एक स्टिंग ऑपरेशन
में कर्नाटक के कुछ विधायक राज्यसभा चुनाव में वोट के लिए पैसे माँगते देखे गए
हैं। इस मसले पर मीडिया में चर्चा बढ़ती कि तभी मथुरा में जमीन पर कब्जा छुड़ाने
की कोशिश में हुआ खून-खराबा खबरों पर छा गया। यह मामला खून-खराबे से ज्यादा खौफनाक
है। चुनाव आयोग ने पूरे मामले की जाँच शुरू कर दी है। आयोग क्या फैसला करेगा? और उससे होगा क्या? ज्यादा से ज्यादा चुनाव की
प्रक्रिया रद्द हो जाएगी। देश से भ्रष्टाचार दूर करने का संकल्प बगैर राजनीतिक
संकल्प के पूरा नहीं होगा। और जब राजनीति इतने खुलेआम तरीके से भ्रष्टाचार का
सहारा लेगी तो किसपर भरोसा किया जाए?
यह पहला स्टिंग ऑपरेशन नहीं है। अभी कुछ दिन पहले उत्तराखंड के मुख्यमंत्री का
एक स्टिंग ऑपरेशन हमने देखा। धूम-फिरकर एक जैसी बातें हैं। हम जिस उम्मीद और भरोसे
पर अपने प्रतिनिधियों को भेजते हैं, वह पूरी तरह गलत साबित हो चुकी है। राजनेताओं
को लेकर जनता की समझ एकदम साफ है। फिर भी वे जनता के बीच जब वोट माँगने आते हैं तब
उनकी आँखों में मुस्कान होती है और होंठों पर समाज सेवा के नारे। क्या यह लोकतंत्र
की विफलता है या कोई व्यवस्थागत दोष है?
अफसोस इस बात का है कि ये शिकायतें राज्यसभा के चुनाव को लेकर मिल रहीं हैं।
यह खांटी राजनीति से जुड़ा सदन नहीं है। हमें पहले इस सदन के महत्व को समझना
चाहिए। भारत में दूसरे सदन की उपयोगिता को लेकर संविधान सभा में काफी बहस हुई थी। आखिरकार
दो सदन वाली विधायिका का फैसला इसलिए किया गया क्योंकि इतने बड़े और विविधता वाले
देश के लिए संघीय प्रणाली में ऐसा सदन जरूरी था, जिसमें अलग-अलग राज्यों से
बेहतरीन प्रतिनिधि आएं।
धारणा यह भी थी कि सीधे चुनाव के आधार पर बनी एकल सभा देश के सामने आने वाली
चुनौतियों का सामना करने के लिए नाकाफी होगी। इसका चुनाव राज्यों की विधान सभाओं
के सदस्य करते हैं। चुनाव के अलावा राष्ट्रपति द्वारा सभा के लिए 12 सदस्यों के नामांकन
की भी व्यवस्था की गई है। यह सदन संतुलन बनाने वाला या
विधेयकों पर फिर से ग़ौर करने वाला पुनरीक्षण सदन है। सरकार में विशेषज्ञों की कमी
भी यह पूरी करता है, क्योंकि साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा से जुड़े कम से
कम 12 विशेषज्ञ इसमें मनोनीत होते ही हैं।
जवाहर लाल नेहरू ने सदन की ज़रूरत को बताते हुए लिखा है, "निचली सदन से जल्दबाजी में पास हुए विधेयकों की तेजी, उच्च सदन की ठंडी समझदारी से दुरुस्त हो जाएगी।" राजनीति में आदर्श अपनी
जगह होते हैं और व्यवहार अपनी जगह। हम हाल के वर्षों में हुए राज्यसभा चुनावों को
देखें तो पाएंगे कि इसमें कॉरपोरेट हाउसों की दिलचस्पी बढ़ रही है। इसके अलावा लगभग
सभी दलों के प्रत्याशी पार्टियों और नेताओं की व्यावहारिक जरूरतों के बरक्स तय
होते हैं।
दूसरी ओर हाल के वर्षों में यह सदन राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो गया है।
पिछले कुछ समय से सदन की उपादेयता का सवाल भी खड़ा हुआ है। इस दौर में सत्तारूढ़
पार्टी का लोकसभा में पूर्ण बहुमत है, पर राज्यसभा में अल्पमत। इस वजह से पिछले दो
