सुबह और शाम के रूपक हमें आत्म निरीक्षण का मौका देते हैं. गुजरते साल की शाम ‘क्या खोया, क्या पाया’ का हिसाब लगाती है और अगली सुबह उम्मीदों की किरणें लेकर आती है. पिछले साल दिसम्बर के अंत में यानी इन्हीं दिनों मुम्बई के कुछ नौजवानों ने तय किया कि कुछ अच्छा काम किया जाए. उन्होंने किंग्स सर्किल रेलवे स्टेशन को साफ-सुथरा बनाने का फैसला किया. शुरुआत एक गंदे किनारे से की. देखते ही देखते इस टीम का आकार बढ़ता चला गया. इस टीम ने इस साल इस स्टेशन की शक्ल बदल कर रख दी. उन्होंने न केवल स्टेशन की सफाई की, बल्कि दीवारों पर चित्रकारी की, रोशनी की और 100 पेड़ लगाए. गौरांग दमानी के नेतृत्व में वॉलंटियरों की इस टीम के सदस्यों की संख्या 500 के ऊपर पहुँच चुकी है.
Thursday, December 31, 2015
Thursday, December 24, 2015
संसद केवल शोर का मंच नहीं है
संसद के शीत सत्र को पूरी तरह धुला हुआ
नहीं मानें तो बहुत उपयोगी भी नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ वर्षों से हमारी संसद
राजनीतिक रोष और आक्रोश व्यक्त करने का मंच बनती जा रही है. वह भी जरूरी है, पर वह
मूल कर्म नहीं है. शीत सत्र में पहले दो
दिन गम्भीर विमर्श देखने को मिला, जब संविधान दिवस से जुड़ी चर्चा हुई. अच्छी-अच्छी
बातें करने के बाद के शेष सत्र अपने ढर्रे पर वापस लौट आया. सत्र के समापन के एक
दिन पहले जुवेनाइल जस्टिस विधेयक के पास होने से यह भी स्पष्ट हुआ कि हमारी
राजनीति माहौल के अनुसार खुद को बदलती है.
राजनीतिक दलों की दिलचस्पी होमवर्क में नहीं
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
संसद का शीत सत्र पूरी तरह नाकाम नहीं रहा. एक अर्थ में मॉनसून सत्र से बेहतर रहा पर उसे सफल कहना सही नहीं होगा. सरकार कुछ महत्वपूर्ण विधेयक पास नहीं करा पाई.
सवाल जीएसटी या ह्विसिल ब्लोवर जैसे क़ानूनों के पास न हो पाने का नहीं है. पूरे संसदीय विमर्श में गिरावट का भी है.
इस सत्र में दोनों सदनों ने संविधान पर पहले दो दिन की चर्चा को पर्याप्त समय दिया. यह चर्चा आदर्शों से भरी थी. उन्हें भुलाने में देर भी नहीं लगी.
संसदीय कर्म की गुणवत्ता केवल विधेयकों को पास करने तक सीमित नहीं होती. प्रश्नोत्तरों और महत्वपूर्ण विषयों पर भी निर्भर करती है.
देश में समस्याओं की कमी नहीं. संसद में उन्हें उठाने के अवसर भी होते हैं, पर राजनीतिक दलों की दिलचस्पी होमवर्क में नहीं है.
तमिलनाडु में भारी बारिश के कारण अचानक बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई. उस पर दोनों सदनों में चर्चा हुई. सूखे पर भी हुई.
महंगाई को 23 मिनट का समय मिला. इन दिनों दिल्ली में प्रदूषण की चर्चा है, पर संसद में कोई खास बात नहीं हुई. विसंगति है कि विधायिका और कार्यपालिका को जो काम करने हैं, वे अदालतों के मार्फ़त हो रहे हैं.
जुवेनाइल जस्टिस विधेयक पास हो गया. इसमें 16 साल से ज़्यादा उम्र के किशोर अपराधी पर जघन्य अपराधों का मुक़दमा चलाने की व्यवस्था है. किशोर अपराध के तमाम सवालों पर बहस बाक़ी है.
कांग्रेस ने लोकसभा में इसका विरोध किया था. अनुमान था कि राज्यसभा उसे प्रवर समिति की सौंप देगी.
इसके पहले शुक्रवार को सर्वदलीय बैठक में जिन छह विधेयकों को पास करने पर सहमति बनी थी उनमें इसका नाम नहीं था, पर मंगलवार को राज्यसभा में इस पर चर्चा हुई और यह आसानी से पास हो गया. कांग्रेस का नज़रिया तेजी से बदल गया.
वजह थी निर्भया मामले से जुड़े किशोर अपराधी की रिहाई के ख़िलाफ़ आंदोलन. यह लोकलुभावन राजनीति है. विमर्श की प्रौढ़ता की निशानी नहीं.
Sunday, December 20, 2015
इतनी तेजी में क्यों हैं केजरीवाल?
