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Monday, April 23, 2012

राजनीतिक दलदल में आर्थिक उदारीकऱण

प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने भारतीय राजनीति के संदर्भ में जो कुछ कहा वह उनके गले पड़ गया और तकरीबन उन्हीं कारणों से जिनका जिक्र उन्होंने अपने वक्तव्य में किया था उन्हें अपनी बात वापस लेनी पड़ी। सरकार को भी अपनी सफाई में साबित करना पड़ा कि हम कारगर हैं और काम कर रहे हैं। पर क्या किसी को दिखाई नहीं पड़ा कि रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट में जो प्रस्ताव पेश किए थे वे किसी कारण से बदल गए। वे कौन से कारण थे? उसके पहले सरकार को खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की अनुमति देने का आदेश वापस लेना पड़ा।

Thursday, January 12, 2012

बैकरूम पॉलिटिक्स का जवाब है जागरूक वोटिंग

उत्तर प्रदेश के चुनाव का माहौल पिछले छह महीने से बना हुआ है। एक ओर सरकार की घोषणाएं तो दूसरी ओर मंत्रियों की कतार का बाहर होना। सन 2007 के चुनाव के ठीक पहले का माहौल इतना सरगर्म नहीं था। हाँ इतना समझ में आता था कि मुलायम सरकार गई और मायावती की सरकार आई। मुलायम सरकार के पतन का सबसे बड़ा कारण यह माना जाता है कि प्रदेश में आपराधिक तत्वों का बोलबाला था। तब क्या जनता ने अपराध के खिलाफ वोट दिया था?
यह बात शहरों या गाँवों में भी कुछ उन लोगों पर शायद लागू होती हो, जो मसलों और मुद्दों पर वोट देते हैं। पर सच यह है कि उस चुनाव में समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़ा था। सन 2002 के 25.37 से बढ़कर वह 2007 में 25.43 प्रतिशत हो गया था। फिर भी सीटों की संख्या 143 से घटकर 97 रह गई। वह न तो मुलायम सिंह की हार थी और न गुंडागर्दी की पराजय। वह सीधे-सीधे चुनाव की सोशल इंजीनियरिंग थी।

Friday, December 30, 2011

मुआ स्वांग खूब रहा

कानून सड़क पर नहीं संसद में बनते हैं। शक्तिशाली लोकपाल विधेयक सर्वसम्मति से पास होगा। देश की संवैधानिक शक्तियों को काम करने दीजिए। राजनीति को बदनाम करने की कोशिशें सफल नहीं होंगी। इस किस्म के तमाम वक्तव्यों के बाद गुरुवार की रात संसद का शीतकालीन सत्र भी समाप्त हो गया। कौन जाने कल क्या होगा, पर हमारा राजनीतिक व्यवस्थापन लोकपाल विधेयक को पास कराने में कामयाब नहीं हो पाया। दूसरी ओर अन्ना मंडली की हवा भी निकल गई। इस ड्रामे के बाद आसानी से कहा जा सकता है कि देश की राजनीतिक शक्तियाँ ऐसा कानून नहीं चाहतीं। और उनपर जनता का दबाव उतना नहीं है जितना ऐसे कानूनों को बनाने के लिए ज़रूरी है। 

लोकपाल बिल को लेकर चले आंदोलन और मुख्यधारा की राजनीति के विवाद और संवाद को भी समझने की जरूरत है। आमतौर पर हम या तो आंदोलन के समर्थक या विरोधी के रूप में सोचते हैं। सामान्य नागरिक यह देखता है कि इसमें मैं कहाँ हूँ। लोकपाल कानून को लेकर संसद में चली बहस से दो-एक बातें उजागर हुईं। सरकार, विपक्ष, अन्ना-मंडली और जनता सभी का रुख इसे लेकर एक सा नहीं है। पर सामान्य विचार बनाने का तरीका भी दूसरा नहीं है। इसके लिए कई प्रकार टकराहटों का इंतजार करना पड़ता है। लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान लोकसभा में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण था। पता नहीं किसी ने उस पर ध्यान दिया या नहीं। उनका आशय था कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं विकसित होती हैं। हम इस विधेयक को पास हो जाने दें और भविष्य में उसकी भूमिका को सार्थक बनाएं।

Tuesday, December 27, 2011

किसे लगता है 'लोकतंत्र' से डर?

