वैश्विक-राजनीति और भारतीय विदेश-नीति के नज़रिए से इस हफ्ते की तीन घटनाएं ध्यान खींचती हैं। इन तीनों परिघटनाओं के दीर्घकालीन निहितार्थ हैं, जो न केवल सामरिक और आर्थिक घटनाक्रम को प्रभावित करेंगे, बल्कि वैश्विक-स्थिरता और शांति के नए मानकों को निर्धारित करेंगे। इनमें पहली घटना है, ताजिकिस्तान की राजधानी दुशान्बे में हुआ शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन। दूसरी परिघटना है ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के बीच हुआ सामरिक समझौता ‘ऑकस’।
तीसरी परिघटना और है, जिसकी तरफ मीडिया का
ध्यान अपेक्षाकृत कम है।‘ऑकस’ घोषणा के अगले ही दिन चीन ने ट्रांस
पैसिफिक पार्टनरशिप में शामिल होने की अर्जी दी है। अब दुनिया का और खासतौर से
भारतीय पर्यवेक्षकों का ध्यान अगले सप्ताह अमेरिका में क्वॉड के पहले रूबरू शिखर
सम्मेलन और फिर संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक पर होगा। इस बैठक का महत्व
प्रचारात्मक होता है, पर हाशिए पर होने वाला मेल-मिलाप महत्वपूर्ण होता है।
अफगान समस्या
दुनिया के सामने इस समय अफगानिस्तान बड़ा मसला है। इस लिहाज से दुशान्बे सम्मेलन का महत्व है। एससीओ का जन्म 2001 में 9/11 के कुछ सप्ताह पहले उसी साल हुआ था, जिस साल अमेरिका ने तालिबान के पिछले शासन के खिलाफ कार्रवाई की थी। इसके गठन के पीछे चीन की बुनियादी दिलचस्पी मध्य एशिया के देशों और रूस के साथ अपनी सीमा के प्रबंधन को लेकर थी। खासतौर से 1991 में सोवियत संघ का विघटन होने के बाद मध्य एशिया के नवगठित देशों में स्थिरता की जरूरत थी। पर अब उसका दायरा बढ़ रहा है। इस समय अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने में इसकी भूमिका देखी जा रही है।
रूस और चीन इस समय वैश्विक-राजनीति में आपसी
सहयोग कर रहे हैं, खासतौर से अफगानिस्तान में। दुशान्बे सम्मेलन से एक सप्ताह पहले
दिल्ली में ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन हुआ है, जिसमें भारत, रूस और चीन शामिल हैं।
एक हफ्ते में घटनाक्रम में कोई नाटकीय बदलाव नहीं आया है, पर यह समझ में आ रहा है
कि अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने में चीन और रूस कोई बड़ी पहल करने की स्थिति
में नहीं हैं।
पाकिस्तानी भूमिका
भारत और पाकिस्तान भी इसके सदस्य हैं, इसलिए
दुशान्बे सम्मेलन के वक्तव्यों पर ध्यान देने की जरूरत है। भारत को सबसे बड़ी
आशंका अफगानिस्तान में पाकिस्तानी भूमिका को लेकर है। सम्मेलन के वर्चुअल-संवाद
में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि क्षेत्र में शांति एवं सुरक्षा से जुड़ी
सबसे बड़ी चुनौतियों के मूल में कट्टरपंथी विचारधारा है। उन्होंने कहा, अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता परिवर्तन समावेशी नहीं है और यह बिना
बातचीत के हुआ है।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भी माना कि
तालिबान-सरकार समावेशी और प्रतिनिधित्व आधारित नहीं है। पर शी चिनफिंग ने कहा कि
समावेशी राजनीतिक ढांचे को कायम करने के लिए नए शासकों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
सच यह है कि चीन के साथ तालिबान का सम्पर्क काबुल पर कब्जा होने के पहले से है।
बावजूद इसके चीन पुनर्निर्माण का जोखिम मोल नहीं लेगा। उसकी दीर्घकालीन दिलचस्पी
अफगानिस्तान में जरूर है, पर वह सावधानी बरतेगा। पाकिस्तान का इस्तेमाल भी करेगा,
पर सफलता मिलेगी या नहीं, कहना मुश्किल है।
वैश्विक-मान्यता
प्रधानमंत्री मोदी की बात से नई व्यवस्था को भारतीय-मान्यता
से जुड़ी संभावित दिक्कतों का अंदाजा लगा सकते हैं। मान्यता देने में भारत अकेला
नहीं होगा। सम्भवतः भारत का फैसला विश्व के लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा। चीनी
राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा है कि बाहरी ताकतों को कभी किसी दूसरे देश में
हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। उधर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान
ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान को अकेला छोड़ देने से गृह-युद्ध की स्थिति पैदा हो सकती
है। इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ोसी देशों पर पड़ेगा।