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने शुक्रवार को ट्वीट किया कि केंद्र सरकार उन सभी विरोधियों के खिलाफ सीबीआई का इस्तेमाल करने जा रही है जो बीजेपी की बात नहीं मानते। ट्वीट में केजरीवाल ने दावा किया कि यह बात उन्हें एक सीबीआई अधिकारी ने बताई है। प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने इन आरोपों को नकारते हुए कहा, केजरीवाल को सीबीआई के अधिकारी का नाम बताना चाहिए और सबूत देने चाहिए, पर नाम कौन बताता है? यह बात सच हो तब भी यह राजनीतिक बयान है। इसका उद्देश्य मोदी विरोधी राजनीति और वोटों को अपनी तरफ खींचना है।
केजरीवाल धीरे-धीरे विपक्षी एकता की राजनीति की अगली कतार में आ गए हैं। इस प्रक्रिया में एक बात तो यह साफ हो रही है कि केजरीवाल ‘नई राजनीति’ की अपनी परिभाषाओं से बाहर आ चुके हैं। वे अपने अंतर्विरोधों को आने वाले समय में किस तरह सुलझाएंगे, इसे देखना होगा। फिलहाल उनकी अगली परीक्षा पंजाब में है। शायद वे असम की वोट-राजनीति में भी शामिल होने की कोशिश करेंगे।
केजरीवाल धीरे-धीरे विपक्षी एकता की राजनीति की अगली कतार में आ गए हैं। इस प्रक्रिया में एक बात तो यह साफ हो रही है कि केजरीवाल ‘नई राजनीति’ की अपनी परिभाषाओं से बाहर आ चुके हैं। वे अपने अंतर्विरोधों को आने वाले समय में किस तरह सुलझाएंगे, इसे देखना होगा। फिलहाल उनकी अगली परीक्षा पंजाब में है। शायद वे असम की वोट-राजनीति में भी शामिल होने की कोशिश करेंगे।
अपने संरक्षकों की बेरुखी का शिकार नेशनल हेरल्ड
नेशनल हेरल्ड अख़बार को कांग्रेस पार्टी के उत्थान
और पतन के साथ जोड़कर भी देखा जाना चाहिए. सन 1938 में जब यह अख़बार शुरू हुआ था
देश में 11 प्रांतीय असेम्बलियों के पहली बार हुए चुनावों में से आठ में जीत हासिल
करके कांग्रेस ने अपनी धाक जमाई थी. और 2008 में जब यह बंद हुआ कांग्रेस का पराभव
शुरू हो चुका था.
अख़बार के मास्टहैड के ठीक नीचे उद्देश्य वाक्य लिखा रहता था, ‘फ्रीडम इज़ इन पेरिल, डिफेंड इट विद ऑल योर माइट-जवाहर लाल नेहरू’ (आज़ादी खतरे में है, अपनी पूरी ताकत से इसकी रक्षा करो). यह वाक्य एक
पोस्टर से उठाया गया था, जिसे सन 1939 में इंदिरा गांधी ने ब्रेंटफोर्ड,
मिडिलसेक्स से नेहरू जी को भेजा था. यह ब्रिटिश सरकार का पोस्टर था. नेहरू को यह
वाक्य इतना भा गया कि इसे उन्होंने अपने अख़बार के माथे पर चिपका दिया. दुर्भाग्य
है कि नेहरू के वारिस तमाम बातें करते रहे, पर वे इस अख़बार और उसके संदेश की
रक्षा करने में असफल रहे.
Tuesday, December 15, 2015
ग्लोबल इंडिया की खोज में
प्रमोद जोशी
First Published:06-09-2009 10:38:53 PMLast Updated:06-09-2009 10:39:10 PM
हमारे गाँवों के विकास की निशानी है, बिजली का बल्ब। जिस गाँव में बिजली का लट्टू जल जाय, समझ लो उसका विकास हो गया। पिछले मंगलवार को यूरोपियन यूनियन ने बिजली के इस बल्ब को हमेशा के लिए विदा कर दिया। नागरिक अधिकारवादियों के विरोध के बावजूद इसके इस्तेमाल पर पाबंदी लग गई। उन्नीसवीं सदी की वैज्ञानिक क्रांति के बाद जितने आविष्कार हुए, उनमें शायद यह लट्टू ही अकेला ऐसा था, जिसने तकरीबन अपने मूल रूप में इतनी लम्बी सेवा की।
करीब 120 साल की सेवा के बाद इसके रिटायर होने की एक वजह थी कि ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने में इसका बड़ा हाथ था। इसका उत्तराधिकारी सीएफएल इसकी तुलना में कम बिजली खर्च करता है और चलता भी ज्यादा है। परम्परागत बल्ब की सेवानिवृत्ति के बाद ईयू को आशा है कि करीब डेढ़ करोड़ टन कार्बनडाईऑक्साइड का उत्सजर्न कम होगा। सीएफएल के उत्तराधिकारी के रूप में एलईडी बल्ब भी तैयार हो रहा है। शायद कुछ दिन बाद वही जलता नजर आए। विडंबना है कि जो यूरोप में अवांछित है, वह भी हमें उपलब्ध नहीं।
