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Friday, May 3, 2013

कांग्रेस की राह के 11 रोड़े


प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

मई 2009 में जब यूपीए-2 की सरकार आई तब लगा था कि देश में स्थिरता का एक दौर आने वाला है.

सरकार के पास सुरक्षित बहुमत है. सहयोगी दल अपेक्षाकृत सौम्य हैं.

इस घटना के कुछ महीने पहले ही मंदी का पहला दौर शुरू हुआ था. हमारी आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत से घटकर 6 प्रतिशत के करीब आ गई थी. पर उस संकट से हम पार हो गए. अन्न के वैश्विक संकट का प्रभाव हमारे देश पर नहीं पड़ा.

नवम्बर 2009 में भारत ने इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड से 200 टन सोना खरीदा. इस खरीद का यों तो कोई खास अर्थ नहीं. पर प्रतीक रूप में महत्व है. इस घटना के 18 साल पहले 1991 में जब हमारा विदेशी मुद्रा रिजर्व घटकर दो अरब डॉलर से भी कम हो गया था, हमें अपने पास रखे रिजर्व सोने में से 67 टन सोना बेचना पड़ा था.

इसके अगले साल यानी 2010 तक देश के उत्साह में कमी नहीं थी. एक अप्रैल 2010 को हमने हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार दिया. आर्थिक इंडिकेटर्स भी ठीक थे. पर जून आते-आते हालात बदल गए. और तब से पिछले तीन साल में कांग्रेस की कहानी में बुनियादी पेच पैदा हुए हैं. स्क्रिप्ट भटक गई है.

सबसे बड़ी बात यह कि लालकृष्ण आडवाणी के पराभव के बाद रसातल की ओर जा रही भारतीय जनता पार्टी को नकारात्मक प्रचार का फ़ायदा मिला और कांग्रेस को नुकसान.

इस दौरान कांग्रेस को केवल एक बड़ी राजनीतिक सफलता मिली है. वह है राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर उसके प्रत्याशियों की जीत. इस बात को जानने की कोशिश करें कि वे कौन से बिन्दु हैं जो कांग्रेस को परेशान करते हैं.
पूरा लेख बीबीसी हिन्दी वैबसाइट में पढ़ें

अमेरिका जाने का शौक है तो उसे झेलना भी सीखिए


अमेरिका के हवाई अड्डों से अक्सर भारतीय नेताओं या विशिष्ट व्यक्तियों के अपमान की खबरें आती हैं। अपमान से यहाँ आशय उस सामान्य सुरक्षा जाँच और पूछताछ से है जो 9/11 के बाद से शुरू हुई है। आमतौर पर यह शिकायत विशिष्ट व्यक्तियों या वीआईपी की ओर से आती है। सामान्य व्यक्ति एक तो इसके लिए तैयार रहते हैं, दूसरे उन्हें उस प्रकार का अनुभव नहीं होता जिसका अंदेशा होता है। मसलन एक पाकिस्तानी नागरिक ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि मुझसे तकरीबन 45 मिनट तक पूछताछ की गई, पर किसी वक्त अभद्र शब्दों का इस्तेमाल नहीं हुआ। मेरी पत्नी को मैम और मुझे सर या मिस्टर सिद्दीकी कहकर ही सम्बोधित किया गया। उन्होंने सवाल भी मामूली पूछे, जिनमें मेरा कार्यक्रम क्या है, मैं करता क्या हूँ, अमेरिका क्यों आया हूँ वगैरह थे। दरअसल हमारे देश के नागरिक अपने देश की सुरक्षा एजेंसियों के व्यवहार से इतने घबराए होते हैं कि उन्हें अमेरिकी एजेंसियों के बर्ताव को लेकर अंदेशा बना रहता है।

Monday, April 22, 2013

ब्रेक के बाद... और अब वक्त है राजनीतिक घमासान का


बजट सत्र का उत्तरार्ध शुरू होने के ठीक पहले मुलायम सिंह ने माँग की है कि यूपीए सरकार को चलते रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। उधर मायावती ने लोकसभा के 39 प्रत्याशियों की सूची जारी की है। दोनों पार्टियाँ चाहेंगी तो चुनाव के नगाड़े बजने लगेंगे। उधर टूजी मामले पर बनी जेपीसी की रपट कांग्रेस और डीएमके के बाकी बचे सद्भाव को खत्म करने जा रही है।  कोयला मामले में सीबीआई की रपट में हस्तक्षेप करने का मामला कांग्रेस के गले में हड्डी बन जाएगा। संसद का यह सत्र 10 मई को खत्म होगा। तब तक कर्नाटक के चुनाव परिणाम सामने आ जाएंगे। भाजपा के भीतर नरेन्द्र मोदी को लेकर जो भीतरी द्वंद चल रहा है वह भी इस चुनाव परिणाम के बाद किसी तार्किक परिणति तक पहुँचेगा।  राजनीति का रथ एकबार फिर से ढलान पर उतरने जा रहा है। 

