कार्बन उत्सर्जन में भारत की भूमिका को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स का कार्टून
तमाम विफलताओं के बावजूद भारत की ताकत है उसका
लोकतंत्र. सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा
दिक्कत तलब नहीं हुआ, क्योंकि भारत एक अवधारणा के रूप में
देश के लोगों के मन में पहले से मौजूद था. पूरे एशिया में सुदूर पूर्व के जापान,
ताइवान और दक्षिण कोरिया को छोड़ दें, तो भारत अकेला देश है, जहाँ पिछले 75 से
ज्यादा वर्षों में लोकतांत्रिक-व्यवस्था निर्बाध चल रही है.
अब अपने आसपास देखें. पाकिस्तान, नेपाल,
बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव में सत्ता-परिवर्तन की प्रक्रिया सुचारु नहीं रही
है. सत्ता-परिवर्तन की बात ही नहीं है, देश की लोकतांत्रिक-संस्थाएं काम कर रही
हैं और क्रमशः मजबूत भी होती जा रही हैं. लोकतंत्र की ताकत उसकी संस्थाओं के
साथ-साथ जनता की जागरूकता पर निर्भर करती है.
इस जागरूकता के लिए शिक्षा, सार्वजनिक
स्वास्थ्य, न्याय-प्रणाली और नागरिकों की समृद्धि की जरूरत होती है. बहुत सी
कसौटियों पर हमारा लोकतंत्र अभी उतना विकसित नहीं है कि उसकी तुलना पश्चिमी देशों
से की जा सके, पर पिछले 75 वर्षों में इन सभी मानकों पर सुधार हुआ है. सबसे पहले
इस बात को स्वीकार करें कि भारत की काफी समस्याएं अंग्रेजी-साम्राज्यवाद की देन
हैं.
लुटा-पिटा देश
15 अगस्त, 1947
को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था.
अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी. सन 1700
में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो
पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी. यह हिस्सेदारी 1952 में
केवल 3.2 फीसदी रह गई थी.
इतिहास के इस पहिए को उल्टा घुमाने की
जिम्मेदारी आधुनिक भारत पर है. क्या हम ऐसा कर सकते हैं? आप
पूछेंगे कि इस समय यह सवाल क्यों? इस समय अचानक हम दो
विपरीत-परिस्थितियों के बीच आ गए हैं. एक तरफ भारत जी-20 और शंघाई सहयोग संगठन की
अध्यक्षता करते हुए विदेशी-सहयोग के रास्ते खोज रहा है, वहीं भारतीय लोकतंत्र में ‘विदेशी-हस्तक्षेप’ की खबर सुर्खियों में है.
सोरोस का बयान
गत 16 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस
से पहले टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते
हुए अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस ने अपने चेहरे पर से पर्दा हटाते हुए कहा कि हम
भारतीय लोकतंत्र के पुनरुत्थान के लिए कोशिशें कर रहे हैं. कैसा पुनरुत्थान,
क्या हमारा लोकतंत्र सोया हुआ है?
सोरोस के बयान के बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति
ईरानी और विदेशमंत्री एस जयशंकर ने सोरोस को जवाब दिए हैं. शनिवार को ऑस्ट्रेलिया
के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा कि सोरोस की
टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली
है. वे न्यूयॉर्क में बैठकर मान लेते हैं कि पूरी दुनिया की गति उनके नज़रिए से तय
होगा...वे बूढ़े, रईस, हठधर्मी
और ख़तरनाक हैं.
जयशंकर ने यह भी कहा कि आप अफ़वाहबाज़ी करेंगे कि दसियों लाख लोग अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठेंगे तो यह हमारे सामाजिक ताने-बाने को चोट पहुंचाएगा. ये लोग नैरेटिव बनाने पर पैसा लगा रहे हैं. वे मानते हैं कि उनका पसंदीदा व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और हारे, तो कहेंगे कि लोकतंत्र खराब है. गजब है कि यह सब कुछ खुले समाज की वकालत के बहाने किया जाता है. भारत के मतदाता फैसला करेंगे कि देश कैसे चलेगा.