अफगानिस्तान में पाकिस्तानी भूमिका को लेकर
अमेरिका ने अपने संदेह साफ-साफ प्रकट कर दिए हैं। विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने पिछले
हफ्ते अपनी संसद में कहा कि हम पाकिस्तान से अपने रिश्तों पर पुनर्विचार कर रहे
हैं। उधर दुशान्बे में जो संयुक्त घोषणापत्र जारी हुआ है, उसमें कहा गया है कि अफगानिस्तान
को आतंकवाद, युद्ध और मादक पदार्थों से मुक्त स्वतंत्र,
लोकतांत्रिक एवं शांतिपूर्ण देश बनना चाहिए। और यह भी कि युद्धग्रस्त
इस देश में ‘समावेशी’ सरकार का होना महत्वपूर्ण है। अंतरिम सरकार में पश्तूनों
का वर्चस्व है और इसमें कोई महिला नहीं है।
दुशान्बे के बाद इतना स्पष्ट है कि तालिबान
सरकार को मान्यता देने में चीन और रूस पहल नहीं करेंगे। वे जल्दबाजी में अपने पैर
फँसाने के बजाय इंतजार करेंगे। अलबत्ता वे नई अफगान सरकार से सम्पर्क जरूर बनाए
रखेंगे। मान्यता के लिए अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र की पहल का इंतजार करेंगे। उन्हें
इस इलाके से अमेरिकी सेनाओं के हटने पर खुशी है, पर तालिबानी-व्यवस्था को लेकर
पूरी तरह आश्वस्त भी नहीं हैं।
एक और गठबंधन
अफगानिस्तान से अमेरिका के हटने के पीछे दो
कारण हैं। एक तो अमेरिकी सामर्थ्य घट रही है। वह संसाधन झोंकने की स्थिति में नहीं
है। दूसरे उसे चीन से खतरा दिखाई पड़ रहा है, जिसके लिए उसने हिंद-प्रशांत क्षेत्र
पर ध्यान केंद्रित किया है। इस लिहाज से ‘ऑकस’ की
स्थापना महत्वपूर्ण है। यह दाँव चीन को चित्त करने के इरादे से खेला गया है।
हफ़्ते भर पहले अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग
से फ़ोन पर बात की थी और कहा कि दोनों देशों के बीच बातचीत जारी रखनी चाहिए। उस
बातचीत के एक सप्ताह बाद ही अमेरिका, ब्रिटेन और
ऑस्ट्रेलिया ने यह महत्वपूर्ण रक्षा समझौता किया है।
ऑकस यानी ऑस्ट्रेलिया, यूके
और यूएस। इन तीनों देशों का यह समझौता हिंद-प्रशांत क्षेत्र को कवर करेगा। इस करार
के तहत रॉयल ऑस्ट्रेलियाई नौसेना के लिए परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियों का
निर्माण किया जाएगा। इस समझौते को लेकर चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि अब
नाभिकीय पनडुब्बियों का बुखार पूरी दुनिया को चढ़ेगा। ऑस्ट्रेलिया, परमाणु अप्रसार संधि के पक्ष में है। एक ग़ैर-परमाणु देश के पास
नाभिकीय शस्त्रों का होना वैश्विक-राजनीति में पेच पैदा करेगा। ऑस्ट्रेलिया उन सात
देशों की लिस्ट में शामिल हो जाएगा, जिनके पास नाभिकीय
पनडुब्बियाँ होंगी। इससे पहले अमेरिका, ब्रिटेन,
फ़्रांस, चीन, भारत
और रूस के पास ही यह तकनीक थी।
ऑकस क्यों?
ऑकस को लेकर एक सवाल यह भी कि 'क्वॉड' समूह के होते हुए अमेरिका को इसकी
ज़रूरत क्यों पड़ी? वस्तुतः ऑकस सामरिक समझौता है। क्वॉड
में रक्षा-सहयोग तो है, पर वह नेटो की तरह का सामरिक-गठबंधन नहीं है। क्वॉड में
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के साथ-साथ जापान और भारत भी है।
भारत और जापान के कुछ संशय हैं। भारत की दिलचस्पी रूस और ईरान के साथ भी रिश्ते
बनाने की है। जापान के चीन के साथ अच्छे व्यापारिक रिश्ते हैं। चीन की बीआरआई
परियोजना में भी जापान का सहयोग है।
चीन के साथ जापान सारे संबंध ख़त्म नहीं करना
चाहता है। दूसरी तरफ भारत नहीं चाहता कि उसे अमेरिका के सामरिक सहयोगी के रूप में
देखा जाए। अब इस समझौते के साथ ऑस्ट्रेलिया ने ख़ुद को चीन का सीधा विरोधी बना
लिया है। 50 साल में यह पहली बार है जब अमेरिका अपनी पनडुब्बी तकनीक किसी देश से
साझा कर रहा है। इससे पहले अमेरिका ने केवल ब्रिटेन के साथ यह तकनीक साझा की थी। पनडुब्बी
नहीं उसपर नाभिकीय मिसाइलों का होना ज्यादा महत्वपूर्ण होगा।
ऑकस की घोषणा के अगले दिन ही चीन ने ट्रांस
पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) में शामिल होने के लिए अर्जी दी है। यह समझौता
अमेरिकी पहल पर ही हुआ था, पर 2017 में डोनाल्ड ट्रंप की सरकार इस समझौते से बाहर
निकल गई। यह व्यापारिक समूह मूल रूप में चीन को घेरने की रणनीति के रूप में बना
था, जिसका इस्तेमाल अब चीन जवाबी रणनीति में करेगा। इन बातों के निहितार्थ कुछ समय
बाद पता लगेंगे।
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