Monday, April 15, 2013

अगले चुनाव के बाद खुलेगी राजनीतिक सिद्धांतप्रियता की पोल


जिस वक्त गुजरात में दंगे हो रहे थे और नरेन्द्र मोदी उन दंगों की आँच में अपनी राजनीति की रोटियाँ सेक रहे थे उसके डेढ़ साल बाद बना था जनता दल युनाइटेड। अपनी विचारधारा के अनुसार नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव किसी की नरेन्द्र मोदी की रीति-नीति से सहमति नहीं थी। नीतीश कुमार उस वक्त केन्द्र सरकार में मंत्री थे। वे आसानी से इस्तीफा दे सकते थे। शायद उन्होंने उस वक्त नहीं नरेन्द्र मोदी की महत्ता पर विचार नहीं किया। सवाल नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने या न बनने का नहीं। प्रत्याशी बनने का है। उनके प्रत्याशी बनने की सम्भावना को लेकर पैदा हुई सरगर्मी फिलहाल ठंडी पड़ गई है।

Monday, April 1, 2013

विचार और सिद्धांत की अनदेखी करती राजनीति

पिछले बुधवार को तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास करके माँग की कि केंद्र सरकार श्रीलंका के साथ मित्र राष्ट्र जैसा व्यवहार बंद करे। इसके पहले यूपीए-2 को समर्थन दे रही पार्टी डीएमके ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तमिलनाडु में श्रीलंका को लेकर पिछले तीन दशक से उबाल है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि श्रीलंका के खिलाड़ी वहाँ खेल न पाए हों। या भारतीय टीम के तमिल खिलाड़ियों को श्रीलंका में कोई परेशानी हुई हो। पर तमिलनाडु में अब श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा। पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच खेलने की अनुमति नहीं दी थी। और अब आईपीएल के मैचों में श्रीलंका के खिलाड़ी चेन्नई में खेले जा रहे मैचों में नहीं खेल पाएंगे। दूसरी ओर जब तक ममता बनर्जी की पार्टी यूपीए में शामिल थी केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू कर पाना मुश्किल हो गया था। खासतौर से विदेश नीति के मामले में ममता ने भी उसी तरह के अड़ंगे लगाने शुरू कर दिए थे जैसे आज तमिलनाडु की राजनीति लगा रही है। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। और अंततः दोस्ती खत्म हो गई।

Tuesday, March 26, 2013

राजनीति में साल भर चलती है होली


पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों का था तो अगला हफ्ता होली का होगा। संसद के बजट सत्र का इंटरवल चल है। अब 22 अप्रेल को फिर शुरू होगा, जो 10 मई तक चलेगा। पिछले हफ्ते डीएमके, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच के रिश्तों ने अचानक मोड़ ले लिया। किसी की मंशा सरकार गिराने की नहीं है, पर लगता है कि अंत का प्रारम्भ हो गया है। किसी को किसी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की ज़रूरत नहीं है। शायद सरकार खुद ही तकरीबन छह महीने पहले चुनाव कराने का प्रस्ताव लेकर आए। पर उसके पहले कुछ बातें साफ हो जाएंगी। एक तो यह कि उदारीकरण के जुड़े कानून संसद के शेष दिनों में पास करा दिए जाएंगे और दूसरे चुनाव पूर्व के गठबंधन भले ही तय न हो पाएं, चुनावोत्तर गठबंधनों की सम्भावनाओं पर गहरा विमर्श हो जाएगा।

