Saturday, August 4, 2012

नए धमाके, पुराने सवाल


पुणे में एक घंटे के भीतर हुए चार धमाकों का संदेश क्या है? क्या यह नए गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को सम्बोधित हैं? कल ही भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने घोषणा की थी कि पाकिस्तानी नागरिक और कम्पनियाँ भारत में निवेश कर सकेंगी। क्या किसी को सम्बन्ध सामान्य बनाना पसन्द नहीं? या फिर कोई और बात है। किसी ने इसका सम्बन्ध अन्ना हज़ारे के आन्दोलन से जोड़ने की कोशिश भी की है। अटकलबाज़ियों में हमारा जवाब नहीं। किसी ने उत्तरी ग्रिड फेल होने को भी अन्ना आंदोलन को फेल करने की सरकारी साज़िश साबित कर दिया था। बहरहाल पुणे के धमाकों का असर इसीलिए मामूली नहीं मानना चाहिए कि उसमें किसी की मौत नहीं हुई। धमाके करने वाला यह संदेश भी देना चाहता है कि वह बड़े धमाके भी कर सकता था। पर पहले यह निश्चित करना चाहिए कि इसके पीछे किसी पाकिस्तान परस्त गिरोह का हाथ है या कोई और बात है।

बम धमाके तकरीबन दस मिनट के अंतर से और एक ही इलाके में हुए। इसका मतलब यह है कि इसमें केवल एक व्यक्ति का हाथ नहीं था। धमाकों का उद्देश्य बड़ी खूंरेज़ी नहीं था, ऐसा विस्फोटकों की मात्रा से पता लगता है। इसका उद्देश्य अपने गिरोह के सदस्यों का भरोसा बढ़ाना भी हो सकता है। या स्थानीय पुलिस को यह बताना कि हमारे हौसले खत्म नहीं हुए हैं। इंडियन मुजाहिदीन नाम का संगठन इस इलाके से भी सदस्यों की भरती कर रहा है, ऐसा पता लगा है। फरवरी 2010 के जर्मन बेकरी विस्फोट में इस संगठन का हाथ बताया जाता है, पर पिछले साल सितम्बर से इसकी किसी कारवाई की खबर नहीं है। सम्भव है उसका हाथ हो, पर बेहतर होगा कि जल्दबाज़ी में निष्कर्ष न निकाले जाएं। अलबत्ता यह देखने की ज़रूरत है कि पाकिस्तान में क्या ‘कराची प्रोजेक्ट’ नाम लश्करे तैयबा का वह गिरोह चल रहा है या नहीं जिसका उद्देश्य भारत में अराजकता फैलाना है।

कराची प्रोजेक्ट के बारे में डेविड कोल हैडली ने अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई को जानकारी दी थी। यह प्रोजेक्ट 2003 से चल रहा था और अनुमान है कि मुम्बई धमाके और पुणे का जर्मन बेकरी धमाका इस गिरोह की कारगुज़ारी ही थी। बेशक पाकिस्तान में लश्करे तैयबा दारुल उद दावा के नाम से आज भी सक्रिय है और हाफिज सईद दिफा-ए-पाकिस्तान कौंसिल के नाम से कट्टरपंथी आंदोलन चला रहे हैं। मुम्बई धमाकों के सिलसिले में पाकिस्तान सरकार के आश्वासन के बावज़ूद वहाँ से आए आयोग की जानकारी को पाकिस्तान की अदालत ने साक्ष्य नहीं माना। पर क्या ‘कराची प्रोजेक्ट’ सक्रिय है? अबू जुन्दाल की गिरफ्तारी और उससे प्राप्त सूचनाओं को लेकर इंडियन मुजाहिदीन की प्रतिक्रिया में भी पुणे धमाके हो सकते हैं। इतना साफ है कि पाकिस्तान की नागरिक सरकार इतनी ताकतवर नहीं है कि वह लश्करे तैयबा पर काबू पा सके। हाफिज सईद पर अमेरिका की ओर से 10 मिलियन डॉलर के इनाम की घोषणा के बाद से उसके हौसले बढ़े ही हैं, कम नहीं हुए। पाकिस्तान का कट्टरपंथी तबका खुलकर नागरिक सरकार को चुनौती दे रहा है। सेना का एक तबका और न्यायपालिका भी उनके साथ नज़र आते हैं।