माल्थस को अंदेशा था कि एक रोज दुनिया में इतनी खाद्य सामग्री नहीं होगी कि बढ़ती आबादी की जरूरत पूरी हो सके। उसके वक्त से ही बहस चली आ रही है कि क्या मानवीय समझ इतनी अच्छी है कि वह आसन्न संकटों का सामना करते हुए समानता, न्याय और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर आधारित खुशहाल समाज बना सके। बहरहाल उन्नीसवीं सदी की वैज्ञानिक क्रांति ने औद्योगीकरण और कृषि क्रांति का रास्ता साफ किया। वह संकट यूरोप का था। उसने ही उसका समाधान खोज। तकनीक और विज्ञान का विकास भी वहीं हुआ। पर आज वैश्वीकरण का दौर है।
वैश्वीकरण सिर्फ पूँजी का नहीं। हर चीज का। ग्लोबल वॉर्मिग का और स्वाइन फ्लू का। आर्थिक मंदी भी वैश्वीकृत है। फर्क इतना है कि हमारे जसे विकासशील देशों की भूमिका बढ़ गई है। पिछले हफ्ते विश्व व्यापार संगठन के वाणिज्य मंत्रियों की अनौपचारिक बैठक दिल्ली में होने का कारण इस बात को रेखांकित करना भी था कि भारत पर कुछ वैश्विक जिम्मेदारियाँ हैं। इस बैठक का औपचारिक अर्थ नवम्बर-दिसम्बर में जेनेवा में होने वाली बैठक के बाद समझ में आएगा। बल्कि सन् 2010 के अंत तक दोहा-चक्र पूरा होने पर पता लगेगा कि हम किधर जा रहे हैं। बहरहाल हमारे कंधों पर दुनिया बदलने का बोझ है, पर हम अभी बिजली के लट्टू के दौर में हैं।
दुनिया की राजनैतिक, व्यापारिक, मानसिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सीमाएं खुल रहीं हैं। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में जब हमने वैश्वीकरण शब्द का इस्तेमाल शुरू किया तब उसका अर्थ अमेरिकी संस्कृति और जीवन-शैली की वैश्विक स्वीकृति से था। फ्रांसिस फुकुयामा के इतिहास का अंत यहीं पर था। पर तबसे अब तक दो बड़ी घटनाएं हुईं। एक 9/11 और दूसरे वैश्विक मंदी। अल कायदा ने बताया कि आतंक का वैश्वीकरण भी सम्भव है। सम्भावना है कि पूँजी के वैश्विक विस्तार के विरोध में वश्विक जनांदोलन भी खड़ा होगा। पर उससे बड़ा वैश्वीकरण प्रकृति कर रही है। ग्लोबल वॉर्मिग, मौसम में बदलाव, बीमारियां, पीने के पानी और भोजन का संकट पूरी मानवता के प्रश्न हैं। इनके समाधान के लिए हमें अपनी चेतना का लेवल बढ़ाना चाहिए।
सन् 2008 ने बड़े स्तर पर खाद्य संकट देखा। इस संकट के पीछे फसलों के खराब होने के अलावा वैश्विक व्यापार की प्रवृत्तियां भी थीं। एक थी तेल के लिए वनस्पतियों का इस्तेमाल। पिछले साल पेट्रोलियम की कीमतों में जबर्दस्त इजाफे के साथ-साथ इथेनॉल जैसे एग्रोफ्यूल की ओर उत्पादकों का ध्यान गया। मक्का, सोया और पामऑयल का इस्तेमाल बायोफ्यूल के लिए होने लगा है। दूसरी ओर विश्व में मांसाहार बढ़ रहा है। अमेरिका के किसान सुअरों को खिलाने के लिए मक्का उगा रहे हैं। व्यापारिक कारण मानवीय कारणों पर हावी हो रहे हैं। खेती का कॉरपोरेटाइजेशन उत्पादकता को बढ़ाने में मददगार हो तो हर्ज नहीं, पर भोजन सबके लिए जरूरी है। ऐसा न हो कि गरीब भूखे रह जाएं।
अर्थव्यवस्था का काफी बड़ा हिस्सा या समूची अर्थव्यवस्था बाजार के हवाले हो इसमें भी हर्ज नहीं, पर साधनों के वितरण की व्यवस्था सामाजिक देखरेख में ही होगी। बाजार भी सामाजिक निगरानी में ही चल सकते हैं। फ्री मार्केट और फ्री ट्रेड का प्रतिफल पिछले साल अमेरिकन बैंकिंग में देखने को मिला। सामाजिक निगरानी की अभी जरूरत है। संयोग है कि अमेरिका जैसी फ्री इकॉनमी में उद्योगों को बचाने के लिए पिछले साल सरकार का सहारा लेना पड़ा। ओबामा सरकार जिन उम्मीदों पर आई है, वे टूटती जा रहीं हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य और बूढ़े लोगों की पेंशन व्यवस्था के लिए दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाना मुश्किल हो रहा है।