Saturday, January 26, 2013

राजनीति का चिंताहरण दौर


भारतीय राजनीति की डोर तमाम क्षेत्रीय, जातीय. सामुदायिक, साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत सामंती पहचानों के हाथ में है। और देश के दो बड़े राष्ट्रीय दलों की डोर दो परिवारों के हाथों में है। एक है नेहरू-गांधी परिवार और दूसरा संघ परिवार। ये दोनों परिवार इन्हें जोड़कर रखते हैं और राजनेता इनसे जुड़कर रहने में ही समझदारी समझते हैं। मौका लगने पर दोनों ही एक-दूसरे को उसके परिवार की नसीहतें देते हैं। जैसे राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने पर भाजपा ने वंशवाद को निशाना बनाया और जवाब में कांग्रेस ने संघ की लानत-मलामत कर दी। जयपुर चिंतन शिविर में उपाध्यक्ष का औपचारिक पद हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने भावुक हृदय से मर्मस्पर्शी भाषण दिया। इसके पहले सोनिया गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को सलाह दी थी कि समय की ज़रूरतों को देखते हुए वे आत्ममंथन करें। नगाड़ों और पटाखों के साथ राहुल का स्वागत हो रहा था। पर उसके पहले गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के एक वक्तव्य ने विमर्श की दिशा बदल दी। इस हफ्ते बीजेपी के अध्यक्ष का चुनाव भी तय था। चुनाव के ठीक पहले गडकरी जी से जुड़ी कम्पनियों में आयकर की तफतीश शुरू हो गई। इसकी पटकथा भी किसी ने कहीं लिखी थी। इन दोनों घटनाओं का असर एक साथ पड़ा। गडकरी जी की अध्यक्षता चली गई। राजनाथ सिंह पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में उभर कर आए हैं। पर न तो राहुल के पदारोहण का जश्न मुकम्मल हुआ और न गडकरी के पराभव से भाजपा को कोई बड़ा धक्का लगा।

Monday, December 17, 2012

एक और 'गेम चेंजर', पर कौन सा गेम?

गुजरात में मतदान का आज दूसरा दौर है। 20 दिसम्बर को हिमाचल और गुजरात के नतीजे आने के साथ-साथ राजनीतिक सरगर्मियाँ और बढ़ेंगी। इन परिणामों से ज्यादा महत्वपूर्ण है देश की राजनीति का तार्किक परिणति की ओर बढ़ना। संसद का यह सत्र धीरे-धीरे अवसान की ओर बढ़ रहा है। सरकार के सामने अभी पेंशन और बैंकिंग विधेयकों को पास कराने की चुनौती है। इंश्योरेंस कानून संशोधन विधेयक 2008 को राज्यसभा में पेश हुआ था। तब से वह रुका हुआ है। बैंकिंग कानून संशोधन बिधेयक, माइक्रो फाइनेंस विधेयक, सिटीजन्स चार्टर विधेयक, लोकपाल विधेयक शायद इस सत्र में भी पास नहीं हो पाएंगे। महिला आरक्षण विधेयक वैसे ही जैसे मैजिक शो में वॉटर ऑफ इंडिया। अजा, जजा कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण का विधेयक राजनीतिक कारणों से ही आया है और उन्हीं कारणों से अटका है। संसद के भंडारागार में रखे विधेयकों की सूची आप एक बार देखें और उनके इतिहास पर आप जाएंगे तो आसानी से समझ में आ जाएगा कि इस देश की गाड़ी चलाना कितना मुश्किल काम है। यह मुश्किल चाहे यूपीए हो या एनडीए या कोई तीसरा मोर्चा, जब तक यह दूर नहीं होगी, प्रगति का पहिया ऐसे ही रुक-रुक कर चलेगा।

Friday, December 14, 2012

गुजरात और गुजरात के बाद

येदुरप्पा का पुनर्जन्म

सतीश आचार्य का कार्टून
मोदी हवा-हवाई

हिन्दू में केशव का कार्टून
राजनीतिक लड़ाई और कानूनी बदलाव
दिल्ली की कुर्सी की लड़ाई कैसी होगी इसकी तस्वीर धीरे-धीरे साफ हो रही है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी का भविष्य ही दाँव पर नहीं है, बल्कि भावी राष्ट्रीय राजनीति की शक्ल भी दाँव पर है। मोदी क्या 92 से ज्यादा सीटें जीतेंगे? ज्यादातर लोग मानते हैं कि जीतेंगे। क्या वे 117 से ज्यादा जीतेंगे, जो 2007 का बेंचमार्क है? यदि ऐसा हुआ तो मोदी की जीत है। तब अगला सवाल होगा कि क्या वे 129 से ज्यादा जीतेंगे, जो 2002 का बेंचमार्क है। गुजरात और हिमाचल के नतीजे 20 दिसम्बर को आएंगे, तब तक कांग्रेस पार्टी को अपने आर्थिक उदारीकरण और लोकलुभावन राजनीति के अंतर्विरोधी एजेंडा को पूरा करना है।