30 जनवरी महात्मा गांधी की 64वीं पुण्यतिथि है। पंजाब और उत्तराखंड के वोटरों को ‘शहीद दिवस’ के मौके पर अपने प्रदेशों की विधानसभाओं का चुनाव करने का मौका मिलेगा। क्या इस मौके का कोई प्रतीकात्मक अर्थ भी हो सकता है? हमारे राष्ट्रीय जीवन के सिद्धांतों और व्यवहार में काफी घालमेल है। चुनाव के दौरान सारे छद्म सिद्धांत किनारे होते हैं और सामने होता है सच, वह जैसा भी है। 28 जनवरी से 3 मार्च के बीच 36 दिनों में पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। एक तरीके से यह 2012 के लोकसभा चुनाव का क्वार्टर फाइनल मैच है। 2013 में कुछ और महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हैं, जिनसे देश की जनता का मूड पता लगेगा। उसे सेमीफाइनल कहा जा सकता है। क्योंकि वह फाइनल से ठीक पहले का जनमत संग्रह होगा। जनमत संग्रह लोकतंत्र का सबसे पवित्र शब्द है। इसी दौरान तमाम अपवित्रताओं से हमारा सामना होगा।

Friday, December 23, 2011

कांग्रेस की इस युद्ध घोषणा में कितना दम है?

कांग्रेस का मुकाबला अन्ना हजारे से नहीं भाजपा और वाम मोर्चे से है। उसका तात्कालिक एजेंडा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में सफलता हासिल करना है। उम्मीद थी कि संसद के इस सत्र में कांग्रेस कुछ विधेयकों के मार्फत अपने नए कार्यक्रमों की घोषणा करेगी। पिछले साल घोटालों की आँधी में सोनिया गांधी ने बुराड़ी सम्मेलन के दौरान पार्टी को पाँच सूत्री प्रस्ताव दिया था, पर अन्ना-आंदोलन के दौरान वह पीछे रह गया। सोनिया गांधी अचानक युद्ध मुद्रा में नजर आ रहीं हैं।  क्या कांग्रेस इन तीखे तेवरों पर कायम रह सकेगी?

पिछले साल 19 दिसम्बर को सोनिया गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से भ्रष्टाचार के खिलाफ एकताबद्ध होने का आह्वान किया था। कांग्रेस महासमिति के बुराड़ी सम्मेलन में सोनिया गांधी ने जो पाँच सूत्र दिए थे, उनकी चर्चा इस साल शुरू के महीनों में सुनाई पड़ी, पर धीरे-धीरे गुम हो गई। अन्ना हजारे के आंदोलन के शोर में यह आवाज़ दबती चली गई। पिछले साल इन्हीं दिनों टूजी मामले में जेपीसी को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष में टकराव चल रहा था। कांग्रेस को उस मामले में विपक्ष के साथ समझौता करना पड़ा। धीरे-धीरे पार्टी रक्षात्मक मुद्रा में उतर आई। बुधवार को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में सोनिया गांधी ने लोकपाल को लेकर अपने तेवर तीखे किए हैं। बीमारी से वापस लौटीं सोनिया गांधी का यह पहला महत्वपूर्ण राजनीतिक वक्तव्य है।

Monday, December 19, 2011

भेड़ों की भीड़ नहीं जागरूक जनता बनिए

सब ठीक रहा तो अब लोकपाल बिल आज या कल संसद में पेश कर दिया जाएगा। साल खत्म होते-होते देश पारदर्शिता के अगले पायदान पर पैर रख देगा। और कुछ नए सवालों के आधार तैयार कर लेगा। समस्याओं और समाधानों की यह प्रतियोगिता जारी रहेगी। शायद अन्ना हजारे की टीम 27 को जश्न का समारोह करे। हो सकता है कि इस कानून से असहमत होकर आंदोलन के रास्ते पर जाए। पर क्या हम अन्ना हजारे के या सरकार के समर्थक या विरोधी के रूप में खुद को देखते हैं? सामान्य नागरिक होने के नाते हमारी भूमिका क्या दर्शक भर बने रहने की है? दर्शक नहीं हैं कर्ता हैं तो कितने प्रभावशाली हैं? कितने जानकार हैं और हमारी समझ का दायरा कितना बड़ा है? क्या हम हताशा की पराकाष्ठा पर पहुँच कर खामोश हो चुके हैं? या हमें इनमें से किसी प्लेयर पर इतना भरोसा है कि उससे सवाल नहीं करना चाहते?

