी में लाना चाहिए। वे यह भी मानते हैं कि राजनीतिक दल सरकार की ओर से अनेक प्रकार की सुविधाएं पाते हैं तो उन्हें ज़िम्मेदार भी बनाया जाना चाहिए। पर इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया है। कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि पार्टियां किसी कानून से नहीं बनी हैं। वे सरकारी सहायता से नहीं चलती हैं।

Sunday, June 2, 2013

तू-तू, मैं-मैं से नही निकलेगा माओवाद का हल

पिछले हफ्ते देश के मीडिया पर दो खबरें हावी रहीं। पहली आईपीएल और दूसरी नक्सली हिंसा। दोनों के राजनीतिक निहितार्थ हैं, पर दोनों मामलों में राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया अलग-अलग रही। शुक्रवार को शायद राहुल गांधी और सोनिया गांधी की पहल पर कांग्रेसी राजनेताओं ने बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन के खिलाफ बोलना शुरू किया। उसके पहले सारे राजनेता खामोश थे। भारतीय जनता पार्टी के अरुण जेटली, नरेन्द्र मोदी और अनुराग ठाकुर अब भी कुछ नहीं बोल रहे हैं।

Sunday, May 26, 2013

सूने शहर में शहनाई का शोर


यूपीए-2 की चौथी वर्षगाँठ की शाम भाजपा और कांग्रेस के बीच चले शब्दवाणों से राजनीतिक माहौल अचानक कड़वा हो गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाया, पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उपलब्धियों के साथ-साथ दो बातें और कहीं। एक तो यह कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उनका पूरा समर्थन प्राप्त है और दूसरे इस बात पर अफसोस व्यक्त किया कि मुख्य विपक्षी पार्टी ने संवैधानिक भूमिका को नहीं निभाया, जिसकी वजह से कई अहम बिल पास नहीं हुए। इसके पहले भाजपा की नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने सरकार पर जमकर तीर चलाए। दोनों ने अपने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि सरकार पूरी तरह फेल है। दोनों ओर से वाक्वाण देर रात तक चलते रहे।


पिछले नौ साल में यूपीए की गाड़ी झटके खाकर ही चली। न तो वह इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ जैसी तुर्शी दिखा पाई और न उदारीकरण की गाड़ी को दौड़ा पाई। यूपीए के प्रारम्भिक वर्षों में अर्थव्यवस्था काफी तेजी से बढ़ी। इससे सरकार को कुछ लोकलुभावन कार्यक्रमों पर खर्च करने का मौका मिला। इसके कारण ग्रामीण इलाकों में उसकी लोकप्रियता भी बढ़ी। पर सरकार और पार्टी दो विपरीत दिशाओं में चलती रहीं। 

Friday, May 10, 2013

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के कुछ ‘गैर-कांग्रेसी’ कारण


Photo: Shikari Rahul!
(Fake Encounter in Karnataka)

ऊपर सतीश आचार्य का कार्टून नीचे हिन्दू में केशव का कार्टून
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी से पूछें तो शायद वे मधुसूदन मिस्त्री को श्रेय देंगे. या कहेंगे कि पार्टी संगठन ने अद्भुत काम किया.

कांग्रेस संगठन जीता ज़रूर पर पार्टी अध्यक्ष परमेश्वरन खुद चुनाव हार गए. कमल नाथ के अनुसार यह कांग्रेस की नीतियों की जीत है.

कांग्रेस की इस शानदार जीत के लिए वास्तव में पार्टी संगठन, उसके नेतृत्व और नीतियों को श्रेय मिलना चाहिए.

पर उन बातों पर भी गौर करना चाहिए, जिनका वास्ता कांग्रेस पार्टी से नहीं किन्ही और ‘चीजों’ से हैं.

राज्यपाल की भूमिका
सन 1987 में जस्टिस आरएस सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. पहला, घनघोर राजनीतिक व्यक्ति को जो सक्रिय राजनीति में हो, उसे राज्यपाल नहीं बनाना चाहिए.

