नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्राओं को भारतीय राजनीति अपने तरीके से देखती है।
उनके समर्थक और विरोधी अपने-अपने तरीके से उनका आकलन करते हैं, पर दुनिया के देशों
में उन्हें सफल प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। उन्हें ऊर्जा, गति और
भारत की उम्मीदों के साथ जोड़ा जा रहा है। संयोग से वे ऐसे दौर में भारत के
प्रधानमंत्री बने हैं जब दुनिया को भारत की जरूरत है। एक तरफ चीन की अर्थ-व्यवस्था
की तेजी खत्म हो रही है और यूरोप तथा लैटिन अमेरिकी देश किसी तरह अपना काम चला रहे
हैं भारतीय अर्थ-व्यवस्था क्रमशः गति पकड़ रही है।
प्रधानमंत्री का पाँच देशों का दौरा विदेश नीति के निर्णायक मोड़ का संकेत भी
कर रहा है। इस यात्रा के तमाम पहलू दक्षिण
एशिया के बाहर रहे, पर केन्द्रीय सूत्र दक्षिण एशिया की आर्थिक और राजनीतिक
व्यवस्था से ही जुड़ा था। इस यात्रा का हर पड़ाव महत्वपूर्ण था, पर स्वाभाविक रूप
से सबसे ज्यादा ध्यान अमेरिका यात्रा ने खींचा। दो साल के अपने कार्यकाल में नरेंद्र मोदी दूसरी
बार अमेरिका के आधिकारिक दौरे पर यानी
ह्वाइट हाउस गए थे। अलबत्ता यह उनकी चौथी अमेरिका यात्रा था। अमेरिकी राष्ट्रपति
बराक ओबामा से यह उनकी सातवीं मुलाकात थी। इस दौरे में अमेरिकी संसद में उनका भाषण
भी एक महत्वपूर्ण बात थी।
भारत-अमेरिका
रिश्तों के दो अलग-अलग पहलू हैं। पहला है सामरिक और अंतरराष्ट्रीय मंच पर दोनों के
सम्बन्ध। इसमें चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के साथ रिश्ते सबसे अहम हैं। इसके
अलावा एशिया-प्रशांत और दक्षिण चीन सागर में भारत की भूमिका बढ़ रही है। सवाल है
कि क्या भारत पूरी तरह अमेरिका के पाले में जा रहा है? अभी तक भरत की ओर से ऐसी बात नहीं कही गई है। भारत
की कोशिश है कि वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति बनाकर रखे। पर वह चीन के बरक्स अब
ज्यादा आक्रामक रुख अपना रहा है। दोनों देशों के संयुक्त बयान में दक्षिण चीन सागर
का जिक्र नहीं है, पर समुद्री रास्तों को खुले रखने का जिक्र है। इसी तरह भारत के
पड़ोस में आतंकवाद का जिक्र है। ये दोनों बातें महत्वपूर्ण हैं।
ओबामा के
कार्यकाल का यह अंतिम वर्ष है। इस दौरे में भारत-अमेरिका संबंधों को सर्वाधिक
ऊंचाई तक जा पहुँचे हैं। अमेरिका ने भारत को बड़ा रक्षा साझीदार घोषित किया है।
इसके लिए अमेरिका की प्रतिनिधि सभा में एक विशेष विधेयक भी पेश किया गया है। दोनों
देशों के बीच लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज सपोर्ट मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट (लेमोआ) समझौते
को अंतिम रूप दे दिया गया है और इसके जल्द जारी होने की आशा है।
सन 2008 के
न्यूक्लियर डील के बाद अमेरिका ने भारत को चार महत्वपूर्ण ग्रुपों का सदस्य बनवाने
का वादा किया था। ये हैं, न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट और चौथा
ऑस्ट्रेलिया ग्रुप। ये चारों समूह सामरिक-तकनीकी विशेषज्ञता के लिहाज से
महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की
स्थायी सदस्यता दिलाने के लिए पूरा समर्थन देने का वादा किया है। पिछले छह साल से
अमेरिका की यह सुस्पष्ट नीति है। नवम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा
ने भारत यात्रा के दौरान पहली बार यह बात कही थी।
इस यात्रा के
दौरान यह स्पष्ट हो गया कि भारत मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम (एमटीसीआर) का