भारत जैसे देश कई मानों में बेहतर स्थिति में हैं। हम ऐसी तकनीक ला सकते हैं, जो पर्यावरण-मित्र हो। सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय की नई प्रणाली शुरू कर सकते हैं। हम ऐसे विज्ञान और तकनीक को बढ़ावा दे सकते हैं, जो हमारी समस्याओं का समाधान करे। उसके लिए नए ढंग से सोचने की जरूरत है। क्या हम नए ढंग से सोच पाते हैं? हमारा पूरा फिल्म उद्योग हॉलीवुड की नकल करने पर उतारू है। इतनी समृद्ध संगीत परम्परा के बावजूद धुनें नकल की हैं। उद्योग-व्यापार और प्रबंध के सारे मॉडल विदेशी हैं। मगर विकास, नियोजन, राजमार्ग, भवन निर्माण वगैरह की समझ पश्चिमी है। इसमें गलत कुछ नहीं। पश्चिम के पास तकनीक है तो वहां से लेनी चाहिए।
कुछ साल पहले प्रो. यशपाल ने शायद किसी प्रबंध संस्थान में देश भर में चलने वाले जुगाड़ की तारीफ की। तारीफ इसलिए नहीं कि उसकी तकनीक विलक्षण है, बल्कि इसलिए कि ऐसी मशीन जो पानी निकाल दे, बिजली बना दे। जरूरत पड़े तो ठेलागाड़ी बन जाय या नाव चला दे। यानी अपनी जरूरतों को पूरा करे। विज्ञान और तकनीक की यही भूमिका है। अपनी समस्याओं के अपने समाधान खोजने के लिए हमें वैचारिक क्रांति की जरूरत है।
दो साल पहले देश में रिटेल कारोबार का हल्ला था। आज उस कारोबार में मंदा हैं। इसलिए नहीं कि पूँजी कम पड़ गई। इसलिए कि रिटेल के देशी मॉडल के मुकाबले पश्चिमी सुपर मार्केट का बिजनेस मॉडल कमजोर है। आपके मुहल्ले का दुकानदार आपको जो सुविधाएं दे रहा है, उसके मुकाबले फैंसी स्टोर सिर्फ दिखावटी हैं। उसे आप देखने जाते हैं, खरीदारी करने नहीं। यही बाजार का नियम है। पश्चिम का जो ग्राह्य है, उसे जरूर लेना चाहिए। पर हमें आविष्कार करने चाहिए। हमारे माल्थस सवाल उठाएं और हमारे गैलीलियो विश्वदृष्टि के उपकरण दें।
pjoshi @hindustantimes. com
लेखक ‘हिन्दुस्तान’ में दिल्ली संस्करण के वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं।
6.9.2009 के हिन्दुस्तान में प्रकाशित
करीब 120 साल की सेवा के बाद इसके रिटायर होने की एक वजह थी कि ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने में इसका बड़ा हाथ था। इसका उत्तराधिकारी सीएफएल इसकी तुलना में कम बिजली खर्च करता है और चलता भी ज्यादा है। परम्परागत बल्ब की सेवानिवृत्ति के बाद ईयू को आशा है कि करीब डेढ़ करोड़ टन कार्बनडाईऑक्साइड का उत्सजर्न कम होगा। सीएफएल के उत्तराधिकारी के रूप में एलईडी बल्ब भी तैयार हो रहा है। शायद कुछ दिन बाद वही जलता नजर आए। विडंबना है कि जो यूरोप में अवांछित है, वह भी हमें उपलब्ध नहीं।
माल्थस को अंदेशा था कि एक रोज दुनिया में इतनी खाद्य सामग्री नहीं होगी कि बढ़ती आबादी की जरूरत पूरी हो सके। उसके वक्त से ही बहस चली आ रही है कि क्या मानवीय समझ इतनी अच्छी है कि वह आसन्न संकटों का सामना करते हुए समानता, न्याय और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर आधारित खुशहाल समाज बना सके। बहरहाल उन्नीसवीं सदी की वैज्ञानिक क्रांति ने औद्योगीकरण और कृषि क्रांति का रास्ता साफ किया। वह संकट यूरोप का था। उसने ही उसका समाधान खोज। तकनीक और विज्ञान का विकास भी वहीं हुआ। पर आज वैश्वीकरण का दौर है।
वैश्वीकरण सिर्फ पूँजी का नहीं। हर चीज का। ग्लोबल वॉर्मिग का और स्वाइन फ्लू का। आर्थिक मंदी भी वैश्वीकृत है। फर्क इतना है कि हमारे जसे विकासशील देशों की भूमिका बढ़ गई है। पिछले हफ्ते विश्व व्यापार संगठन के वाणिज्य मंत्रियों की अनौपचारिक बैठक दिल्ली में होने का कारण इस बात को रेखांकित करना भी था कि भारत पर कुछ वैश्विक जिम्मेदारियाँ हैं। इस बैठक का औपचारिक अर्थ नवम्बर-दिसम्बर में जेनेवा में होने वाली बैठक के बाद समझ में आएगा। बल्कि सन् 2010 के अंत तक दोहा-चक्र पूरा होने पर पता लगेगा कि हम किधर जा रहे हैं। बहरहाल हमारे कंधों पर दुनिया बदलने का बोझ है, पर हम अभी बिजली के लट्टू के दौर में हैं।