Friday, December 7, 2012

बड़े मौके पर काम आता है 'साम्प्रदायिकता' का ब्रह्मास्त्र

SP BSP DMK FDI Retail UPA Vote Debate Political Indian Cartoon Manjul
मंजुल का कार्टून
हिन्दू में केशव और सुरेन्द्र के कार्टून

सतीश आचार्य का कार्टून
                                     
जब राजनीति की फसल का मिनिमम सपोर्ट प्राइस दे दिया जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर संसद के दोनों सदनों में हुई बहस के बाद भी सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आया कि हुआ क्या? यह फैसला सही है या गलत? ऊपर नज़र आ रहे एक कार्टून में कांग्रेस का पहलवान बड़ी तैयारी से आया था, पर उसके सामने पोटैटो चिप्स जैसा हल्का बोझ था। राजनेताओं और मीडिया की बहस में एफडीआई के अलावा दूसरे मसले हावी रहे। ऐसा लगता है कि भाजपा, वाम पंथी पार्टियाँ और तृणमूल कांग्रेस की दिलचस्पी एफडीआई के इर्द-गिर्द ही बहस को चलाने की है, पर उससे संसदीय निर्णय पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं। समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों ने ही एफडीआई का विरोध किया है, पर विरोध का समर्थन नहीं किया। इसका क्या मतलब है? यही कि देश में 'साम्प्रदायिकता' का खतरा 'साम्राज्यवाद' से ज्यादा बड़ा है। 

Sunday, December 2, 2012

क्या सुषमा स्वराज ने मोदी के लिए रास्ता खोल दिया?

नरेन्द्र मोदी के बाबत सुषमा स्वराज के वक्तव्य का अर्थ लोग अपने-अपने तरीके से निकाल रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि सुषमा स्वराज ने भी नामो का समर्थन कर दिया, जो खुद भाजपा संसदीय दल का नेतृत्व करती हैं और जब भी सरकार बनाने का मौका होगा तो प्रधानमंत्री पद की दावेदार होंगी। पर सुषमा जी के वक्तव्य को ध्यान से पढ़ें तो यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा। हाँ इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नामो के नाम पर उनका विरोध नहीं है। गुजरात की चुनाव सभाओं में अरुण जेटली ने भी इसी आशय की बात कही है।

यह दूर की बात है कि एनडीए कभी सरकार बनाने की स्थिति में आता भी है या नहीं, पर लोकसभा चुनाव में उतरते वक्त पार्टी सरकार बनाने के इरादों को ज़ाहिर क्यों नहीं करना चाहेगी? ऐसी स्थिति में उसे सम्भावनाओं के दरवाजे भी खुले रखने होंगे। अभी तक ऐसा लगता था कि पार्टी के भीतर नरेन्द्र मोदी को केन्द्रीय राजनीति में लाने का विरोध है। इस साल उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में उन्हें नहीं आने दिया गया। नरेन्द्र मोदी ने मुम्बई कार्यकारिणी की बैठक के बाद से यह जताना शुरू कर दिया है कि मैं राष्ट्रीय राजनीति में शामिल होने का इच्छुक हूँ। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सीधे वार करने शुरू किए जो सहजे रूप से राष्ट्रीय समझ का प्रतीक है।

Friday, November 30, 2012

बड़े राजनीतिक गेम चेंजर की तलाश

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
 कांग्रेस पार्टी ने कंडीशनल कैश ट्रांसफर कार्यक्रम को तैयार किया है, जिसे आने वाले समय का सबसे बड़ा गेम चेंजर माना जा रहा है। सन 2004 में एनडीए की पराजय से सबक लेकर कांग्रेस ने सामाजिक जीवन में अपनी जड़ें तलाशनी शुरू की थी, जिसमें उसे सफलता मिली है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ने उसे 2009 का चुनाव जिताया। उसे पंचायत राज की शुरूआत का श्रेय भी दिया जा सकता है। सूचना के अधिकार पर भी वह अपना दावा पेश करती है, पर इसका श्रेय विश्वनाथ प्रताप सिंह को दिया जाना चाहिए। इसी तरह आधार योजना का बुनियादी काम एनडीए शासन में हुआ था। सर्व शिक्षा कार्यक्रम भी एनडीए की देन है। हालांकि शिक्षा के अधिकार का कानून अभी तक प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं हो पाया है, पर जिस दिन यह अपने पूरे अर्थ में लागू होगा, वह दिन एक नई क्रांति का दिन होगा। भोजन के अधिकार का मसौदा तो सरकार ने तैयार कर लिया है, पर उसे अभी तक कानून का रूप नहीं दिया जा सका है। प्रधानमंत्री ने हाल में घोषणा भी की है कि अगली पंचवर्षीय योजना से देश के सभी अस्पतालों में जेनरिक दवाएं मुफ्त में मिलने लगेंगी। सामान्य व्यक्ति के लिए स्वास्थ्य सबसे बड़ी समस्या है। कंडीशनल कैश ट्रांसफर योजना का मतलब है कि सरकार नागरिकों को जो भी सब्सिडी देगी वह नकद राशि के रूप में उसके बैंक खाते में जाएगी।