सदस्य बन जाएगा। न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बनने की प्रक्रिया चल रही
है, पर उसमें चीन ने अड़ंगा लगा दिया है। कहना मुश्किल है कि भारत को यह सदस्यता
अभी मिलेगी या नहीं, पर इसमें अमेरिका का सहयोग मिल रहा है इसमें दो राय नहीं। शेष
दो समूहों की सदस्यता मिलना काफी आसान है। पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की
स्थायी सदस्यता का सवाल आसानी से हल नहीं होगा। फिलहाल भारत को आधुनिक तकनीक से
जुड़े संगठनों में प्रवेश की जरूरत है, क्योंकि उसके बगैर हम तेज आर्थिक विकास
नहीं कर पाएंगे।
अमेरिका से
रिश्तों का दूसरा पहलू आर्थिक है। हमें नई तकनीक के अलावा बड़े स्तर पर विदेशी
पूँजी निवेश की जरूरत भी है। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय निवेश संधि (बायलेटरल
इनवेस्टमेंट ट्रीटी) की बात चल रही है, पर इस यात्रा में उसका उल्लेख नहीं हुआ है।
पर संकेत इस बात के हैं कि इस सिलसिले में बातचीत बढ़ेगी। इस बीच भारत ने अमेरिका
के जनरल इलेक्ट्रिक के साथ रेलवे के लिए डीजल इंजन बनाने का 2.6 अरब डॉलर का एक
अनुबंध किया है। इसके लिए बिहार के मरहोवरा में रेल इंजन कारखाना लगाया
जाएगा।
इस यात्रा में
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़े पेरिस समझौते को व्यावहारिक रूप देने की
दिशा में भी सहमति बनी है। अमेरिका चाहता है कि इसमें देशों की भागीदारी तेजी से
बढ़े, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन को कम करने के इस
समझौते के मंसूबे को कामयाब बनाने के लिए ज्यादा तादाद में प्रदूषण पैदा करने वाले
देशों द्वारा इसे जल्द कार्यान्वित किया जाना जरूरी है। चीन, कनाडा, मैक्सिको और ऑस्ट्रेलिया
ने इस वर्ष ही इसमें शामिल होने पर सहमति जताई है। हालांकि संयुक्त बयान में दोनों
देशों की और से पेरिस समझौते का जिक्र नहीं है, पर ओबामा के लिए पेरिस समझौता खासा
महत्वपूर्ण है।
राष्ट्रपति पद के
रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प ने घोषणा कर रखी है कि मैं सत्ता
में आया तो इस समझौते से हट जाऊँगा। ओबामा क्या इस समझौते की पुष्टि अपनी संसद से
करा पाएंगे, यह देखना होगा। अलबत्ता वे चाहते हैं कि भारत इस साल इसे स्वीकार करने
की घोषणा कर दे। भारत को इस सिलसिले में कई तरह के कानूनों को बदलना होगा। साथ ही
राज्यों से विचार-विमर्श करना होगा।
इस यात्रा के
दौरान भारत में वेस्टिंगहाउस के छह परमाणु रिएक्टर स्थापित करने का रास्ता भी साफ
हो गया है। सन 2008 के न्यूक्लियर डील का सबसे बड़ा निहितार्थ यह समझौता है। भारत
ने ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को रोकने के लिए नाभिकीय और सौर ऊर्जा का बड़ा
महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तैयार किया है।
इस दौरे में अफगानिस्तान, कतर, स्विट्ज़रलैंड और मैक्सिको
के पड़ावों का अपनी जगह महत्व है। सबसे महत्वपूर्ण है अफगानिस्तान के हेरात शहर के
पास बना सलमा बाँध। भारत द्वारा 1700 करोड़ रुपये की लागत से निर्मित इस
डैम को अफगान सरकार ने भारत- अफगानिस्तान मैत्री बांध का नाम दिया है। एक लम्बे
अर्से से इसे बनाने की कोशिशें की जा रहीं थी। आतंकवाद से घिरे इलाके में बाँध
बनाना अपने आप में साहस का काम है। इससे यह बात भी स्थापित हुई कि भारत चाहता है
कि इस इलाके का आर्थिक विकास हो।
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