बजट आ गया, आपको कैसा लगा? कई मायनों में इसकी परीक्षा पूरे साल होगी। लंबे अरसे तक आम नागरिक बजट को महंगा-सस्ता की भाषा में समझता था। मध्य वर्ग की दिलचस्पी इनकम टैक्स तक होती थी, आज भी है। रेल बजट को लोग नई ट्रेनों की घोषणा और किराए-मालभाड़े में कमी-बेसी से ज्यादा नहीं समझते थे। इस लिहाज से इस बजट में कुछ भी नहीं है। इस साल के बजट का सार एक वाक्य में है, समस्याओं का हल है तेज आर्थिक संवृद्धि। संवृद्धि होगी, तो सरकार को टैक्स मिलेगा, सामाजिक कल्याण के काम किए जा सकेंगे। संवृद्धि के साथ यह भी देखना होगा कि राजकोषीय घाटा कितना है और कर्ज कितना है और कितना ब्याज देना है वगैरह। ब्याज दर ऊँची या नीची होना भी महत्वपूर्ण है। जीडीपी, घाटे और कर्ज को एकसाथ पढ़ना होगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था की गति और पूँजी-निवेश को भी।
अनेक चुनौतियाँ
वित्तमंत्री के सामने चुनौती है धीमी होती
वैश्विक अर्थव्यवस्था और बढ़ती ब्याज दरों के बीच तेज संवृद्धि को हासिल
करना। पर देखना होगा कि इस दौरान बेरोजगारी और महंगाई का सामना किस तरह से होगा। यह बात इसी साल सामने आ जाएगी। कुछ अपेक्षाएं या अंदेशे महामारी से भी जुड़े हैं, जिसकी तीसरी लहर के बीच यह बजट
आया है। पिछले साल जीडीपी में 6.6 फीसदी का संकुचन हुआ था, जिसे एडजस्ट करने के बाद देखें, तो
आज अर्थव्यवस्था महामारी से पहले यानी 2019-20 से
केवल एक फीसदी के आसपास ही बेहतर है। देश के पास उपभोग के साधन तकरीबन उतने ही या
उससे कम हैं, जितने 2019-20
में थे। बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, खाद्य-सुरक्षा,
जलवायु-परिवर्तन, पुष्टाहार, सार्वजनिक
स्वास्थ्य, शिक्षा, लैंगिक-विषमता
वगैरह-वगैरह की चुनौतियाँ ऊपर से हैं। हर सेक्टर की भारी अपेक्षाएं हैं और
राजनीतिक चुनौती अलग से।
बदलाव, जो दिखाई भी पड़ेंगे
इसबार का बजट अर्थव्यवस्था और राजनीति
दोनों चुनौतियों का सामना करता नजर आता है। इसमें दूर की बातें हैं, पर 2024 के
चुनाव के ठीक पहले नजर आने वाले कार्यक्रम भी हैं। हाईवे, पुल,
वंदे भारत ट्रेनें, डिजिटल इंडिया और 5-जी
जैसे कार्यक्रमों के परिणाम दो साल बाद दिखाई पड़ेंगे। वित्तमंत्री ने कुल 39.45 लाख करोड़ रुपये का बजट तैयार किया है, पर
कुल कमाई 22.84 करोड़ रुपये की है। निर्माण पर भारी
खर्च का मतलब है राजकोषीय घाटा। सवाल है कि वह कैसे पूरा होगा और बेरोजगारी तथा
बढ़ती महंगाई का सामना किस तरह से किया जाएगा? सरकार ने इस बीच मुफ्त अनाज दिया और मनरेगा के
माध्यम से काम भी दिया। कुछ रिकवरी हुई है, पर वह अधूरी और असंतुलित है।
राजकोषीय घाटा
कुल व्यय पर नियंत्रण के बावजूद शुद्ध बाजार उधारी 32.3 फीसदी बढ़कर 11.59 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी। बाजार से कर्ज लेने में रिजर्व बैंक के बॉण्ड मैनेजमेंट की परीक्षा भी होगी। कर्ज पर ब्याज बढ़ने से सरकार का हाथ तंग होगा। 2020-21 में कुल सरकारी खर्च में ब्याज की हिस्सेदारी 19 फीसदी थी। चालू वर्ष में यह 22 फीसदी से ज्यादा है और अगले साल 24 फीसदी तक हो सकती है। संसाधनों का एक चौथाई ब्याज में जाएगा। चालू वित्तवर्ष में राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 6.8 फीसदी था, जो 6.9 फीसदी हो जाएगा। अगले साल 6.4 फीसदी का लक्ष्य है। यह स्तर 2025-26 के लिए निर्धारित 4.5 फीसदी से दो फीसदी तक ज्यादा है, पर इसे हासिल किया जा सकता है।
भारी कैपेक्स
साढ़े सात लाख करोड़ रुपये का कैपेक्स यानी
पूंजीगत व्यय इस बजट का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। करीब दो लाख करोड़ रुपये का
पूंजीगत निवेश बढ़ाने और राज्यों के लिए एक लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि की
बात वित्तमंत्री ने कही है। हाईवे सेक्टर के लिए कुल आवंटन पिछले बजट के 1.18 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1.9
लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। अगले साल 25,000
किलोमीटर राजमार्ग बनाने का काम होगा। चालू वित्तवर्ष में यह लक्ष्य 12000 किलोमीटर का है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के लिए पिछले साल का