दूसरा यह कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, उसके सदस्य की विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल के रूप में नियुक्ति न हो.

30 मई 2008 को येदियुरप्पा सरकार बनी और उसके एक साल बाद 25 जून 2009 को हंसराज भारद्वाज कर्नाटक के राज्यपाल बने, जो संयोग से इन योग्यताओं से लैस थे.

विधि और न्याय मंत्रालय में भारद्वाज ने नौ वर्षों तक राज्यमंत्री के रूप में और पांच साल तक कैबिनेट मंत्री रहकर कार्य किया. वे देश के सबसे अनुभवी कानून मंत्रियों में से एक रहे हैं.

वे तभी खबरों में आए जब उन्होंने यूपीए-1 के दौर में कई संवेदनशील मुद्दों में हस्तक्षेप किया. प्रायः ये सभी मामले 10 जनपथ से जुड़े थे.

बीबीसी हिंदी डॉटकॉम में पूरा लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें

Friday, May 3, 2013

कांग्रेस की राह के 11 रोड़े


प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

मई 2009 में जब यूपीए-2 की सरकार आई तब लगा था कि देश में स्थिरता का एक दौर आने वाला है.

सरकार के पास सुरक्षित बहुमत है. सहयोगी दल अपेक्षाकृत सौम्य हैं.

इस घटना के कुछ महीने पहले ही मंदी का पहला दौर शुरू हुआ था. हमारी आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत से घटकर 6 प्रतिशत के करीब आ गई थी. पर उस संकट से हम पार हो गए. अन्न के वैश्विक संकट का प्रभाव हमारे देश पर नहीं पड़ा.

नवम्बर 2009 में भारत ने इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड से 200 टन सोना खरीदा. इस खरीद का यों तो कोई खास अर्थ नहीं. पर प्रतीक रूप में महत्व है. इस घटना के 18 साल पहले 1991 में जब हमारा विदेशी मुद्रा रिजर्व घटकर दो अरब डॉलर से भी कम हो गया था, हमें अपने पास रखे रिजर्व सोने में से 67 टन सोना बेचना पड़ा था.

इसके अगले साल यानी 2010 तक देश के उत्साह में कमी नहीं थी. एक अप्रैल 2010 को हमने हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार दिया. आर्थिक इंडिकेटर्स भी ठीक थे. पर जून आते-आते हालात बदल गए. और तब से पिछले तीन साल में कांग्रेस की कहानी में बुनियादी पेच पैदा हुए हैं. स्क्रिप्ट भटक गई है.

सबसे बड़ी बात यह कि लालकृष्ण आडवाणी के पराभव के बाद रसातल की ओर जा रही भारतीय जनता पार्टी को नकारात्मक प्रचार का फ़ायदा मिला और कांग्रेस को नुकसान.

इस दौरान कांग्रेस को केवल एक बड़ी राजनीतिक सफलता मिली है. वह है राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर उसके प्रत्याशियों की जीत. इस बात को जानने की कोशिश करें कि वे कौन से बिन्दु हैं जो कांग्रेस को परेशान करते हैं.
पूरा लेख बीबीसी हिन्दी वैबसाइट में पढ़ें