दुनिया की राजनैतिक, व्यापारिक, मानसिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सीमाएं खुल रहीं हैं। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में जब हमने वैश्वीकरण शब्द का इस्तेमाल शुरू किया तब उसका अर्थ अमेरिकी संस्कृति और जीवन-शैली की वैश्विक स्वीकृति से था। फ्रांसिस फुकुयामा के इतिहास का अंत यहीं पर था। पर तबसे अब तक दो बड़ी घटनाएं हुईं। एक 9/11 और दूसरे वैश्विक मंदी। अल कायदा ने बताया कि आतंक का वैश्वीकरण भी सम्भव है। सम्भावना है कि पूँजी के वैश्विक विस्तार के विरोध में वश्विक जनांदोलन भी खड़ा होगा। पर उससे बड़ा वैश्वीकरण प्रकृति कर रही है। ग्लोबल वॉर्मिग, मौसम में बदलाव, बीमारियां, पीने के पानी और भोजन का संकट पूरी मानवता के प्रश्न हैं। इनके समाधान के लिए हमें अपनी चेतना का लेवल बढ़ाना चाहिए।
सन् 2008 ने बड़े स्तर पर खाद्य संकट देखा। इस संकट के पीछे फसलों के खराब होने के अलावा वैश्विक व्यापार की प्रवृत्तियां भी थीं। एक थी तेल के लिए वनस्पतियों का इस्तेमाल। पिछले साल पेट्रोलियम की कीमतों में जबर्दस्त इजाफे के साथ-साथ इथेनॉल जैसे एग्रोफ्यूल की ओर उत्पादकों का ध्यान गया। मक्का, सोया और पामऑयल का इस्तेमाल बायोफ्यूल के लिए होने लगा है। दूसरी ओर विश्व में मांसाहार बढ़ रहा है। अमेरिका के किसान सुअरों को खिलाने के लिए मक्का उगा रहे हैं। व्यापारिक कारण मानवीय कारणों पर हावी हो रहे हैं। खेती का कॉरपोरेटाइजेशन उत्पादकता को बढ़ाने में मददगार हो तो हर्ज नहीं, पर भोजन सबके लिए जरूरी है। ऐसा न हो कि गरीब भूखे रह जाएं।
अर्थव्यवस्था का काफी बड़ा हिस्सा या समूची अर्थव्यवस्था बाजार के हवाले हो इसमें भी हर्ज नहीं, पर साधनों के वितरण की व्यवस्था सामाजिक देखरेख में ही होगी। बाजार भी सामाजिक निगरानी में ही चल सकते हैं। फ्री मार्केट और फ्री ट्रेड का प्रतिफल पिछले साल अमेरिकन बैंकिंग में देखने को मिला। सामाजिक निगरानी की अभी जरूरत है। संयोग है कि अमेरिका जैसी फ्री इकॉनमी में उद्योगों को बचाने के लिए पिछले साल सरकार का सहारा लेना पड़ा। ओबामा सरकार जिन उम्मीदों पर आई है, वे टूटती जा रहीं हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य और बूढ़े लोगों की पेंशन व्यवस्था के लिए दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाना मुश्किल हो रहा है।
भारत जैसे देश कई मानों में बेहतर स्थिति में हैं। हम ऐसी तकनीक ला सकते हैं, जो पर्यावरण-मित्र हो। सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय की नई प्रणाली शुरू कर सकते हैं। हम ऐसे विज्ञान और तकनीक को बढ़ावा दे सकते हैं, जो हमारी समस्याओं का समाधान करे। उसके लिए नए ढंग से सोचने की जरूरत है। क्या हम नए ढंग से सोच पाते हैं? हमारा पूरा फिल्म उद्योग हॉलीवुड की नकल करने पर उतारू है। इतनी समृद्ध संगीत परम्परा के बावजूद धुनें नकल की हैं। उद्योग-व्यापार और प्रबंध के सारे मॉडल विदेशी हैं। मगर विकास, नियोजन, राजमार्ग, भवन निर्माण वगैरह की समझ पश्चिमी है। इसमें गलत कुछ नहीं। पश्चिम के पास तकनीक है तो वहां से लेनी चाहिए।
कुछ साल पहले प्रो. यशपाल ने शायद किसी प्रबंध संस्थान में देश भर में चलने वाले जुगाड़ की तारीफ की। तारीफ इसलिए नहीं कि उसकी तकनीक विलक्षण है, बल्कि इसलिए कि ऐसी मशीन जो पानी निकाल दे, बिजली बना दे। जरूरत पड़े तो ठेलागाड़ी बन जाय या नाव चला दे। यानी अपनी जरूरतों को पूरा करे। विज्ञान और तकनीक की यही भूमिका है। अपनी समस्याओं के अपने समाधान खोजने के लिए हमें वैचारिक क्रांति की जरूरत है।
दो साल पहले देश में रिटेल कारोबार का हल्ला था। आज उस कारोबार में मंदा हैं। इसलिए नहीं कि पूँजी कम पड़ गई। इसलिए कि रिटेल के देशी मॉडल के मुकाबले पश्चिमी सुपर मार्केट का बिजनेस मॉडल कमजोर है। आपके मुहल्ले का दुकानदार आपको जो सुविधाएं दे रहा है, उसके मुकाबले फैंसी स्टोर सिर्फ दिखावटी हैं। उसे आप देखने जाते हैं, खरीदारी करने नहीं। यही बाजार का नियम है। पश्चिम का जो ग्राह्य है, उसे जरूर लेना चाहिए। पर हमें आविष्कार करने चाहिए। हमारे माल्थस सवाल उठाएं और हमारे गैलीलियो विश्वदृष्टि के उपकरण दें।
