कुछ महीने पहले का अफगानिस्तान |
अमेरिका ने अफगानिस्तान में पिछले दो साल में दो ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा रकम खर्च की। हासिल क्या किया? उसके पहले रूस ने भी करीब एक दशक तक यहाँ अपनी सेना रखी। पाकिस्तान करीब चार दशक से अफगानिस्तान में किसी न किसी शक्ल में उपस्थित है। भारत ने पिछले बीस साल में वहाँ करीब तीन अरब डॉलर का निवेश किया है। इन सबके साधनों को जोड़ा जाए, तो लगता है कि इतनी रकम से अफगानिस्तान का समाज न केवल स्वस्थ, सुशिक्षित और कल्याणकारी बनता, बल्कि दक्षिण और मध्य एशिया में प्रगति की राहें खोलता। एक तरफ धार्मिक संकीर्णता और दूसरी तरफ दबदबा बनाए रखने की साम्राज्यवादी मनोकामना और अपने-अपने देशों के हित साधने की कोशिशें किसी समाज को कहाँ से कहाँ ले जाती हैं, इसका बहुत अच्छा नमूना अफगानिस्तान है। अफसोस यह इक्कीसवीं सदी में हुआ है।
इन
देशों के मीडिया की अफगानिस्तान-कवरेज पर भी ध्यान दें। लोगों की प्रतिक्रिया
सुनें। ऐसे में मजाज़ की दो लाइनें याद आती हैं, ‘बहुत मुश्किल
है दुनिया का सँवरना/ तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है।’ आपको समझ में आएगा कि दुनिया को समझना
कितना मुश्किल काम है। पाकिस्तान के डॉन न्यूज के एक कार्यक्रम में बताया जा रहा
था कि अफगानिस्तान में किस तरह से जीवन तकरीबन ठप हो गया है और जनता बुरी तरह
परेशान है। बिजली नहीं, पानी नहीं, दुकानों पर सामान नहीं, घरों में पानी नहीं,
एटीएम बंद, जेब में पैसा नहीं वगैरह-वगैरह। चैनल के रिपोर्टर ने लोगों से बात की
तो उन्होंने परेशानियाँ बताईं।
जब बातें हो रही थीं, तब बंदूकधारी तालिबान पास में खड़े थे। लोगों ने तालिबान के आने पर ख़ुशी जाहिर की। कहा, अब चोरियाँ नहीं हो रही हैं। क्या चोरियाँ अफगानिस्तान की समस्या थी? पाकिस्तान में तो हो ही रही है, भारत में भी तालिबानी-क्रांति की तारीफ हो रही है। सजा देने के उनके तरीके का जिक्र हो रहा है, उनकी ईमानदारी के किस्से हैं। लड़कियों के पहनावे और उनकी पढ़ाई और नौकरी को लेकर बातें हो रही हैं। जो तालिबान विरोधी हैं, वे उसमें दोष खोज रहे हैं और जो समर्थक हैं, उन्हें उनमें अच्छाइयाँ नजर आ रही हैं।
भारत में जमीयत उलेमा ए हिंद के अध्यक्ष
मौलाना अरशद मदनी ने पिछले रविवार को कहा कि स्कूलों में को-एजुकेशन
नहीं होनी चाहिए। लड़के और लड़कियों को अलग-अलग स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजा
जाना चाहिए। इस बयान को लेकर बहस शुरू हो गई है। यह बहस किसी तर्क, सिद्धांत या
तथ्यों के धार पर होती, तो बात भी थी। सीधे-सीधे धार्मिक भावनाओं को बचाने या उनपर
चोट करने के इरादे से होने लगी। सामाजिक बहस का होना अच्छी बात है, पर बहस तभी तक
उपयोगी होगी, जब हम खुले मन और बेहतरी के इरादे से करेंगे।
फेसबुक पर किसी ने अपने शहर का उदाहरण दिया,
जहाँ आज से नहीं काफी पहले से लड़के और लड़कियों के अलग-अलग स्कूल हैं। इस बात के
तमाम उदाहरण हैं, जब सह-शिक्षा के कारण सांस्कृतिक-भटकाव हुआ। बेहतर हो कि इन
कारणों के तफसील में जाएं और समझें कि इस व्यवस्था में
उपयोगी क्या है और इसके खतरे क्या हैं। इसके इतिहास को जानें और समझें। भारत क्या
दुनियाभर में प्राचीन काल में सहशिक्षा नहीं थी। पर हम मध्ययुगीन समझ पर ही क्यों
चलें? उस दौर में पढ़ाई होती भी थी, तो घर में होती
थी। बुनियादी बात यह है कि लड़कियों को सार्वजनिक जीवन में भूमिका निभानी है या
नहीं? निभानी है, तो साथ-साथ पढ़ने से क्यों रोकें? तमाम बंदिशों के बाद भी क्या मध्ययुगीन समाज में व्यभिचार नहीं होता
था?
तालिबान एक मनोदशा का नाम है। सन 1996 की
तालिबानी व्यवस्था और अब बनाई जा रही व्यवस्था भी एक जैसी नहीं है। क्यों बदल रहे
हैं तालिबान? उनके डर से अफगानिस्तान के लाखों पढ़े-लिखे और
काबिल अफगान नागरिक देश छोड़कर भाग गए हैं। उनमें डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजर,
वैज्ञानिक, लेखक, पत्रकार, शिक्षक और तमाम ऐसे लोग हैं, जो सामाजिक-व्यवस्था के
लिए उपयोगी हैं। अफगानिस्तान को आधुनिक बनना है, तो उनकी जरूरत होगी।
यह बातें केवल मुसलमान तालिबान पर ही लागू नहीं
होती। इन्हें हिन्दू तालिबान पर भी लागू करना होगा। इन दिनों फिर से हुल्लड़बाजी,
हुड़दंग की खबरें आ रही हैं। हिन्दू प्रतीकों के आधार पर ठेला लगाने वालों और गैर-हिन्दू
छोटे कारोबारियों को धमकाया जा रहा है। यह गलत है और इसका विरोध होना चाहिए। विचार करना है, तो पूरे सामाजिक दायरे में विचार करें।
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