हिन्दी अख़बार के 196 साल पूरे हो गए। हर साल हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाकर रस्म अदा करते हैं। हमें पता है कि कानपुर से कोलकाता गए किन्हीं पं. जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदंत मार्तंड’ अख़बार शुरू किया था। यह अख़बार बंद क्यों हुआ, उसके बाद के अख़बार किस तरह निकले, इन अखबारों की और पत्रकारों की भूमिका जीवन और समाज में क्या थी, इस बातों पर अध्ययन नहीं हुए। आजादी के पहले और आजादी के बाद उनकी भूमिका में क्या बदलाव आया, इसपर भी रोशनी नहीं पड़ी। आज ऐसे शोधों की जरूरत है, क्योंकि पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण दौर खत्म होने के बाद एक और महत्वपूर्ण दौर शुरू हो रहा है।
अख़बारों से अवकाश लेने के कुछ साल पहले और
उसके बाद हुए अनुभवों ने मेरी कुछ अवधारणाओं को बुनियादी तौर पर बदला है। सत्तर का
दशक शुरू होते वक्त जब मैंने इसमें प्रवेश किया था, तब
मन रूमानियत से भरा था। जेब में पैसा नहीं था, पर
लगता था कि दुनिया की नब्ज पर मेरा हाथ है। रात के दो बजे साइकिल उठाकर घर जाते
समय ऐसा लगता था कि जो जानकारी मुझे है वह हरेक के पास नहीं है। हम दुनिया को शिखर
पर बैठकर देख रहे थे। हमसे जो भी मिलता उसे जब पता लगता कि मैं पत्रकार हूँ तो वह
प्रशंसा-भाव से देखता था। उस दौर में पत्रकार होते ही काफी कम थे। बहुत कम शहरों
से अखबार निकलते थे। टीवी था ही नहीं। सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने के पहले या
इंटरवल में फिल्म्स डिवीजन के समाचार वृत्त दिखाए जाते थे, जिनमें
महीनों पुरानी घटनाओं की कवरेज होती थी। विजुअल मीडिया का मतलब तब कुछ नहीं था।
शहरों से शुरुआत
पर हम शहरों तक सीमित थे। कस्बों में कुछ
अंशकालिक संवाददाता होते थे, जो अक्सर शहर के प्रतिष्ठित वकील,
अध्यापक, समाज-सेवी होते थे। आज उनकी जगह
पूर्णकालिक लोग आ गए हैं। रॉबिन जेफ्री की किताब ‘इंडियाज़ न्यूज़पेपर रिवॉल्यूशन’
सन 2000 में प्रकाशित हुई थी। इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर आकर किसी ने
संजीदगी के साथ भारतीय भाषाओं के अखबारों की ख़ैर-ख़बर ली। पिछले दो दशक में
हिन्दी पत्रकारिता ने काफी तेजी से कदम बढ़ाए। मीडिया हाउसों की सम्पदा बढ़ी और
पत्रकारों का रसूख।
इंडियन एक्सप्रेस की पावरलिस्ट में मीडिया से
जुड़े नाम कुछ साल पहले आने लगे थे। शुरूआती नाम मालिकों के थे। फिर एंकरों के नाम
जुड़े। अब हिन्दी एंकरों को भी जगह मिलने लगी है। पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि
पत्रकारों को लेकर जिस ‘प्रशंसा-भाव’ का जिक्र मैंने पहले किया है, वह कम होने लगा है।
नया लोकतंत्र
रॉबिन जेफ्री ने किताब की शुरुआत करते हुए इस बात की ओर इशारा किया कि अखबारी क्रांति ने एक नए किस्म के लोकतंत्र को जन्म दिया है। उन्होंने 1993 में मद्रास एक्सप्रेस से आंध्र प्रदेश की अपनी एक यात्रा का जिक्र किया है। उनका एक सहयात्री एक पुलिस इंस्पेक्टर था। बातों-बातों में अखबारों की जिक्र हुआ तो पुलिस वाले ने कहा, अखबारों ने हमारा काम मुश्किल कर दिया है। पहले गाँव में पुलिस जाती थी तो गाँव वाले डरते थे। पर अब नहीं डरते। बीस साल पहले वह बात नहीं थी। तब सबसे नजदीकी तेलुगु अख़बार तकरीबन 300 किलोमीटर दूर विजयवाड़ा से आता था। सन 1973 में ईनाडु का जन्म भी नहीं हुआ था, पर 1993 में उस इंस्पेक्टर के हल्के में तिरुपति और अनंतपुर से अख़बार के संस्करण निकलते थे।