अमेरिका जाने का शौक है तो उसे झेलना भी सीखिए


अमेरिका के हवाई अड्डों से अक्सर भारतीय नेताओं या विशिष्ट व्यक्तियों के अपमान की खबरें आती हैं। अपमान से यहाँ आशय उस सामान्य सुरक्षा जाँच और पूछताछ से है जो 9/11 के बाद से शुरू हुई है। आमतौर पर यह शिकायत विशिष्ट व्यक्तियों या वीआईपी की ओर से आती है। सामान्य व्यक्ति एक तो इसके लिए तैयार रहते हैं, दूसरे उन्हें उस प्रकार का अनुभव नहीं होता जिसका अंदेशा होता है। मसलन एक पाकिस्तानी नागरिक ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि मुझसे तकरीबन 45 मिनट तक पूछताछ की गई, पर किसी वक्त अभद्र शब्दों का इस्तेमाल नहीं हुआ। मेरी पत्नी को मैम और मुझे सर या मिस्टर सिद्दीकी कहकर ही सम्बोधित किया गया। उन्होंने सवाल भी मामूली पूछे, जिनमें मेरा कार्यक्रम क्या है, मैं करता क्या हूँ, अमेरिका क्यों आया हूँ वगैरह थे। दरअसल हमारे देश के नागरिक अपने देश की सुरक्षा एजेंसियों के व्यवहार से इतने घबराए होते हैं कि उन्हें अमेरिकी एजेंसियों के बर्ताव को लेकर अंदेशा बना रहता है।

Monday, April 22, 2013

ब्रेक के बाद... और अब वक्त है राजनीतिक घमासान का


बजट सत्र का उत्तरार्ध शुरू होने के ठीक पहले मुलायम सिंह ने माँग की है कि यूपीए सरकार को चलते रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। उधर मायावती ने लोकसभा के 39 प्रत्याशियों की सूची जारी की है। दोनों पार्टियाँ चाहेंगी तो चुनाव के नगाड़े बजने लगेंगे। उधर टूजी मामले पर बनी जेपीसी की रपट कांग्रेस और डीएमके के बाकी बचे सद्भाव को खत्म करने जा रही है।  कोयला मामले में सीबीआई की रपट में हस्तक्षेप करने का मामला कांग्रेस के गले में हड्डी बन जाएगा। संसद का यह सत्र 10 मई को खत्म होगा। तब तक कर्नाटक के चुनाव परिणाम सामने आ जाएंगे। भाजपा के भीतर नरेन्द्र मोदी को लेकर जो भीतरी द्वंद चल रहा है वह भी इस चुनाव परिणाम के बाद किसी तार्किक परिणति तक पहुँचेगा।  राजनीति का रथ एकबार फिर से ढलान पर उतरने जा रहा है। 

Monday, April 15, 2013

अगले चुनाव के बाद खुलेगी राजनीतिक सिद्धांतप्रियता की पोल


जिस वक्त गुजरात में दंगे हो रहे थे और नरेन्द्र मोदी उन दंगों की आँच में अपनी राजनीति की रोटियाँ सेक रहे थे उसके डेढ़ साल बाद बना था जनता दल युनाइटेड। अपनी विचारधारा के अनुसार नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव किसी की नरेन्द्र मोदी की रीति-नीति से सहमति नहीं थी। नीतीश कुमार उस वक्त केन्द्र सरकार में मंत्री थे। वे आसानी से इस्तीफा दे सकते थे। शायद उन्होंने उस वक्त नहीं नरेन्द्र मोदी की महत्ता पर विचार नहीं किया। सवाल नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने या न बनने का नहीं। प्रत्याशी बनने का है। उनके प्रत्याशी बनने की सम्भावना को लेकर पैदा हुई सरगर्मी फिलहाल ठंडी पड़ गई है।

Monday, April 1, 2013

विचार और सिद्धांत की अनदेखी करती राजनीति

पिछले बुधवार को तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास करके माँग की कि केंद्र सरकार श्रीलंका के साथ मित्र राष्ट्र जैसा व्यवहार बंद करे। इसके पहले यूपीए-2 को समर्थन दे रही पार्टी डीएमके ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तमिलनाडु में श्रीलंका को लेकर पिछले तीन दशक से उबाल है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि श्रीलंका के खिलाड़ी वहाँ खेल न पाए हों। या भारतीय टीम के तमिल खिलाड़ियों को श्रीलंका में कोई परेशानी हुई हो। पर तमिलनाडु में अब श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा। पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच खेलने की अनुमति नहीं दी थी। और अब आईपीएल के मैचों में श्रीलंका के खिलाड़ी चेन्नई में खेले जा रहे मैचों में नहीं खेल पाएंगे। दूसरी ओर जब तक ममता बनर्जी की पार्टी यूपीए में शामिल थी केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू कर पाना मुश्किल हो गया था। खासतौर से विदेश नीति के मामले में ममता ने भी उसी तरह के अड़ंगे लगाने शुरू कर दिए थे जैसे आज तमिलनाडु की राजनीति लगा रही है। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। और अंततः दोस्ती खत्म हो गई।