अडानी के बहाने
जनवरी के आखिरी हफ्ते में जब गौतम अडानी के
कारोबार को लेकर अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सामने आई थी, तभी यह स्पष्ट था कि इसके पीछे अमेरिकी कारोबारी जॉर्ज सोरोस का हाथ
है. यह कहानी 2017 में ऑस्ट्रेलिया में चले अडानी-विरोधी आंदोलन के दौरान स्पष्ट
थी.
अडानी-विरोध के पीछे पर्यावरण-संरक्षण से जुड़े
संगठनों का हाथ ही होता, या कारोबारी-प्रतिस्पर्धियों की
भूमिका होती, तब बात अलग थी. साफ-साफ इसके पीछे राजनीति है. सवाल है कि कैसी
राजनीति? केवल मोदी और भारतीय जनता पार्टी निशाने पर है
या भारतीय-अर्थव्यवस्था?
कौन है इसके पीछे? क्या
यह पश्चिमी देशों और खासतौर से अमेरिका के ‘डीप-स्टेट’
में पनपने वाली भारत-विरोधी विरोधी दृष्टि है, जो 1947 के बाद से लगातार किसी न
किसी रूप में प्रकट होती रही है? या यह 2014 के बाद नरेंद्र मोदी की
सरकार बनने के बाद की प्रतिक्रिया है. यह नजरिया 2014 से पहले भी था, पर 2014 के
सत्ता-परिवर्तन के बाद इसकी शिद्दत बढ़ी है.
सोरोस का एजेंडा
2014 से पहले के नजरिए और इस नजरिए में
गुणात्मक फर्क जरूर है, पर बुनियादी फर्क नहीं है. अब भारत के बढ़ते कद और रसूख को
लेकर परेशानियाँ हैं. सोरोस का एक राजनीतिक एजेंडा है और उनके साथ दुनियाभर के अकादमिक,
मानवाधिकार संरक्षण और मीडिया-संगठन जुड़े हैं. उन्होंने पहली बार
मोदी-सरकार पर हमला नहीं बोला है.
इसके पहले वे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में सरकार
की आलोचना कर चुके हैं. इतना ही नहीं वे अपने राजनीतिक-कार्यक्रम के लिए एक अरब
डॉलर के कोष की स्थापना कर चुके हैं. इसमें वे अरबों रुपया लगा रहे हैं. सोरोस मानते
हैं कि भारत लोकतांत्रिक देश है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
लोकतांत्रिक नहीं हैं. उनके इतनी तेज़ी से आगे बढ़ने के पीछे भारतीय मुसलमानों के
साथ हिंसा भड़काना एक बड़ा कारक रहा है.
बात केवल अडानी-संदर्भ तक सीमित नहीं है.
ज्यादा महत्वपूर्ण है कश्मीर से 370 हटाने का विरोध और नागरिकता कानून को लेकर
उनकी राय. सोरोस दुनिया में बढ़ रहे राष्ट्रवादी-प्रवृत्तियों के विरोधी हैं. उन्होंने
कहा, राष्ट्रवाद बहुत आगे निकल गया है. सबसे बड़ा और सबसे भयावह झटका भारत में लगा
है, क्योंकि वहाँ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित
नरेंद्र मोदी भारत को एक हिंदू-राष्ट्र बना रहे हैं. वे कश्मीर में सख्ती कर रहे
हैं, जो अर्ध-स्वायत्त मुस्लिम क्षेत्र है और वे
लाखों नागरिकों को उनकी नागरिकता से वंचित करने की धमकी दे रहे हैं.
