अमेरिकी विदेश विभाग ने जम्मू-कश्मीर में 15 देशों के
राजदूतों की यात्रा को ‘महत्वपूर्ण कदम’ बताया है। साथ ही यह भी कहा है कि
राज्य के राजनीतिक नेताओं का जेल में रहना और इलाके में इंटरनेट सेवाओं पर
पाबंदियाँ परेशान करती हैं। पिछले साल 5 अगस्त के बाद पहली बार
15 देशों के राजनयिकों ने 9 जनवरी को जम्मू-कश्मीर यात्रा की जिसमें अमेरिकी राजदूत कैनेथ
आई जस्टर भी शामिल थे। इन राजनयिकों ने कश्मीर में कई राजनीतिक पार्टियों के
प्रतिनिधियों, नागरिक संस्थाओं के सदस्यों और
सेना के शीर्ष अधिकारियों के साथ मुलाकात की। इस यात्रा को लेकर सरकार पर आरोप लगे
हैं कि यह ‘गाइडेड टूर’ है। बहरहाल अमेरिका की दक्षिण एवं मध्य एशिया की कार्यवाहक
सहायक सचिव एलिस जी वेल्स ने 11 जनवरी को उम्मीद जताई कि इस क्षेत्र में स्थिति
सामान्य होगी।
वेल्स इस हफ्ते 15 से 18 जनवरी तक भारत में थीं और उन्होंने रायसीना संवाद में
भी भाग लिया, जो विदेश-नीति के संदर्भ में भारत का सबसे महत्वपूर्ण अनौपचारिक मंच
बनता जा रहा है। इस मंच में ईरानी विदेशमंत्री जव्वाद जरीफ भी शामिल हुए। स्वाभाविक है कि इस
वक्त दुनिया का ध्यान अमेरिका-ईरान मामलों पर है, पर जम्मू-कश्मीर के बरक्स भी
घटनाक्रम बदल रहा है। एलिस वेल्स भारत-यात्रा पूरी करने के बाद पाकिस्तान जाने
वाली हैं।
लोकतंत्र और
विदेश-नीति
विदेशी राजदूतों
की कश्मीर-यात्रा के फौरन बाद 10 जनवरी को देश के सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर
में इंटरनेट पर पाबंदी हटाने की मांग वाली जनहित याचिका पर फैसला सुनाया। कोर्ट ने
कहा कि इंटरनेट को सरकार ऐसे अनिश्चित काल के लिए बंद नहीं कर सकती। इसके साथ ही
प्रशासन से पाबंदी लगाने वाले सभी आदेशों की एक हफ्ते के अंदर समीक्षा करने को कहा
गया है। लगता है कि इंटरनेट पर लगी पाबंदियाँ पूरी तरह या आंशिक रूप से अब हटेंगी।
मौसम बदल रहा है और उसके साथ ही आंतरिक राजनीतिक घटनाक्रम भी बदलेगा। सवाल है कि
विदेश-नीति के मोर्चे पर क्या होने वाला है?
पिछले साल 5
अगस्त को जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने और उसके बाद
नागरिकता संशोधन कानून को पास करने के बाद का एक अनुभव है कि आंतरिक राजनीति में
चलने वाली गतिविधियों का असर वैदेशिक सम्बंधों पर पड़ता है और विदेशी हस्तक्षेप की
सम्भावनाएं बढ़ती हैं। ऊपर से आर्थिक सुस्ती ने ‘कोढ़ में खाज’ का काम किया है। पिछले तीन दशक का अनुभव है कि नब्बे के दशक के आर्थिक
सुधारों के साथ-साथ वैश्विक मंच पर भारत का रसूख भी बढ़ा है। देश का विशाल
मध्यवर्ग और नया बनता और बढ़ता विशाल बाजार हमारी ताकत है। इनके कारण दुनिया के
देश हमें तारीफ भरी की नजरों से देखने लगे हैं। ऐसे में मॉब लिंचिंग, गोरक्षा के
नाम पर मारपीट, दलितों पर हमलों और बलात्कार की खबरों ने उस छवि को बिगाड़ना शुरू
कर दिया है।
कश्मीर में
पाबंदियों के कारण हमारी एक और छवि बिगड़ी है। वह है लोकतांत्रिक छवि। तीसरी
दुनिया के देशों में भारत लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा पैरोकार माना जाता
है। उस छवि को भी ठेस लगी है। जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी कैंपस में हुई हिंसा को
देखते हुए किसी को भी देश की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा पर अफसोस होगा। अचानक
भारतीय शिक्षा-प्रणाली वैश्विक मीडिया के लिए उपहास का विषय बन गई है। सन 1997 में
उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई हिंसा का भी दुनिया के मीडिया
ने इसी तरह उपहास उड़ाया था।
महाशक्ति बनता
देश
आर्थिक संवृद्धि
और सैनिक आधुनिकीकरण और अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील और फिर सामरिक समझौतों ने
भारत को महाशक्ति के रूप में ढालना शुरू कर दिया है। इसके साथ ही क्रिकेट, भारतीय
संगीत, भोजन, संस्कृति, पहनावे और सिनेमा ने हमारी सॉफ्ट पावर को स्थापित किया। इन
सबको एक साथ धक्का लग रहा है। बड़ी संख्या में भारतवंशी देश के बाहर हमारा
प्रतिनिधित्व करते हैं। वे भी भारत को शिखर पर स्थापित करने में मददगार हैं, पर
देश की आंतरिक राजनीति का प्रभाव भारतीय डायस्पोरा के खंडित स्वरूप में देखा जा