pjoshi @hindustantimes. com
लेखक ‘हिन्दुस्तान’ में दिल्ली संस्करण के वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं।
6.9.2009 के हिन्दुस्तान में प्रकाशित
Monday, December 14, 2015
राजनीति की फुटबॉल बना समान कानून का मसला
सन 1985 में शाहबानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद राजीव गांधी की कांग्रेस पार्टी ने पचास के दशक की जवाहर लाल नेहरू जैसी दृढ़ता दिखाई होती तो शायद राष्ट्रीय राजनीति में साम्प्रदायिकता की वह भूमिका नहीं होती, जो आज नजर आती है। दुर्भाग्य से समान नागरिक संहिता की बहस साम्प्रदायिक राजनीति की शिकार हो गई और लगता नहीं कि लम्बे समय तक हम इसके बाहर आ पाएंगे। इस अंतर्विरोध की शुरुआत संविधान सभा से ही हो गई थी, जब इस मसले को मौलिक अधिकारों से हटाकर नीति निर्देशक तत्वों का हिस्सा बनाया गया। यह सवाल हमारे बीच आज भी कायम है तो इसकी वजह है हमारे सामाजिक अंतर्विरोध और राजनीतिक पाखंड। राजनीतिक दलों ने प्रगतिशीलता के नाम पर संकीर्णता को ही बढ़ावा दिया। यह बात समझ में आती है कि सामाजिक बदलाव के लिए भी समय दिया जाना चाहिए, पर क्या हमारे समाज में विवेकशीलता और वैज्ञानिकता को बढ़ाने की कोई मुहिम है?
पचास के दशक में नेहरू का मुकाबला अपनी ही पार्टी के हिन्दूवादी तत्वों से था। उनके दबाव में हिन्दू कोड बिल निष्फल हुआ और आम्बेडकर ने निराश होकर इस्तीफा दे दिया। उस दौर में पार्टी को दुधारी तलवार पर चलना पड़ा था। उसे यह भी साबित करना था कि उसकी प्रगतिशीलता केवल हिन्दू संकीर्णता के विरोध तक ही सीमित नहीं है। अंततः सन 1956 में हिन्दू कोड बिल भी आया। पर इससे बहुसंख्यक हिन्दू कांग्रेस के खिलाफ नहीं हुए। और न जनसंघ किसी बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आई थी।
पचास के दशक में नेहरू का मुकाबला अपनी ही पार्टी के हिन्दूवादी तत्वों से था। उनके दबाव में हिन्दू कोड बिल निष्फल हुआ और आम्बेडकर ने निराश होकर इस्तीफा दे दिया। उस दौर में पार्टी को दुधारी तलवार पर चलना पड़ा था। उसे यह भी साबित करना था कि उसकी प्रगतिशीलता केवल हिन्दू संकीर्णता के विरोध तक ही सीमित नहीं है। अंततः सन 1956 में हिन्दू कोड बिल भी आया। पर इससे बहुसंख्यक हिन्दू कांग्रेस के खिलाफ नहीं हुए। और न जनसंघ किसी बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आई थी।
Sunday, December 13, 2015
उल्टी भी पड़ सकती है कांग्रेसी आक्रामकता
सन 2014 के चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस के सामने मुख्यधारा में फिर से वापस आने की चुनौती है। जिस तरह सन 1977 की पराजय के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी वापसी की थी। पार्टी उसी लाइन पर भारतीय जनता पार्टी को लगातार दबाव में लाने की कोशिश कर रही है। पार्टी की इसी छापामार राजनीति का नमूना संसद के मॉनसून सत्र में देखने को मिला. संयोग से उसके बाद बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिलीं। इस दौरान राहुल गांधी के तेवरों में भी तेजी आई है।
संसद के इस सत्र में भी कांग्रेस मोल-भाव की मुद्रा में है। पिछले हफ्ते दिल्ली हाईकोर्ट ने नेशनल हैरल्ड के मामले में जो फैसला सुनाया है, उसने राष्ट्रीय राजनीति का ध्यान खींचा है। सहज भाव से कांग्रेस पहले रोज से ही इस मामले में बजाय रक्षात्मक होने के आक्रामक है। देखना होगा कि क्या पार्टी इस आक्रामकता को बरकरार रख सकती है। क्या सन 2016 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को कमोबेश सफलता मिलेगी?