बैकलैश होगा
सोरोस के बयान के दो अलग-अलग पहलू हैं. जहाँ तक
अडानी और उनके कारोबार से जुड़े सवालों की बात है, यह जिम्मेदारी भारत सरकार और
देश की नियामक संस्थाओं की है कि वे इसकी तहकीकात करें. यह मामला सुप्रीम कोर्ट
में गया है और उम्मीद है कि वहाँ से इस तहकीकात की शुरुआत होगी.
उनके बयान का दूसरा पहलू राजनीति से जुड़ा है.
उसका बैकलैश होगा. सोरोस की पृष्ठभूमि राष्ट्रीयता-विहीन व्यक्ति की है. वे हंगरी
मूल के यहूदी हैं, जो अमेरिका आ गए हैं. पर वे या तो भारतीय मनोदशा को समझते नहीं
या उन्हें सलाह देने वालों की समझ में दोष है.
राष्ट्रवाद की पश्चिमी परिभाषा भारत पर पूरी
तरह लागू नहीं होती. भारतीय समाज में ‘क्षेत्रीय-पहचान’ महत्वपूर्ण कारक है, जो उसकी बहुलता को
स्थापित करता है, पर इस भिन्नता में एकता के सूत्र भी हैं. हमारी अनेकता को देखते
हुए कुछ लोग भारत के सैकड़ों टुकड़े करने का दावा भी करते हैं, जो असंभव संकल्पना
है.
ओपन सोसायटी
सोरोस के बयान से इस आरोप की पुष्टि हो रही है
कि भारतीय-राजनीति में विदेशी-संस्थाएं हस्तक्षेप कर रही हैं. सोरोस की विचारधारा
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रसिद्ध प्रोफेसर कार्ल पॉपर के विचारों पर आधारित
है. पॉपर के वैचारिक जीवन की शुरुआत मार्क्सवादी
रुझान से हुई थी, पर बाद के वर्षों में वे उसके विपरीत जाकर खुले समाज के समर्थक
हो गए.
उनके अनुसार वही समाज समृद्ध हो सकते हैं,
जहाँ सरकारें लोकतांत्रिक हों, अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता हो और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा हो. मूलतः लिबरल डेमोक्रेसी की यह
पूँजीवादी-अवधारणा है, जो पारदर्शिता का समर्थन करती है. भारतीय
समाज को इस विचार से असहमति नहीं है, पर हमारे अपने सामाजिक अंतर्विरोध हैं.
भारतीय समाज दुनिया का सबसे बहुरंगी समाज है.
उसे एक बनाकर रखने की चुनौतियाँ भी हैं. हमने जिस राजनीतिक-व्यवस्था को अपनाया है,
वह स्वदेशी नहीं है. एक परंपरागत बहुरंगी समाज जब अपने अतीत को साथ लेकर भविष्य की
वैश्विक-व्यवस्था से जुड़ता है, तो विसंगतियाँ भी पैदा होती हैं.
इतिहास से भी पुराना
15 अगस्त, 1947
को जवाहर लाल नेहरू ने कहा, ‘इतिहास के प्रारंभ से ही भारत ने अपनी
अनंत खोज आरंभ की थी. अनगिनत सदियां उसके उद्यम, अपार
सफलताओं और असफलताओं से भरी हैं. अपने सौभाग्य और दुर्भाग्य के दिनों में उसने इस
खोज को आँखों से ओझल नहीं होने दिया और न ही उन आदर्शों को ही भुलाया, जिनसे उसे शक्ति प्राप्त हुई.’
इस वक्तव्य के दो साल बाद 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में भीमराव आंबेडकर ने कहा, ‘राजनीतिक लोकतंत्र तबतक विफल है, जबतक
उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र नहीं हो.’ हमारी राजनीति में अनेक दोष हैं,
पर उसकी कुछ विशेषताएं दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग
करती हैं.