Monday, November 26, 2012

यथा राजनीति, तथा व्यवस्था


जब हम राजनीति में सक्रिय होते हैं तो जाने-अनजाने सिस्टम से जुड़े संवेदनशील सवालों से भी रूबरू होते हैं। टू-जी घोटाले के कारण पिछले दो साल से भारतीय राजनीति में भूचाल आया है। यह भूचाल केवल राजनीति तक सीमित रहता तब ठीक भी था, पर इसने हमारी सांविधानिक संस्थाओं को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। संसद के कई सत्र परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पूरी तरह या आंशिक रूप से ठप हो गए। यह व्यवस्था की विसंगति है और राजनीति की भी। सीएजी दफ्तर के पूर्व महानिदेशक आरपी सिंह के बयान के बाद और कुछ हो या न हो, इतना ज़रूर झलक रहा है कि सीएजी की रपटें भी राजनीति के रंग से रंग सकती हैं। टू-जी के स्पेक्ट्रम आबंटन की कीमत किस आधार पर तय होनी चाहिए थी और संभावित नुकसान कितना हुआ, उसे लेकर लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी का नाम जुड़ गया है। इससे सीएजी विनोद राय विवादास्पद हो गए हैं। इसके पहले कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी इस बात को कह रहे थे, पर अब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी इस बात को रेखांकित किया है। अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में यह विवाद किस दिशा में जाएगा। इसके पहले पीएमओ में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने सीएजी की कार्यशैली पर टिप्पणी की थी और कहा था कि सरकार सीएजी को एक के बजाय अनेक सदस्यों का बनाने पर विचार करेगी। इस बयान के फौरन बाद प्रधानमंत्री ने सफाई दी कि ऐसा कोई विचार नहीं है, पर सीएजी को लेकर सरकार के मन में कड़वाहट ज़रूर है।

Monday, November 19, 2012

दिल्ली धमाका! तैयारी विंटर सेल की!


यह हफ्ता काफी नाज़ुक साबित होने वाला है। कांग्रेस पार्टी ने देर से, लेकिन अपेक्षाकृत व्यवस्थित तरीके से महीने की शुरूआत की है, पर 22 तारीख से शुरू हो रहे संसद के सत्र में साफ हो जाएगा कि अगले लोकसभा चुनाव 2014 में होंगे या 2013 में। मनमोहन सिंह ने डिनर पर मुलायम सिंह से और लंच पर मायावती से मुलाकात कर ली है। किसी को भी समझ में आता है कि बात लोकसभा के फ्लोर मैनेजमेंट को लेकर हुई होगी। मतदान की नौबत आई तो क्या करेंगे? संगठन के स्तर पर भी बात हुई होगी। पर प्रधानमंत्री की मुलाकात का मतलब समझ में आता है। उन्होंने सरकारी नीतियों को स्पष्ट किया होगा या गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की होगी। सपा और बसपा पर दारोमदार है। सहयोगी दलों के अलावा बीजेपी के साथ भी कांग्रेस का बैकरूम संवाद चल रहा है। आर्थिक उदारीकरण के सवाल पर दोनों पार्टियों में वैचारिक सहमति है।

Friday, November 2, 2012

ब्रेक के उस पार है रोचक तमाशा

कुछेक साल पुराना कार्टून जो हमेशा ताज़ा लगेगा
इस बात की सम्भावना है कि संसद का शीत सत्र 22 नवम्बर से शुरू होकर 20 दिसम्बर तक चलेगा। उस दौरान गुजरात विधान सभा के चुनाव का मतदान भी हो रहा होगा। जैसी कि उम्मीद है सरकार पेंशन और इंश्योरेंस से जुड़े कानूनों में संशोधन के अलावा भूमि अधिग्रहण विधेयक भी इस दौरान पास कराना चाहेगी। कम्पनी कानून में बदलाव का विधेयक भी इस दौरान आएगा। 