Tuesday, March 26, 2013

राजनीति में साल भर चलती है होली


पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों का था तो अगला हफ्ता होली का होगा। संसद के बजट सत्र का इंटरवल चल है। अब 22 अप्रेल को फिर शुरू होगा, जो 10 मई तक चलेगा। पिछले हफ्ते डीएमके, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच के रिश्तों ने अचानक मोड़ ले लिया। किसी की मंशा सरकार गिराने की नहीं है, पर लगता है कि अंत का प्रारम्भ हो गया है। किसी को किसी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की ज़रूरत नहीं है। शायद सरकार खुद ही तकरीबन छह महीने पहले चुनाव कराने का प्रस्ताव लेकर आए। पर उसके पहले कुछ बातें साफ हो जाएंगी। एक तो यह कि उदारीकरण के जुड़े कानून संसद के शेष दिनों में पास करा दिए जाएंगे और दूसरे चुनाव पूर्व के गठबंधन भले ही तय न हो पाएं, चुनावोत्तर गठबंधनों की सम्भावनाओं पर गहरा विमर्श हो जाएगा।

Saturday, January 26, 2013

राजनीति का चिंताहरण दौर


भारतीय राजनीति की डोर तमाम क्षेत्रीय, जातीय. सामुदायिक, साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत सामंती पहचानों के हाथ में है। और देश के दो बड़े राष्ट्रीय दलों की डोर दो परिवारों के हाथों में है। एक है नेहरू-गांधी परिवार और दूसरा संघ परिवार। ये दोनों परिवार इन्हें जोड़कर रखते हैं और राजनेता इनसे जुड़कर रहने में ही समझदारी समझते हैं। मौका लगने पर दोनों ही एक-दूसरे को उसके परिवार की नसीहतें देते हैं। जैसे राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने पर भाजपा ने वंशवाद को निशाना बनाया और जवाब में कांग्रेस ने संघ की लानत-मलामत कर दी। जयपुर चिंतन शिविर में उपाध्यक्ष का औपचारिक पद हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने भावुक हृदय से मर्मस्पर्शी भाषण दिया। इसके पहले सोनिया गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को सलाह दी थी कि समय की ज़रूरतों को देखते हुए वे आत्ममंथन करें। नगाड़ों और पटाखों के साथ राहुल का स्वागत हो रहा था। पर उसके पहले गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के एक वक्तव्य ने विमर्श की दिशा बदल दी। इस हफ्ते बीजेपी के अध्यक्ष का चुनाव भी तय था। चुनाव के ठीक पहले गडकरी जी से जुड़ी कम्पनियों में आयकर की तफतीश शुरू हो गई। इसकी पटकथा भी किसी ने कहीं लिखी थी। इन दोनों घटनाओं का असर एक साथ पड़ा। गडकरी जी की अध्यक्षता चली गई। राजनाथ सिंह पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में उभर कर आए हैं। पर न तो राहुल के पदारोहण का जश्न मुकम्मल हुआ और न गडकरी के पराभव से भाजपा को कोई बड़ा धक्का लगा।

Monday, December 17, 2012

एक और 'गेम चेंजर', पर कौन सा गेम?