पहली नजर में हैरल्ड मामले में कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया न तो संतुलित है और न सुविचारित। इसके कानूनी और राजनीतिक पहलुओं पर सोचे समझे बगैर पार्टी ने पहले दिन से जो रुख अपनाया है, वह कांग्रेस के पुराने दिनों की याद दिलाता है, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ तनिक सी बात सामने आने पर भी देशभर में रैलियाँ होने लगती थीं। पार्टी को गलतफहमी है कि संसद से सड़क तक हंगामा करने से उसकी वापसी हो जाएगी। पार्टी का अदालती प्रक्रिया को लेकर रवैया खतरनाक है। देश भूला नहीं है कि सन 1975 का आपातकाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के कारण लागू हुआ था। संयोग से सोनिया गांधी ने ‘इंदिरा की बहू हूँ’ कहकर उसकी पुष्टि भी कर दी। यह एक सामान्य मामला है तो उन्हें अदालत में दोषी ठहराया ही नहीं जा सकता। जब वे दोषी हैं नहीं तो कोई उनको फँसा कैसे देगा?
Saturday, December 12, 2015
निजी विधेयकों का रास्ता बंद क्यों?
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
इस साल अप्रैल में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए क़ानून बनने की राह निजी विधेयक की मदद से खुली थी. राज्यसभा ने द्रमुक सांसद टी शिवा के इस आशय के विधेयक को पास किया.
ये विधेयक इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि लगभग 45 साल बाद किसी सदन ने निजी विधेयक पास किया था. पिछले हफ़्ते राज्यसभा में 14 निजी विधेयक पेश किए गए और लोकसभा में 30. इनमें सरकारी हिंदी को आसान बनाने, बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाने, मतदान को अनिवार्य करने से लेकर इंटरनेट की 'लत' रोकने तक के मामले हैं.
राज्यसभा सदस्य कनिमोझी सदन में मृत्युदंड ख़त्म करने से जुड़ा विधेयक लाना चाहती हैं जिसके प्रारूप पर अभी विचार-विमर्श हो रहा है. कांग्रेस सांसद शशि थरूर धारा 377 में बदलाव के लिए विधेयक ला रहे हैं.
निजी विधेयक सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं और सरकार का ध्यान किसी ख़ास पहलू की ओर खींचते हैं.
जागरूकता के प्रतीक रहे भारतीय संसद के पहले 18 साल में 14 क़ानूनों का निजी विधेयकों की मदद से बनना और उसके बाद 45 साल तक किसी क़ानून का नहीं बनना किस बात की ओर इशारा करता है? क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी धीरे-धीरे सरकार के पास चली गई है.
निजी विधेयक क़ानून बनाने से ज़्यादा सामाजिक जागरुकता की ओर इशारा करते हैं और इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
भारतीय संसद क़ानून बनाती है. शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर वह कार्यपालिका से स्वतंत्र है, पर उस तरह नहीं जैसी अमरीकी अध्यक्षात्मक प्रणाली है.
हमारी संसद में सरकारी विधेयकों के अलावा सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से विधेयक पेश करने का अधिकार है लेकिन विधायिका का काफ़ी काम कार्यपालिका यानी सरकार ही तय करती है. एक तरह से पार्टी लाइन ही क़ानूनों की दिशा तय करती है.
Wednesday, December 9, 2015
भारत-पाकिस्तान एक कदम आगे
भारत-पाकिस्तान रिश्तों में एक हफ्ते के भीतर भारी बदलाव आ गया है. यह बदलाव बैंकॉक में अजित डोभाल और नसीर खान जंजुआ की मुलाकात भर से नहीं आया है. यह इस बात का साफ इशारा है कि दोनों देशों ने बातचीत को आगे बढ़ाने का फैसला किया है. यह मामला बेहद संवेदनशील है. दोनों देशों की जनता इसे भावनाओं से जोड़कर देखती है. बैंकॉक-वार्ता के गुपचुप होने की सबसे बड़ी वजह शायद यही थी. और अब कड़ी प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं. दूसरी ओर विदेशमंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान के महत्वपूर्ण नेताओं से मुलाकात भी कर चुकी हैं. सब ठीक रहा तो अब तक क्रिकेट सीरीज खेले जाने का फैसला भी सामने आ चुका होगा. यह सब काफी तेजी से हुआ है.