संसद के पिछले सत्र में बीजेपी ने कोल ब्लॉक्स को लेकर प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग की थी और सदन में कार्य नहीं होने दिया था। क्या इस बार यह पार्टी संसदीय कार्य में हिस्सा लेगी? तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि  सरकार अल्पमत में है, उसे सदन का विश्वास हासिल करना चाहिए। यह टेस्ट विधेयकों के पास होते समय भी किया जा सकता है। उस स्थिति में समाजवादी पार्टी और बसपा पर काफी कुछ निर्भर करेगा। दोनों पार्टियों ने फिलहाल सरकार गिराने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया है। बसपा ने फैसला अपनी नेता पर छोड़ दिया है, जो बहुजन समाज के हित को देखते हुए उचित निर्णय करेंगी। 

अन्ना हज़ारे और उनके साथ आए जनरल वीके सिंह संसद के घेराव की योजना बना रहे हैं। ममता बनर्जी भी कह रहीं हैं कि संसद भंग कर दो। कुछ लोगों को लगता है कि इस सत्र के दौरान सरकार की छुट्टी हो जाएगी, पर मुझे यह बात समझ में नहीं आती। कोई भी पार्टी अभी चुनाव के लिए तैयारदिखाई नहीं पड़ती। कोई सांसद यों भी अपनी सदस्यता डेढ़ साल पहले छोड़ना नहीं चाहेगा। अगले चुनाव में जीतने की कोई गारंटी नहीं है। संसद का कार्यक्रम घोषित होने के बाद पार्टियों के वक्तव्यों पर ध्यान देंगे तो राजनीति के अनेक रोचक अंतर्विरोध सामने आएंगे। तमाशा देखने लायक होगा। 

Monday, October 29, 2012

संज़ीदगी के चक्कर में क़मेडी सर्कस बनती राजनीति


हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ, मगर चारे की ख़्वाहिश में/ बना हूँ मिम्बर-ए-कौंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर
अकबर इलाहाबादी की सिफत थी कि वे अपने आसपास की दिखावटी दुनिया पर पुरज़ोर वार करते थे। आज वे होते तो उन्हें लिखने का जो माहौल मिलता, वह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के शुरुआती दो दशकों से बेहतर होता, जिस दौर में उन्होंने लिखा। आज आप जिधर निगाहें उठाएं तमाम मिट्ठू मियाँ नज़र आएंगे। जसपाल भट्टी की उलट बाँसियों में भी उसी किस्म का आनंद मिलता था। अपने दौर को किसी किस्म की छूट दिए बगैर महीन किस्म की डाँट लगाने का फन हरेक के बस की बात नहीं। पर ज़माने की रफ्तार है कि पहले से ज्यादा तेज़ हुई जा रही है। फेसबुक में किसी ने हाल के घोटालों की लिस्ट बनाकर पेश की है। पढ़ते जाएं तो खत्म होने का नाम नहीं लेती। आलम यह है कि आज एक लिस्ट बनाओ, कल चार नाम और जुड़े जाते हैं। भारतीय घोटाला-सेनानियों के खुश-खबरी यह है कि इधर दुनिया के कुछ और नाम सुनाई पड़े हैं। पहले लगता था कि घोटालों में नाम जुड़ने से बदनामी होती है, पर अब लगता है कि इससे एक किस्म की मान्यता मिलती है कि आदमी काम का है। संसद के मॉनसून सत्र को सिर पर उठाने वाले भाजपाई नेताओं को अरविन्द केजरीवाल ने नितिन गडकरी के नाम फूलों के गुलदस्ते भेजे तो सबने खुशी जताई कि इत्ती सा बात। हम तो ज्यादा बड़े घोटालों की उम्मीद कर रहे थे। बहरहाल गडकरी जी के करिअर में गतिरोध आ रहा है। हालांकि पार्टी के नेता साथ खड़े हैं, पर कहना मुश्किल है कि वे अगले सत्र के लिए अध्यक्ष चुने जाएंगे या नहीं। उन्हें फिर से अध्यक्ष बनाने के लिए पार्टी ने संविधान में संशोधन तक कर लिया था।

