येदियुरप्पा की पराजय के बाद सवाल है कि क्या
कर्नाटक-चुनाव की तार्किक परिणति यही थी? एचडी कुमारस्वामी की सरकार बन जाने के बाद क्या
मान लिया जाए कि कर्नाटक की जनता उन्हें राज्य की सत्ता सौंपना चाहती थी? इस सवाल
का जवाब मिलने में कुछ समय लगेगा, क्योंकि राजनीति में तात्कालिक परिणाम ही अंतिम नहीं
होते।
बीजेपी की दृष्टि से देखें तो कांग्रेस और
जेडीएस का गठबंधन अपवित्र है। येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों से
अंतरात्मा की आवाज पर समर्थन माँगा था, जिसमें विफल रहने के बाद उन्होंने इस्तीफा
दे दिया। उधर कांग्रेस-जेडीएस के नज़रिए से देखें, तो दो धर्मनिरपेक्ष दलों ने
साम्प्रदायिक भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन किया। यह राजनीति अब से लेकर 2019 के
चुनाव तक चलेगी। बीजेपी के विरोधी दल एक साथ आएंगे।
उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों के अंतर्विरोध हैं। बीजेपी
का पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। निर्दलीयों और अन्य दलों के सदस्यों की संख्या इतनी
नहीं थी कि बहुमत बन पाता। ऐसे में सरकार बनाने का दावा करने की कोई जरूरत नहीं
थी। अंतरात्मा की जिस आवाज पर वे कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को तोड़ने की
उम्मीद कर रहे थे, वह संविधान-विरोधी है। संविधान की दसवीं अनुसूची का वह उल्लंघन
होता। दल-बदल कानून अब ऐसी तोड़-फोड़ की इजाजत नहीं देता। कांग्रेस और जेडीएस ने
समझौता कर लिया था, तो राज्यपाल को उन्हें ही बुलाना चाहिए था। बेशक अपने
विवेकाधीन अधिकार के अंतर्गत वे सबसे बड़े दल को भी बुला सकते हैं, पर येदियुरप्पा
सरकार के बहुमत पाने की कोई सम्भावना थी ही नहीं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का
हस्तक्षेप सही हुआ।
कर्नाटक के बहाने राज्यपाल, स्पीकर और सुप्रीम
कोर्ट की भूमिकाओं को लेकर, जो विचार-विमर्श शुरू हुआ है, वह इस पूरे घटनाक्रम की
उपलब्धि है। कांग्रेस की याचिका पर अदालत में अब सुनवाई होगी और सम्भव है कि ऐसी
परिस्थिति में राज्यपालों के पास उपलब्ध विकल्पों पर रोशनी पड़ेगी कि संविधान की
मंशा क्या है। हमने ब्रिटिश संसदीय पद्धति को अपनाया जरूर है, पर उसकी भावना को
भूल चुके हैं। राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की राजनीतिक भूमिका को लेकर सवाल
उठते रहे हैं। कर्नाटक के राज्यपाल पहले नहीं हैं, जिनपर राजनीतिक तरफदारी का आरोप
लगा है। सन 1952 से लेकर अबतक अनेक मौके आए हैं, जब यह भूमिका खुलकर सामने आई है।
विधायिका के पीठासीन अधिकारियों के मामले में
आदर्श स्थिति यह होती है कि वे अपना दल छोड़ें। आदर्श संसदीय व्यवस्था में जब
स्पीकर चुनाव लड़े तो किसी राजनीतिक दल को उसके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा नहीं करना
चाहिए। हमारी संसद में चर्चा के दौरान जो अराजकता होती है, वह भी आदर्शों से मेल
नहीं खाती। कर्नाटक प्रकरण हमें इन सवालों पर विचार करने का मौका दे रहा है।
कर्नाटक का यह चुनाव सारे देश की निगाहों में था। इसके पहले शायद ही दक्षिण के
किसी राज्य की राजनीति पर पूरे देश की इतनी गहरी निगाहें रहीं हों। इस चुनाव की यह
उपलब्धि है। मेरा यह आलेख दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित हुआ है। इसका यह इंट्रो मैंने 20 मई की सुबह लिखा है। इस प्रसंग को ज्यादा बड़े फलक पर देखने का मौका अब आएगा।
हमें कोशिश करनी चाहिए कि यथा सम्भव तटस्थ रहकर
देखें कि इस चुनाव में हमने क्या खोया और क्या पाया। राजनीतिक शब्दावली में हमारे
यहाँ काफी प्रचलित शब्द है जनादेश। तो कर्नाटक में जनादेश क्या था? कौन जीता और
कौन हारा? चूंकि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो किसी की जीत
नहीं है। पर क्या हार भी किसी की नहीं हुई? चुनाव में विजेता की
चर्चा होती है, हारने वाले की चर्चा भी तो होनी चाहिए। गठबंधन की सरकार बनी, पर यह
चुनाव बाद का गठबंधन है।