Friday, December 16, 2011

बहुत हुई बैठकें, अब कानून बनाइए

सरकार पहले कहती है कि हमें समय दीजिए। अन्ना के अनशन की घोषणा के बाद जानकारी मिलती है कि शायद मंगलवार को विधेयक आ जाएगा। शायद सदन का कार्यकाल भी बढ़ेगा। यह सब अनिश्चय की निशानी है। सरकार को  पहले अपनी धारणा को साफ करना चाहिए। 

लोकपाल पर यह पहली सर्वदलीय बैठक नहीं थी। इसके पहले 3 जुलाई को भी एक बैठक हो चुकी थी जब संयुक्त ड्राफ्टिंग समिति की बैठकों के बाद सरकार ने अपना मन लगभग बना लिया था। अगस्त के अंतिम सप्ताह में संसद की इच्छा पर चर्चा हुई तब भी प्रायः सभी दलों की राय सामने आ गई थी। बुधवार की बैठक में पार्टियों के रुख में कोई बड़ा बदलाव नहीं था। बहरहाल 1968 से अब तक के समय को जोड़ें तो देश की संसदीय राजनीति के इतिहास में किसी भी कानून पर इतना लम्बा विचार-विमर्श नहीं हुआ होगा। यह अच्छी बात है और खराब भी। खराब इसलिए कि केवल इस कानून के कारण देश का, मीडिया का और संसद का काफी समय इस मामले पर खर्च हो रहा है जबकि दूसरे मामले भी सामने खड़े हैं। अर्थ-व्यवस्था संकट में है, औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, यूरो और डॉलर के झगड़े में रुपया कमजोर होता जा रहा है। जनता को महंगाई और बेरोजगारी सता रही है। ऐसे में पार्टियाँ सत्ता की राजनीति के फेर में फैसले पर नहीं पहुँच पा रहीं हैं।

Monday, December 12, 2011

नीति-अनीति और सत्ता की राजनीति


अन्ना हजारे के आंदोलन का अगला चरण सत्ता की राजनीति के अपेक्षाकृत ज्यादा करीब होगा। राहुल गांधी चाहते तो इस सभा में जाते और वही घोषणा करते जो एक-दो दिन बाद सरकार करने वाली है तो कांग्रेस के लिए वह बेहतर होता। बहरहाल कांग्रेस का गणित कुछ और है। या वह इतना अस्पष्ट है कि कांग्रेस को भी समझ में नहीं आ रहा। पर चिन्ता का विषय है समूची राजनीति का विचार और नीति से दूर होते जाना। लोकपाल विधेयक से बड़ा भारी बदलाव नहीं हो जाएगा। खराबी जन-प्रतिनिधित्व कानून में है और सामाजिक व्यवस्था में भी। इसके लिए अलग-अलग किस्म की राजनीति की दरकार है। हमारी पहली ज़रूरत है राजनीति को वैधानिकता प्रदान करना। एक अरसे से यह अपराधियों के चंगुल में फँसी है। 

पिछले हफ्ते एक रोज पटना से दिल्ली जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस को अचानक रोक लिया गया। पता लगा कि कुछ सांसदों को प्रथम श्रेणी एसी की बर्थ नहीं मिल पाईं। ट्रेन से कुल 18 सांसद यात्रा करने वाले थे। उनमें से छह को प्रथम एसी में जगह मिल पाई। बाकी को सेकंड एसी में जगह दी गई है। ऐसा पहली बार हुआ। कुछ सासंदों की ट्रेन छूटी या कुछ देर से आए। संसदीय कार्यों में उनकी ठीक से शिरकत नहीं हो पाई। बहरहाल इसकी शिकायत रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी से की गई। उन्होंने सासंदों से माफी माँगी। कुछ सरकारी अफसरों का तबादला किया गया। साथ ही रेलमंत्री ने आश्वासन दिया कि भविष्य में सासंदों के रिजर्वेशन का काम सीधे रेल बोर्ड से किया जाएगा। रेलमंत्री ने एक जानकारी यह भी दी कि सरकारी सर्कुलर है कि कोई नया डिब्बा लगाने के लिए तीन दिन पहले से सूचना होनी चाहिए। वह सूचना नहीं थी इसलिए नया डिब्बा नहीं लग पाया।

Sunday, December 11, 2011

सरकार बनाम सरकार !!!