Sunday, December 6, 2015
अपने ही बनाए घेरे में घिरी भाजपा
जो भारतीय जनता पार्टी अस्सी के दशक में
लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हिन्दुत्व की लहरों पर सवार थी और ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा लगा रही थी, उसे सन 1996 में
अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनी सरकार बनने के बाद पता लगा कि वह अकेली पड़ चुकी
है। राजनीतिक दृष्टि से अछूत की श्रेणी में आ गई है। इसके बाद उसने अपने तीखे
तेवरों पर ब्रेक लगाया और दोस्तों की तलाश शुरू की। जब सन 1998 में गिरधर गमंग के
एक वोट से हारी तो उसने फ्लोर मैनेजमेंट पर ध्यान देना शुरू किया। असहिष्णुता के
सवाल पर घेरे में आई पार्टी के लिए आज के दौर की राजनीति में भी कुछ सबक छिपे हैं,
बशर्ते वह सीख ले।
Friday, December 4, 2015
पीएम मोदी की 'संत मुद्रा' के मायने क्या हैं?
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसद के दोनों सदनों में दिए गए बयान उपदेशात्मक और आदर्शों से ओत-प्रोत हैं, पर उनसे वास्तविक सवालों के जवाब नहीं मिलते.
लगता नहीं कि विपक्ष इन सवालों को आसानी से भूलकर सरकार को बचकर निकलने का मौका देगा.
राज्यसभा में सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के एक नोटिस को सभापति ने विचार के लिए स्वीकार कर लिया है.
येचुरी ने असहिष्णुता व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर एक पंक्ति का यह प्रस्ताव दिया है.
देखना होगा कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस प्रस्ताव को पास कराने में मदद करेंगे या नहीं. और यह भी कि इस प्रस्ताव का इस्तेमाल सरकार की निंदा के रूप में होगा या नहीं.
दोनों सदनों में प्रधानमंत्री के बयान सकारात्मक जरूर हैं, पर वे विपक्ष के भावी प्रहारों की पेशबंदी जैसे लगते हैं. प्रधानमंत्री की यह संत-मुद्रा बताती है कि वे राजनीतिक दबाव में हैं.
मोदी जी ने किसी भी सवाल का सीधे जवाब नहीं दिया है. जबकि देश उम्मीद रखता है कि वे उन सारे सवालों के जवाब दें जो इस बीच उठाए गए हैं.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सम्मान वापस करने वाले लेखकों और कलाकारों से मिलने की इच्छा व्यक्त की है. गृह मंत्री के बजाय प्रधानमंत्री को ऐसा कदम उठाना चाहिए था.
दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या से देश में दहशत का माहौल बना था. उसके बाद कुछ मंत्रियों और सांसदों के बयानों से माहौल और बिगड़ा.
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या को लेकर लेखकों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना आक्रोश व्यक्त किया तो बजाय हमदर्दी जताने के उनकी आलोचना हुई.
इसके बाद सम्मान वापसी को देशद्रोह साबित करने की कोशिश की गई. बात-बात पर लोगों को पाकिस्तान जाने की सलाह दी गई. इन बातों को बेहतर तरीके से सुलझाया जा सकता था. ऐसा हुआ नहीं.
Wednesday, December 2, 2015
The decline of the Indian Parliament
The Lok Sabha has been progressively setting aside fewer days to meet, and meeting even less on those allotted days
The Lok Sabha—the running of which rests with representatives elected by the people of India—has been in a perennial state of decline. It has been progressively setting aside fewer days to meet, and meeting even less on those allotted days. As a result, it is squabbling more and discussing less, and then trying to make up for lost time by pushing through legislation faster. Even the current majority government has failed to rewrite that script.
Parliament is convening, and sitting, for fewer days
The first Congress government in 1952 and the last Congress-led government in 2009 were both in power for about 1,800 days. But the 1952 group of MPs spent almost twice as many days in the Lok Sabha as the 2009 group. This decline has been progressive during these 57 years, across governments. Even the currenty Bharatiya Janata Party (BJP)-led government is averaging numbers similar to those of the last two Congress-led governments.
The effect is felt less in the quantity of legislation…
Measured in terms of government tenure, the number of bills being passed by Lok Sabhas in the past decade has seen a 20-40% drop over the first two. However, measured in terms of how much Parliament meets, there has not been a corresponding drop in bills passed. This suggests that the Lok Sabha is passing bills faster, raising questions about whether these pieces of legislation were adequately discussed before being cleared.
…and more in the quality of discourse that nourishes governance
Speaking in Parliament last week, Prime Minister Narendra Modi said “conversation and debates are the soul of Parliament”. That soul is under serious assault. Torn between the polarity of no work—caused by a hostile, tit-for-tat opposition—and the speedy passage of bills to make up for lost time, there’s virtually no time or inclination for discourse that richens a democracy.
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