राष्ट्रीय आंदोलन के साथ हिंदू और मुस्लिम
राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के आंदोलन
भी चले. इनमें कुछ अलगाववादी भी थे, पर एक वृहत भारत
की संकल्पना कमजोर नहीं हुई. आज भारत एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है. हमारे राष्ट्रवाद
और लोकतंत्र का विमर्श साथ-साथ चलेगा. लोकतंत्र को राष्ट्रवाद से अलग करके नहीं
देखा जा सकता.
सोरोस की विसंगतियाँ
2008 में सोरोस इकोनॉमिक डेवलपमेंट फंड ने
ओमिडयार नेटवर्क, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और गूगल डॉट
ओआरजी के साथ सॉन्ग फंड बनाया. भारत में कई प्रकार की स्कॉलरशिप वे देते हैं और
तमाम एनजीओ और मीडिया संगठन भी परोक्ष रूप से उनकी सहायता पाते हैं. उन्हें
हिंदू-राष्ट्रवाद खतरनाक लगता है, पर वे कश्मीर में इस्लामिक कट्टरपंथ को
नहीं देख पा रहे हैं.
सवाल है कि सोरोस भारतीय लोकतंत्र से नाराज
क्यों हैं? उन्होंने अपने वक्तव्य में भारत के हिंदू
राष्ट्र की दिशा में बढ़ने का अंदेशा भी जाहिर किया है. क्या उनका अंदेशा सही है?
क्या वे भारतीय लोकतंत्र की दिशा को सही पढ़ पा रहे हैं? भारतीय समाज में बदमज़गी के पीछे एक बड़ा कारण विभाजन से भी जुड़ा
है.
सोरोस ने कहा है कि मोदी खुले और बंद दोनों तरह
से समाजों से संपर्क रखते हैं. भारत क्वाड का सदस्य है और रूस से तेल भी खरीदता
है.
उनकी इस बात से ही उनकी नादानी झलकती है. भारत
जैसे विशाल देश के राष्ट्रीय हितों को जाने-समझे वे यह बात कह रहे हैं. उन्होंने
अपने वक्तव्य में एक जगह कहा, मैं अनाड़ी हो सकता हूं, लेकिन
मुझे भारत में एक लोकतांत्रिक पुनरुद्धार की उम्मीद नजर आ रही है.
विदेशी हाथ
बेशक भारत में लोकतांत्रिक-पुनरुद्धार की
प्रक्रिया चल रही है, पर उसकी गतिशीलता बाहर से नहीं भीतर से सुनिश्चित होगी. वह
सोरोस के विचारों से नियंत्रित नहीं होगी. यह बात पूरे पश्चिमी-अमले को समझनी
चाहिए. दूसरी तरफ हम इस बात को नकार नहीं सकते कि बड़ी संख्या में हमारे
आधुनिक-विचारक पश्चिम में शिक्षित और दीक्षित हैं. महात्मा गांधी और नेहरू से लेकर
सावरकर तक.
कश्मीर-समस्या को उलझाने के पीछे
ब्रिटिश-अमेरिकी हाथ है. रूस के विस्तार को रोकने की ब्रिटिश-मनोकामना ने भारतीय-भूखंड
को उसकी सबसे बड़ी समस्या दी है. हाल के वर्षों में पश्चिमी संस्थाओं और
मीडिया-प्लेटफॉर्मों ने मोदी-सरकार के खिलाफ जो रवैया अपनाया है, उसे भी तो देखें.
पिछले साल अगस्त में न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक
लेख प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था, ‘मोदीज़ इंडिया इज़ ह्वेयर ग्लोबल डेमोक्रेसी डाइज़.’ भारत में
लोकतंत्र की मौत हो रही है.
यह लेख तब प्रकाशित हुआ था, जब हम अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्षों का उत्सव मना रहे थे. क्या यह
ह्वाइट सुप्रीमेसी की अभिव्यक्ति नहीं है?
इसी अखबार ने भारत के चंद्रयान का कार्टून
बनाकर मजाक उड़ाया और बाद में माफी भी माँगी थी.
No comments:
Post a Comment