लड़ाई राजनीति में होनी चाहिए सरकारों में नहीं
नवम्बर के आखिरी हफ्ते में लखनऊ में हुई एक रैली में मायावती ने आरोप लगाया कि हमने केन्द्र सरकार से 80,000 करोड़ रुपए की सहायता माँगी थी, पर हमें मिला कुछ नहीं। यही नहीं संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत जो कुछ मिलना चाहिए वह भी नहीं मिला। संघ सरकार पर राज्य सरकार का करोड़ों रुपया बकाया है। इस तरह केन्द्र सरकार उत्तर प्रदेश के विकास को बंधक बना रही है। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी खस्ता हालत को देखकर इस कदर डरी हुई है कि उसके महासचिव राहुल गांधी दिल्ली में सारे काम छोड़कर उत्तर प्रदेश में ‘नाटकबाजी’ कर रहे हैं।

उधर राहुल गांधी ने बाराबंकी की एक रैली में कहा कि लखनऊ में एक हाथी विकास योजनाओं का पैसा खा रहा है। पिछले बीस साल से उत्तर प्रदेश में कोई काम नहीं हुआ है। देश आगे जा रहा है और उत्तर प्रदेश पीछे। राहुल गांधी का कहना है कि मनरेगा और शिक्षा से जुड़ी जो रकम उत्तर प्रदेश को मिली उसका दुरुपयोग हुआ। दो साल पहले संसद में पूछे गए एक सवाल में बताया गया था कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में सबसे ज्यादा शिकायतें उत्तर प्रदेश से मिली हैं। हाल में केन्द्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संदीप दीक्षित ने कहा कि प्रदेश में मनरेगा के तहत 10,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का घोटाला है। हाल में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी इसी किस्म के आरोप लगाए और इसकी सीबीआई जाँच की माँग भी की। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने इस घोटाले को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय पर सीधे आरोप लगाए हैं। उत्तर प्रदेश में ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के घोटालों को लेकर सीएजी की कोई रपट भी जल्द आने वाली है। प्रदेश में तीन वरिष्ठ डॉक्टरों की हत्या के बाद से उत्तर प्रदेश की ग्रामीण स्वास्थ्य योजना को लेकर कांग्रेस पार्टी लगातार आलोचना कर रही है।

Monday, November 28, 2011

अर्थनीति को चलाने वाली राजनीति चाहिए

सन 1991 में जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को देश में लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। मराकेश समझौते के बाद जब 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना तब भी इन आशंकाओं को दोहराया गया। पिछले बीस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद एनडीए की सरकार बनी। वह भी उस रास्ते पर चली। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं, पर उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। इस तरह मुख्यधारा की राजनीति में उदारीकरण की बड़ी रोचक तस्वीर बनी है। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। आर्थिक उदारी के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उदारीकरण के मुखर समर्थक हैं और न विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।

Sunday, October 23, 2011

चुनाव व्यवस्था पर नए सिरे से सोचना चाहिए


चनाव-व्यवस्था-1
जरूरी है चुनावी व्यवस्था की समीक्षा

भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी व्यवस्था तब तक निरर्थक है जब तक राजनीतिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव न हो। राजनीतिक व्यवस्था की एक हिस्सा है चुनाव। चुनाव के बारे में व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए। शिशिर सिंह ने इस सिलसिले में मेरे पास लेख भेजा है। इस विषय पर आप कोई राय रखते हों तो कृपया भेजें। मुझे इस ब्लॉग पर प्रकाशित करने में खुशी होगी। 