सकता है। जिन भारतवंशियों पर देश की बहुल गंगा-जमुनी संस्कृति को पेश करने की
जिम्मेदारी है, वे उसके संकीर्ण स्वरूप को पेश करने लगे हैं। यह बात चिंताजनक है।
भारत की पहचान एक बहुल संस्कृति
वाले देश के रूप में है, जो वैचारिक रूप से उदार है और दुनिया के सभी धर्म जहाँ
पाए जाते हैं। जिसने हजारों वर्षों से उत्पीड़ितों और सताए गए लोगों को शरण दी है।
हमें उस छवि को अपनी ताकत के रूप में पेश करना चाहिए। लम्बे अरसे तक भारत की छवि
सपेरों और भिखारियों के देश के रूप में थी। भारत एक महान संस्कृति का स्वामी है,
यह बात दुनिया को अच्छी तरह बताने वाली है। दूसरे विश्वयुद्ध तक हमारी छवि बहादुर
लड़ाकू सैनिक सप्लाई करने वाले देश की थी। हमारे समृद्ध साहित्य, दर्शन, कलाओं और
स्थापत्य से दुनिया का परिचय अभी अधूरा है। यह दशक भारत के नाम होना चाहिए, पर
हमारी नकारात्मक छवि इस काम में बाधा डाल रही है।
आइडिया ऑफ इंडिया
अर्थव्यवस्था के विस्तार ने दुनिया
को हमारे करीब लाने का मौका दिया है। वैश्वीकरण एक कारोबारी परिघटना है, पर उसके
सांस्कृतिक और राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। जरूरत इस बात की है कि हम अपने सवालों
के जवाब आंतरिक रूप से खोजें, पर देश के बाहर एकताबद्ध नजर आएं। पश्चिमी देशों में
पाकिस्तान के नागरिक भी भारतीय माने जाते हैं, क्योंकि वे भी उसी संस्कृति का
प्रतिनिधित्व करते हैं। हमारी यह छवि बनी रहनी चाहिए। यह चिंता भारत में ही नहीं
पाकिस्तान में भी व्यक्त की जा रही है। पाकिस्तानी अखबार ‘डॉन’ में गत 10 जनवरी के अंक में आसिम सज्जाद अख्तर का लेख है ‘इंडिया बर्न्स।’ उसमें तमाम अंदेशों को व्यक्त
किया गया है, साथ ही उन उम्मीदों को भी जो ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ हैं।
भारत के रिश्ते
इस समय अमेरिका, चीन, रूस और यूरोपीय संघ के साथ महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं। इनका एक
छोटा पहलू पाकिस्तान और कश्मीर को भी छूता है, पर ज्यादा बड़ा पहलू आर्थिक नीतियों
से जुड़ा है। भारत सरकार ने पाम तेल आयात पर नियंत्रण लगाने की घोषणा करके आक्रामक
विदेश नीति का संकेत दिया है। पाम ऑयल रिफाइनर्स एसोसिएशन ऑफ मलेशिया ने कहा कि
भारत द्वारा प्रतिबंध लगाने का मतलब यह है कि मलेशिया को अब भारत को कच्चा पाम तेल बेचने के लिए प्रतिस्पर्धा करनी होगी जिसमें इंडोनेशिया कीमत के लिहाज से ज्यादा किफायती रहा है। पिछले वर्ष इंडोनेशिया
को पीछे छोड़ मलेशिया भारत का सबसे बड़ा पाम तेल आपूर्तिकर्ता बन गया था। यह तेल राजनय केवल हिंद महासागर में नौसैनिक
गतिविधियों से भी जुड़ा है। हाल में भारत ने इंडोनेशिया में अपने युद्ध-पोतों के
लिए सुविधाएं हासिल की हैं।
आर्थिक सुस्ती
भारत की
अर्थव्यवस्था सुस्ती की शिकार है। आगामी बजट के पहले कई तरह के कयास हैं। भारत वर्तमान
वित्त वर्ष में चीन से पीछे छूट गया है। सरकार ने गत 7 जनवरी को जारी जीडीपी के
पहले अग्रिम अनुमान में मान लिया है कि चालू वर्ष में संवृद्धि दर महज 5 फीसदी
रहेगी। विश्व बैंक ने भी संभावना जताई है कि इस वित्त वर्ष में संवृद्धि दर पांच
फीसदी रहेगी, जबकि अक्तूबर में विश्व बैंक ने कहा था कि वित्त वर्ष भारत के जीडीपी
में छह फीसदी की ग्रोथ हो सकती है।
‘ग्लोबल इकोनॉमिक प्रॉस्पैक्ट्स रिपोर्ट’ में विश्व बैंक ने कहा
कि भारत की तुलना में पड़ोसी देश बांग्लादेश आगे रहेगा। उसकी जीडीपी विकास दर सात
प्रतिशत रहने का अनुमान है। भारतीय अर्थशास्त्री मानते हैं कि अगले वित्त वर्ष में
वृद्धि कुछ गति पकड़ सकती है, पर अमेरिका-ईरान के बीच तनाव से यह उम्मीद धुंधली हो
रही है। अमेरिका-ईरान की स्थिति पैदा न होती तो 2020-21 में वृद्धि दर 6 प्रतिशत
से ऊपर जा सकती है। सवाल है कि अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने में विदेश-नीति की
क्या भूमिका होगी? इससे जुड़ा दूसरा पहलू यह
है कि देश की आंतरिक राजनीति में अस्थिरता का असर वैदेशिक सम्बंधों पर भी पड़ेगा।
तीसरे अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को ठीक किए बगैर हम विश्व राजनीति में
प्रभावी भूमिका नहीं निभा पाएंगे।
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