साल में उसे अपने फैसलों को पास कराने में खासी दिक्कत आ रही है। खासतौर से जीएसटी
विधेयक और भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन कराने में उसे नाकों चने चबाने पड़ रहे
हैं।
अगले हफ्ते 57 सीटों के लिए चुनाव होना है। इनमें 17 पर भाजपा की जीत लगभग तय
है। उसके पास कुछ अतिरिक्त वोट भी हैं, जिनकी मदद से वह कुछ और सीटें जीतना
चाहेगी। साथ ही वह यह भी चाहेगी कि कांग्रेस अपने हिस्से से ज्यादा न ले जाए।
दूसरी ओर कांग्रेस की कोशिश है कि उसके अपने घोषित प्रत्याशियों के अलावा कुछ और
मिल जाए। पर इन चुनावों में वोटों का गणित सीधा-सीधा नहीं है। कुछ जगह पार्टियों
के पास दो-चार अतिरिक्त वोट होते हैं। और कई जगह उन्हें दो-एक अतिरिक्त वोट की
जरूरत होती है। पहली वरीयता के बाद दूसरी वरीयता के वोट होते हैं। ऐसे में
निर्दलीय या छोटे दलों के प्रत्याशियों की माँग बढ़ जाती है।
मसलन इस बार कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश से कपिल सिब्बल को मैदान में उतारा है।
उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए एक प्रत्याशी को 34 वोट चाहिए। कपिल सिब्बल
को जिताने के लिए कांग्रेस के पास 29 वोट हैं। उसे पाँच अतिरिक्त वोटों का इंतजाम
करना होगा। इस बीच एक निर्दलीय प्रत्याशी प्रीति महापात्रा भी मैदान में आ गईं
हैं। वे पैसे वाले घराने से ताल्लुक रखती हैं। बताते हैं कि उन्हें बीजेपी का
समर्थन हासिल है। बीजेपी के पास कुछ अतिरिक्त वोट हैं।
यूपी से 11 प्रत्याशी जीतकर जाएंगे, जबकि अब प्रत्याशी 12 हो गए हैं। इसका
मतलब है कि एक प्रत्याशी हारेगा। कर्नाटक में इस साल एक वोट की कीमत सात करोड़
रुपए बताई जा रही है। सवाल है कि इतने करोड़ रुपए देकर सदस्यता हासिल करने की
जरूरत क्या है?
इन चुनावों का इतिहास बताता है कि इसमें क्रॉस वोटिंग काफी होती है और पैसे का
खेल होता है। हाल के वर्षों में इस सदन में उद्योगपतियों के प्रतिनिधि आसानी से
प्रवेश पाते रहे हैं। यह सिर्फ संयोग नहीं कि विजय माल्या भी हाल तक इस सदन के
सदस्य रहे। कर्नाटक के स्टिंग ऑपरेशन ने एक तथ्य से पर्दा हटाया भर है। सच यह है
कि देशभर की कहानी यही है। राज्यसभा में अब बड़ी कम्पनियों से जुड़े लोगों,
उद्योगपतियों और नेताओं के मुकदमे लड़ने वाले वकीलों की तादाद बढ़ती जा रही है।
सन 2013 में समाचार एजेंसियों ने खबर दी कि राज्य सभा के एक सदस्य ने एक
कार्यक्रम में कहा था, “एक बार की बात है कि मुझे एक
व्यक्ति ने बताया कि राज्य सभा की सीट 100 करोड़ रुपए में मिलती है। उसने बताया कि
उसे खुद यह सीट 80 करोड़ रुपए में मिल गई, 20 करोड़ बच गए। मगर क्या वे लोग, जो 100 करोड़ खर्च करके यह सीट खरीदने के इच्छुक हैं, कभी इस गरीब देश के बारे में भी सोचेंगे?”
हालांकि बाद में सांसद ने इस बात को घुमा दिया, पर इस बात में सच का कुछ अंश
जरूर होगा। इस बात को स्टिंग ऑपरेशनों और जीतने वाले प्रत्याशियों के नामों के
देखकर विश्लेषण करेंगे तो आप भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे।
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