लोग केवल मजबूत लोकपाल नहीं चाहते वह चाहते हैं कि राइट टू रिजेक्ट को भी लागू किया जाए। हालांकि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की इस धारणा पर मिश्रित प्रतिक्रिया आई हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने इसे भारत के लिहाज से अव्यावहारिक बताया है। सही भी है ऐसे देश में जहाँ कानूनों के उपयोग से ज्यादा उनका दुरूप्रयोग होता हो, राइट टू रिजेक्ट अस्थिरता और प्रतिद्वंदिता निकालने की गंदी राजनीति का हथियार बन सकता है। लेकिन अगर व्यवस्थाओं में परिवर्तन चाहते हैं तो भरपूर दुरूप्रयोग हो चुकी चुनाव की मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन लाना ही पड़ेगा क्योंकि अच्छी व्यवस्था के लिए अच्छा जनप्रतिनिधि होना भी बेहद जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी चुनावी व्यवस्था की नए सिर से समीक्षा करें।

Friday, July 15, 2011

मंत्रिमंडल में फेर-बदल क्यों होता है?


संसदीय लोकतंत्र के विशेषज्ञों के लिए यह शोध का विषय है कि प्रधानमंत्री बीच-बीच में अपने मंत्रिमंडल में फेर-बदल क्यों करते हैं। और यह भी कि फेर-बदल कब करते हैं। किसी भी बदलाव का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि पूरी टीम के बीच काम का नया माहौल बनता है, चुस्ती आती है। नए लोग सामने आते हैं और ढीला काम करने वाले बाहर होते जाते हैं। इस फेर-बदल के पीछे सप्लाई और डिमांड का मार्केट गणित भी होता है। यानी कुछ लोग सरकार में शामिल होने के लिए दबाव बनाते हैं और कुछ खास तरह के लोगों की ज़रूरत बनती जाती है। साथ ही मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा भी हो जाती है। इन सब बातों के अलावा राजनैतिक माहौल, विभिन्न शक्तियों के बीच संतुलन बैठाने और यदि गठबंधन सरकार है तो सहयोगी दलों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी बदलाव होते हैं। इतनी लम्बी कथा बाँचने की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि हम केन्द्रीय मंत्रिमंडल के ताजा फेर-बदल का निहितार्थ समझ सकें।

Friday, June 10, 2011

योग सेना क्यों बनाना चाहते हैं रामदेव?


बाबा रामदेव के पास अच्छा जनाधार है। योग के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के सहारे उन्होंने देश के बड़े क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाया है। पिछले कुछ वर्षों से वे राजनैतिक सवाल भी उठा रहे हैं। उनकी सभाओं में दिए गए व्याख्यानों को सुनें तो उनमें बहुत सी बातें अच्छी लगती हैं। ज्यादातर व्याख्यान उनके सहयोगियों के हैं। इनमें भारतीय गौरव, प्रतिभा और क्षमता पर जोर होता है। राष्ट्रवाद को जगाने का यह अच्छा तरीका है, पर आधुनिक दुनिया को देखने का केवल यही तरीका नहीं। युरोप को केवल गालियाँ देने से काम नहीं होगा। हमें अपने दोष भी देखने चाहिए। प्राचीन भारत में ज्ञान-विज्ञान था तो विज्ञान का विरोध भी था, वैसे ही जैसे युरोप में था। इतिहास को देखने और समझने की दृष्टि जनता के बीच विकसित करना अच्छा है, पर उसका लक्ष्य वैचारिक पारदर्शिता का होना चाहिए। इसी तरह वंचित वर्गों के बारे में रामदेव के पास कोई दृष्टिकोण नहीं है।

Monday, June 6, 2011

रामदेव नहीं जनता पर ध्यान दो


केन्द्र सरकार ने पहले रामदेव को रिझाने की कोशिश की फिर दुत्कारा। इससे उसकी नासमझी ही दिखाई पड़ती है। कांग्रेस इस वक्त टूटी नाव पर सवार है। अचानक वह मँझधार में आ गई है। इसका फायदा भाजपा को भले न मिले कांग्रेस का नुकसान हो गया। इसकी वजह यह है कि पिछले दो दशक में सरकारों ने आर्थिक मसलों को अहमियत दी राजनीति पर ध्यान नहीं दिया। आज के जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख-  