Friday, October 12, 2012

तोता राजनीति के मैंगो पीपुल

भारतीय राज-व्यवस्था के प्राण तोतों में बसने लगे हैं। एक तोता सीबीआई का है, जिसमें अनेक राजनेताओं के प्राण हैं। फिर मायावती, मुलायम सिंह, ममता और करुणानिधि के तोते हैं। उनमें यूपीए के प्राण बसते हैं। तू मेरे प्राण छोड़, मैं तेरे प्राण छोड़ूं का दौर है। ये सब तोते सात समंदर और सात पहाड़ों के पार सात परकोटों से घिरी मीनार की सातवीं मंजिल में सात राक्षसों के पहरे में रहते हैं। तोतों, पहाड़ों और राक्षसों की अनंत श्रृंखलाएं हैं, और राजकुमार लापता हैं। तिरछी गांधी टोपी सिर पर रखकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में कटी बत्तियाँ जोड़ रहे हैं। हाल में उन्होंने गांधी के हिन्द स्वराज की तर्ज पर एक किताब लिखी है। टोपियाँ पहने  आठ-दस लोगों ने एक नई पार्टी बनाने की घोषणा की है। पिछले 65 साल में भारतीय राजनीति में तमाम प्रतीक और रूपक बदले पर टोपियों और तोतों के रूपक नहीं बदले। इस दौरान हमने अपनी संस्थाओं, व्यवस्थाओं और नेताओं की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी है। आम आदमी ‘मैंगो पीपुल’ में तब्दील हो गया है। संज़ीदगी की जगह घटिया कॉमेडी ने ले ली है। 

Monday, October 1, 2012

बीजेपी को चाहिए हाजमोला

लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में 15 सितम्बर को फ्रांसिस फुकुयामा की इतिहास का अंत अवधारणा का हवाला देते हुए भारतीय राजनीति के युगांतरकारी मोड़ का ज़िक्र किया है। उनके अनुसार 1989 भारत के राजनीतिक इतिहास का निर्णायक मोड़ रहा। इस वर्ष के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने एक लम्बी छलांग लगाते हुए 1984 की दयनीय दो सीटों के मुकाबले 86 सीटों का सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया। भाजपा राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेस पार्टी के एकाधिकार को चुनौती देने वाले मुख्य दल के रुप में उभरी। अगले दशक में भाजपा 1996 तक, तेजी से बढ़ती रही और कांग्रेस पार्टी सिकुड़ती गई, जब भाजपा लोक सभा में सर्वाधिक बड़े दल के रुप में उभरी, और 1998-1999 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण संभाल लिया। आडवाणी जी ने लिखा, तब से, जब भी कोई मुझसे पूछता है: राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के मुख्य योगदान को आप कैसे निरूपित करेंगें; तो सदैव मेरा उत्तर रहता है: भारत की एकदलीय प्रभुत्व वाली राजनीति को द्विध्रुवीय राजनीति में परिवर्तित करना। यह उपलब्धि न केवल भाजपा अपितु कांग्रेस और निस्संदेह देश तथा इसके लोकतंत्र के लिए वरदान सिध्द हुई है। दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी इसे इस रुप में नहीं लेती, भाजपा को एक मुख्य विपक्ष मानकर जिसके साथ सतत् सवांद करना शासन के लिए लाभकारी हो सकता है के बजाय इसे एक शत्रु के रुप में मानती है जिसे हटाना और किसी भी कीमत पर मिटाना उसका लक्ष्य है। प्रणव मुखर्जी अपवाद थे। नेता लोकसभा के रुप में यूपीए के अधिकांश कार्यकाल में उन्होंने मुख्य विपक्ष के नेतृत्व से निरंतर संवाद बनाए रखा। 

Friday, September 28, 2012

चुनावी नगाड़े और महाराष्ट्र का शोर

ऐसा लगता है कि एनसीपी के ताज़ा विवाद में अजित पवार नुकसान उठाने जा रहे हैं। शरद पवार का कहना है कि यह विवाद सुलझ गया है। यानी अजित पवार का इस्तीफा मंज़ूर और बाकी मंत्रियों का इस्तीफा नामंज़ूर। आज शुक्रवार को मुम्बई में एनसीपी विधायकों की बैठक हो रही है, जिसमें स्थिति और साफ होगी।
नेपथ्य में चुनाव के नगाड़े बजने लगे हैं। तृणमूल कांग्रेस की विदाई के बाद एनसीपी के विवाद के शोर में नितिन गडकरी का संदेश भी शामिल हो गया है कि जल्द ही चुनाव के लिए तैयार हो जाइए। बीजेपी ने एफडीआई को मुद्दा बनाने का फैसला किया है। पिछले महीने कोल ब्लॉक पर बलिहारी पार्टी को यह मुद्दा यूपीए ने खुद आगे बढ़कर दे दिया है। पर व्यापक फलक पर असमंजस है। बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठकों के समांतर यूपीए समन्वय समिति की पहली बैठक गुरुवार को हुई। यह समन्वय समिति दो महीने पहले जुलाई के अंतिम सप्ताह में कांग्रेस और एनसीपी के बीच विवाद को निपटाने का कारण बनी थी। संयोग है कि उसकी पहली बैठक के लिए एक और विवाद खड़ा हो गया है। अब एनसीपी के टूटने का खतरा है और महाराष्ट्र में नए समीकरण बन रहे हैं। वास्तव में चुनाव करीब हैं।