गुजरात में मतदान का आज दूसरा दौर है। 20 दिसम्बर को हिमाचल और गुजरात के नतीजे आने के साथ-साथ राजनीतिक सरगर्मियाँ और बढ़ेंगी। इन परिणामों से ज्यादा महत्वपूर्ण है देश की राजनीति का तार्किक परिणति की ओर बढ़ना। संसद का यह सत्र धीरे-धीरे अवसान की ओर बढ़ रहा है। सरकार के सामने अभी पेंशन और बैंकिंग विधेयकों को पास कराने की चुनौती है। इंश्योरेंस कानून संशोधन विधेयक 2008 को राज्यसभा में पेश हुआ था। तब से वह रुका हुआ है। बैंकिंग कानून संशोधन बिधेयक, माइक्रो फाइनेंस विधेयक, सिटीजन्स चार्टर विधेयक, लोकपाल विधेयक शायद इस सत्र में भी पास नहीं हो पाएंगे। महिला आरक्षण विधेयक वैसे ही जैसे मैजिक शो में वॉटर ऑफ इंडिया। अजा, जजा कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण का विधेयक राजनीतिक कारणों से ही आया है और उन्हीं कारणों से अटका है। संसद के भंडारागार में रखे विधेयकों की सूची आप एक बार देखें और उनके इतिहास पर आप जाएंगे तो आसानी से समझ में आ जाएगा कि इस देश की गाड़ी चलाना कितना मुश्किल काम है। यह मुश्किल चाहे यूपीए हो या एनडीए या कोई तीसरा मोर्चा, जब तक यह दूर नहीं होगी, प्रगति का पहिया ऐसे ही रुक-रुक कर चलेगा।

Friday, December 14, 2012

गुजरात और गुजरात के बाद

येदुरप्पा का पुनर्जन्म

सतीश आचार्य का कार्टून
मोदी हवा-हवाई

हिन्दू में केशव का कार्टून
राजनीतिक लड़ाई और कानूनी बदलाव
दिल्ली की कुर्सी की लड़ाई कैसी होगी इसकी तस्वीर धीरे-धीरे साफ हो रही है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी का भविष्य ही दाँव पर नहीं है, बल्कि भावी राष्ट्रीय राजनीति की शक्ल भी दाँव पर है। मोदी क्या 92 से ज्यादा सीटें जीतेंगे? ज्यादातर लोग मानते हैं कि जीतेंगे। क्या वे 117 से ज्यादा जीतेंगे, जो 2007 का बेंचमार्क है? यदि ऐसा हुआ तो मोदी की जीत है। तब अगला सवाल होगा कि क्या वे 129 से ज्यादा जीतेंगे, जो 2002 का बेंचमार्क है। गुजरात और हिमाचल के नतीजे 20 दिसम्बर को आएंगे, तब तक कांग्रेस पार्टी को अपने आर्थिक उदारीकरण और लोकलुभावन राजनीति के अंतर्विरोधी एजेंडा को पूरा करना है।

Friday, December 7, 2012

बड़े मौके पर काम आता है 'साम्प्रदायिकता' का ब्रह्मास्त्र

SP BSP DMK FDI Retail UPA Vote Debate Political Indian Cartoon Manjul
मंजुल का कार्टून
हिन्दू में केशव और सुरेन्द्र के कार्टून

सतीश आचार्य का कार्टून
                                     
जब राजनीति की फसल का मिनिमम सपोर्ट प्राइस दे दिया जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर संसद के दोनों सदनों में हुई बहस के बाद भी सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आया कि हुआ क्या? यह फैसला सही है या गलत? ऊपर नज़र आ रहे एक कार्टून में कांग्रेस का पहलवान बड़ी तैयारी से आया था, पर उसके सामने पोटैटो चिप्स जैसा हल्का बोझ था। राजनेताओं और मीडिया की बहस में एफडीआई के अलावा दूसरे मसले हावी रहे। ऐसा लगता है कि भाजपा, वाम पंथी पार्टियाँ और तृणमूल कांग्रेस की दिलचस्पी एफडीआई के इर्द-गिर्द ही बहस को चलाने की है, पर उससे संसदीय निर्णय पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं। समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों ने ही एफडीआई का विरोध किया है, पर विरोध का समर्थन नहीं किया। इसका क्या मतलब है? यही कि देश में 'साम्प्रदायिकता' का खतरा 'साम्राज्यवाद' से ज्यादा बड़ा है।