बाबा रामदेव-आंदोलन की सबसे बड़ी आलोचना यह कहकर की जाती है कि यह राजनीति से प्रेरित है। आरएसएस और भाजपा के नेताओं का आशीर्वाद पाने के बाद इसकी शक्ल हिन्दुत्ववादी भी हो गई है। रामदेव के साथ अन्ना हजारे हैं और जैसी कि कुछ अखबारों में खबर थी कि माओवादी भी। काले धन, भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों को लेकर चलाए जा रहे आंदोलन को कौन अ-राजनैतिक कहेगा? पर क्या राजनीति अपराध है? राजनैतिक आंदोलन चलाने में गलत क्या है? हाल के दिनों में लगातार बैकफुट पर खेल रही कांग्रेस पार्टी और केन्द्र सरकार ने पहली बार सख्ती के संकेत दिए हैं। क्या वह इस सख्ती पर कायम रह पाएगी?

Monday, May 30, 2011

उफनती लहरें और अनाड़ी खेवैया



यूपीए सरकार की लगातार बिगड़ती छवि को दुरुस्त करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस महीने की दस तारीख को पब्लिक रिलेशनिंग के लिए एक और ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बनाया है। इस ग्रुप की हर रोज़ बैठक होगी और मीडिया को ब्रीफ किया जाएगा। यह सामान्य सी जानकारी हमारे राजनैतिक सिस्टम के भ्रम और कमज़ोरियों को भी ज़ाहिर करती है। सरकार का नेतृत्व तमाम मसलों पर जल्द फैसले करने के बजाय ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बनाकर अपना पल्ला झाड़ता है। यूपीए-दो ने पिछले साल में कितने जीओएम बना लिए इसकी औपचारिक जानकारी नहीं है, पर इनकी संख्या 50 से 200 के बीच बताई जाती है। दूसरी ओर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में एक और संस्था खड़ी होने से राजनीति और राजनैतिक नेतृत्व बजाय ताकतवर होने के और कमज़ोर हो गया है। यह कमज़ोरी पार्टी की अपनी कमज़ोरी है साथ ही गठबंधन सरकारों की देन भी है।

Monday, May 23, 2011

दिल्ली पर संशय के मेघ


यूपीए सरकार के सात साल पूरे हो गए। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद बनी यह सरकार यूपीए प्रथम की तुलना में ज्यादा स्थिर मानी जा रही थी। एक तो कांग्रेस का बहुमत बेहतर था। दूसरे इसमें वामपंथी मित्र नहीं थे, जो सरकार के लिए किसी भी विपक्ष से ज्यादा बड़े विरोधी साबित हो रहे थे। यूपीए के लिए इससे भी ज्यादा बड़ा संतोष इस बात पर था कि एनडीए की न सिर्फ ताकत घटी, उसमें शामिल दलों की संख्या भी घटी। मुख्य विपक्षी दल भाजपा का नेतृत्व बदला। उसके भीतर की कलह सामने आई। यूपीए के लिए एक तरह से यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की तरह से था। पर यूपीए के पिछले दो साल की उपलब्धियाँ देखें तो खुश होने की वजह नज़र नहीं आती।

Friday, May 20, 2011

बुनियाद के पत्थरों को डरना क्या



चुनाव परिणाम आते ही पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि करके केन्द्र सरकार ने राजनैतिक नासमझी का परिचय दिया है। पेट्रोल कम्पनियों के बढ़ते घाटे की बात समझ में आती है, पर इतने दिन दाम बढ़ाए बगैर काम चल गया तो क्या कुछ दिन और रुका नहीं जा सकता था? इसका राजनैतिक फलितार्थ क्या है? यही कि वामपंथी पार्टियाँ इसका विरोध करतीं थीं। वे हार गईं। अब मार्केट फोर्सेज़ हावी हो जाएंगी।  इधर दिल्ली में मदर डेयरी ने दूध की कीमतों में दो रुपए प्रति लिटर की बढ़ोत्तरी कर दी। उसके पन्द्रह दिन पहले अमूल ने कीमतें बढ़ाईं थीं। इस साल खरबूजे 30 रुपए, आम पचास रुपए, तरबूज पन्द्रह रुपए और सेब सौ रुपए के ऊपर चल रहे हैं। ककड़ी और खीरे भी गरीबों की पहुँच से बाहर हैं।