Monday, September 24, 2012

आर्थिक नहीं, संकट राजनीतिक है

बारहवीं योजना के दस्तावेज़ में से क्रोनी कैपीटलिज़्म शब्द हटाया जा रहा है। इसका ज़िक्र भारतीय आर्थिक व्यवस्था और हाल के घोटालों के संदर्भ में हुआ था। इस पर कुछ मंत्रियों का कहना था कि इस शब्द का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे क्रोनी कैपीटलिज़्म का भारतीय व्यवस्था में चलन साबित होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई बार क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर आगाह कर चुके हैं। इसी 12 सितम्बर को उन्होंने हाइवे प्रोजेक्ट्स में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को लेकर क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर चेताया था। मनमोहन सिंह सन 2007 में इस प्रवृत्ति के खतरों की ओर चेता चुके हैं। आप कहेंगे वे खुद प्रधानमंत्री हैं और खुद सवाल उठा रहे हैं। पर सच यह है कि मनमोहन सिंह ने भारतीय पूँजी और राजनीति के रिश्तों पर कई बार ऐसी टिप्पणियाँ की हैं। हालांकि उदारीकरण का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फूटता है, पर यह काजल की कोठरी है और इसमें बगैर दाग वाली कमीज़ किसी ने नहीं पहनी है। बहरहाल क्या हम योजना आयोग के दस्तावेज़ से यह शब्द हटाकर व्यवस्था को पारदर्शी बना सकते हैं? पिछले कुछ दिनों में यह बात बार-बार सामने आ रही है कि उदारीकरण का मतलब संसाधनों का कुछ परिवारों के नाम स्थानांतरण नहीं है। हमारा आर्थिक विकास रोज़गार पैदा करने में विफल रहा है। पर क्या ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, मायावती और बीजेपी व्यव्स्था को पारदर्शी बनाना चाहते हैं? क्या उनके विरोध के पीछे कोई आदर्श है? या यह सब ढोंग है? 

प्रधानमंत्री का कहना है कि पैसा पेड़ों में नहीं उगता। क्या ममता, मुलायम और मायावती समेत लगभग सारे दलों को लगता है कि उगता है? आज बंगाल सरकार 23,000 करोड़ रुपए के जिस कर्ज़ को माफ कराना चाहती है, वह रुपया भी पेड़ों नहीं उगा था, पर वाम मोर्चा सरकार ने रुपया लाने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा। कांग्रेस को छोड़ लगभग हर पार्टी ने मनमोहन सिंह सरकार के आर्थिक सुधारों का विरोध किया है। कांग्रेस के भीतर भी मनमोहन सिंह समर्थक लगभग न के बराबर हैं। हाल में समाजवादी पार्टी के नेता मोहन सिंह ने कोयला मामले के संदर्भ में कहा था कि पार्टी के भीतर ही बहुत से लोग चाहते हैं कि मनमोहन सिंह हटें। आर्थिक सुधारों को लेकर सोनिया गांधी ने जनता के बीच जाकर कभी कुछ नहीं कहा। बल्कि उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाई, जिसकी अधिकतर सलाहों से सरकार सहमत नहीं रही। पार्टी के आर्थिक और राजनीतिक विचारों में तालमेल नज़र नहीं आता। सवाल दो हैं। पहला यह कि सरकार को अचानक आर्थिक सुधारों की याद क्यों आई? और क्या वह मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार है? इन सब सवालों के साथ एक सवाल यह भी है कि क्या बीजेपी अपने ‘इंडिया शाइनिंग’ को भुलाकर जिस लोकलुभावन राजनीति के रास्ते पर जा रही है, क्या उसमें पैसा पेड़ों पर उगता है?