आवंटन 14,000 करोड़ रुपये था, जो इसबार 19,000 करोड़ है। नई पीढ़ी की वंदे भारत ट्रेनों के अलावा इस साल 2000 किलोमीटर रेल नेटवर्क पर स्वदेशी ‘कवच’ लगेगा, जो ट्रेनों की टक्कर रोकने वाली स्वदेशी तकनीक है।
बुनियादी ढाँचा
दूरगामी विकास के लिए बुनियादी ढांचे में भारी
निवेश की जरूरत है, लेकिन राजकोषीय स्थिति ऐसी नहीं है कि
सरकार इस क्षेत्र में निरंतर खर्च कर सके। पर सरकारी खर्च से ढाँचा तैयार होगा,
तो निजी निवेश भी आएगा। परिवहन को कृषि, शिक्षा
और स्वास्थ्य के संयुक्त बजट से अधिक आवंटन किया गया है। 3.8
करोड़ अतिरिक्त परिवारों को नल-जल मुहैया कराने के लिए जल जीवन मिशन के आवंटन में
काफी इजाफा किया गया है। रोजगार बढ़ाने का कोई सीधा कार्यक्रम नहीं है। अलबत्ता यह
माना गया है कि इंफ्रास्ट्रक्चर पर भारी खर्च से रोजगार पैदा होंगे।
सोशल सेक्टर
खाद्य सब्सिडी तथा ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना
पर खर्च को संशोधित बजट की तुलना में काफी कम हुआ है। सब्सिडी में 27 फीसदी की कमी है। ग्रामीण विकास में कोई वृद्धि नहीं है और कृषि में
केवल 2.5 प्रतिशत वृद्धि है। प्रधानमंत्री अन्न योजना
को अप्रैल 2022 से बंद किया गया, तो खाद्य सब्सिडी कम होगी। उर्वरकों और पेट्रोलियम उत्पादों के दाम
बढऩे पर सब्सिडी भी बढ़ेगी। 2020-21 में 13.32 करोड़ लोगों ने मनरेगा के तहत काम
माँगा ता, जिनमें से 13.29 करोड़ लोगों को काम मिला। चालू वित्त वर्ष में जनवरी के
पहले सप्ताह तकस11.30 करोड़ लोगों ने काम माँगा, जिनमें से 11.22 करोड़ लोगों को
काम मिला। साल के शेष तीन महीनों में भी माँग रहेगी। जाहिर है कि पिछले साल की
तुलना में माँग ज्यादा रही, इसलिए 2021-22 के संशोधित अनुमान में 25.5 प्रतिशत की
वृद्धि की गई। अगले वर्ष के मनरेगा आवंटन में 25
फीसदी कटौती कर दी गई है, यह मानते हुए कि माँग कम होगी। इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण
में तेजी आएगी, तो मनरेगा की माँग कम हो जाएगी।
कर राजस्व की चुनौती
कॉरपोरेट, व्यक्तिगत आयकर, कस्टम्स, एक्साइज और
जीएसटी इन पाँचों प्रमुख टैक्सों का राजस्व बढ़ा है। यानी कर-राजस्व बढ़ने के
बावजूद टैक्स-जीडीपी अनुपात चालू वर्ष के 10.8
फीसदी से घटकर 10.7 फीसदी रहने की आशा है, जो 2017-18 में
11.4 था। जीएसटी और आयकर दोनों में दरों को तार्किक बनाने का काम अभी बाकी है।
टैक्स-अनुपालन में सुधार और दायरे का विस्तार करने से जरूरी राजकोषीय राहत मिल
सकती है। जीएसटी-नीति केंद्रीय बजट के दायरे के बाहर है इसलिए सरकार ने सीमा शुल्क
के मोर्चे पर राजस्व जुटाने पर ध्यान केंद्रित किया। चालू वित्तवर्ष में कर राजस्व
में 23.8 प्रतिशत वृद्धि बजट अनुमान से काफी अधिक रही
है, फिर भी वित्तमंत्री ने अगले वर्ष महत्वाकांक्षी
लक्ष्य नहीं रखा है। शायद उनका उद्देश्य कम वायदे करना और बड़े नतीजे देना है।
बावजूद इसके बजट में राजस्व व्यय एक फीसदी से भी कम बढ़ाने की व्यवस्था है। शायद आकस्मिक
जरूरतें इस साल भी पैदा हो सकती हैं। इसलिए कुशन बना रहे।
विनिवेश लक्ष्य
निजीकरण नीति धीमी पड़ रही है। पिछले बजट में 1.75 लाख करोड़ रुपये का बहुत
ऊँचा लक्ष्य रखा गया था, जबकि संशोधित अनुमानों के मुताबिक केवल
78,000 करोड़ रुपये ही जुटाए जा सकेंगे। इस बार केवल 65,000 करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा गया है। जीवन बीमा निगम का आईपीओ आने
वाला है, पर भारत पेट्रोलियम का अगले साल भी बिकना मुश्किल लगता है। परिसंपत्तियों
के मुद्रीकरण और निजीकरण की योजना को पुष्ट करने की जरूरत है। विनिवेश के साथ
राजनीतिक जोखिम भी जुड़े हैं। सब बेच दिया, जैसे जुमले सुनाई पड़े हैं। बैंकों या
बीमा कंपनियों के निजीकरण का जिक्र बजट भाषण में नहीं है। निजीकरण शब्द की जगह भी
अब स्वामित्व का नीतिगत हस्तांतरण या साझेदारी जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो रहा
है। शेयर बाजार भी इस साल शायद उतना उत्साहित नहीं रहेगा, जितना चालू वर्ष में
हैं। इससे भी विनिवेश की गति धीमी रहने का अंदेशा है।
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