Monday, May 16, 2011

आमतौर पर वोटर नाराज़गी का वोट देता है



भारतीय राजनीति के एक्टर, कंडक्टर, दर्शक, श्रोता और समीक्षक लम्बे अर्से से समझने की कोशिश करते रहे हैं कि वोटर क्या देखकर वोट देता है। व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है या पार्टी, मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं या नारे। जाति और धर्म महत्वपूर्ण हैं या नीतियाँ। कम्बल, शराब और नोट हमारे लोकतंत्र की ताकत है या खोट हैं? सब कहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र पुष्ट, परिपक्व और समझदार है। पर उसकी गहराई में जाएं तो नज़र आएगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ घाघ लोगों के जोड़-घटाने पर चलती है। जिसका गणित सही बैठ गया वह बालकनी पर खड़ा होकर जनता की ओर हाथ लहराता है। नीचे खड़ी जनता में आधे से ज्यादा पार्टी कार्यकर्ता होते हैं जिनकी आँखों में नई सरकार के सहारे अपने जीवन का गणित बैठाने के सपने होतें हैं।

Saturday, May 14, 2011

इन नतीजों में छिपी हैं कुछ पहेलियाँ



कोलकाता के टेलीग्राफ का पहला पेज
इस चुनाव परिणाम ने पाँच राज्यों में जितने राजनैतिक समाधान दिए हैं उससे ज्यादा पहेलियाँ  बिखेर दी हैं। अब बंगाल, तमिलनाडु और केरल से रोचक खबरों का इंतज़ार कीजिए। जनता बेचैन है। वह बदलाव चाहती है, जहाँ रास्ता नज़र आया वहां सब बदल दिया। जहाँ नज़र नहीं आया वहाँ गहरा असमंजस छोड़ दिया। बंगाल में उसने वाम मोर्चे के चीथड़े उड़ा दिए और केरल में दोनों मोर्चों को म्यूजिकल चेयर खेलने का आदेश दे दिया। बंगाल की जीत से ज्यादा विस्मयकारी है जयललिता की धमाकेदार वापसी। ममता बनर्जी की जीत तो पिछले तीन साल से आसमान पर लिखी थी। पर बुढ़ापे में करुणानिधि की इस गति का सपना एक्ज़िट पोल-पंडितों ने नहीं देखा।

पोस्ट-घोटाला भारत के इस पहले चुनाव का संदेश क्या है? कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। और जनता ने सन 2009 में यूपीए पर जो भरोसा जताया था, वह अब भी कायम है? क्या हाल के सिविल सोसायटी-आंदोलन की जनता ने अनदेखी कर दी? तब फिर तमिलनाडु में जयललिता की जीत को क्या माना जाए? और तमिलनाडु की जनता की भ्रष्टाचार से नाराज़गी है तो जयललिता को जिताने का क्या मतलब है? उनपर क्या कम आरोप हैं? 

खुद को पुनर्परिभाषित करे वाम मोर्चा

यह लेख 13 मई के दैनिक जनवाणी में छपा था। इसके संदर्भ अब भी प्रासंगिक हैं, इसलिए इसे यहाँ लगाया है।

हार कर भी जीत सकता है वाम मोर्चा

कल्पना कीजिए कभी चीन में चुनावों के मार्फत सरकार बदलने लगे तो क्या होगा? चीन में ही नहीं उत्तरी कोरिया और क्यूबा में क्या होगा? यह कल्पना कभी सच हुई तो सत्ता परिवर्तन के बाद का नज़ारा कुछ वैसा होगा जैसा हमें पश्चिम बंगाल में देखने को मिलेगा। बशर्ते परिणाम वैसे ही हों जैसे एक्ज़िट पोल बता रहे हैं। देश का मीडिया इस बात पर एकमत लगता है कि वाम मोर्चा की 34 साल पुरानी सरकार विदा होगी। ऐसा नहीं हुआ तो विस्मय होगा और मीडिया की समझदारी विश्लेषण का नया विषय होगी।