ऐसा नहीं लगता कि सुशील शिन्दे को गृहमंत्री बनाए जाने की प्रतिक्रिया में ये धमाके हुए हैं। हालांकि उनका पुणे आने का कार्यक्रम था, पर गृहमंत्री को लेकर किसी का क्या मंतव्य हो सकता है? घटनास्थल से जो विस्फोटक मिले हैं उनसे लगता है कि पेस्ट्री जैसी किसी चीज़ में इन्हें छिपाकर रखा गया था। दयानन्द पाटील नाम के जिस घायल व्यक्ति के पास एक डिवाइस मिली है, उनसे भी कुछ बातें पता लगेंगी। साइकिलों का इस्तेमाल इसके पहले उत्तर प्रदेश के धमाकों में हुआ था। इस दृष्टि से पड़ताल भी होनी चाहिए कि क्या किसी हिन्दुत्ववादी संगठन का इसमें हाथ तो नहीं है। पड़ताल के सभी पहलुओं को देखा जाना चाहिए। हालांकि आतंकवादी घटनाओं की जाँच का हमारा इतिहास अच्छा नहीं है। खासकर अबू जुन्दाल के बयान जिस तरीके से मीडिया में आ रहे हैं उनसे लगता यही है कि हमारी जाँच एजेंसियाँ बचकाने तरीके से मीडिया के साथ जानकारियाँ शेयर करती हैं। इनका उद्देश्य जाँच के बजाय प्रचार ज्यादा लगता है।

धमाके कहीं भी हो सकते हैं। दुनिया की तमाम इंटेलिजेंस को भेदकर धमाके हुए हैं, पर जाँच में तो सफलता मिलनी चाहिए। तथ्य यह है कि नवम्बर 2008 में मुम्बई धमाकों और उसके बाद पाँच शहरों में हुए धमाकों में से किसी की तह तक हम नहीं पहुँच पाए। बावजूद इसके कि हमने नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी बनाई है, जिसका काम सिर्फ आतंकवादी मामलों की जाँच करना है। दिल्ली हाईकोर्ट धमाकों में भी कोई बड़ी प्रगति नहीं हो पाई। आमतौर पर धमाकों के पीछे इंडियन मुजाहिदीन या हूजी का हाथ माना जाता है जो प्रकारांतर से लश्करे तैयबा से जुड़ते हैं। हाल में हिन्दुत्ववादी संगठनों का हाथ भी देखा गया है। आतंकवाद से सुरक्षा के दो पहलू हैं। एक है कार्रवाई से पहले की खुफिया सूचना और दूसरा है जाँच। हम दोनों जगह नाकाम हैं। माना जाता है कि खुफिया एजेंसियाँ तमाम मॉड्यूल नष्ट करती रहती हैं। फिर भी एक दो जगह सुप्तावस्था में आतंकवादी बचे रह जाते हैं।
धमाके किसकी चूक से हुए इसकी जाँच कराने से भी आमतौर पर सरकारें बचती है। जब सरकार ही एजेंसियों का बचाव करती है, तब जाँच की ज़रूरत क्या है? इस किस्म की गफलत अमेरिका या इंग्लैंड की सुरक्षा एजेंसियां नहीं कर सकतीं। धमाकों के बाद आतंकवादियों का पकड़ में न आ पाने का मतलब तो यही है कि वे हमारी सुरक्षा व्यवस्था से ज्यादा कुशल हैं। पिछले तमाम धमाकों की फाइलें अधूरी पड़ीं हैं। दूसरी ओर इस साल 1 मार्च से नेशनल काउंटर टैररिज़्म सेंटर बनाने की योजना राजनीति की भेंट चढ़ गई। इसमें गलती सरकार की है या विपक्ष शासित राज्यों की, पर परिणाम यह है कि हम संगठनात्मक सुधार नहीं कर पा रहे हैं।

पिछले साल सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के भविष्य के परिदृश्य को देखते हुए एक राष्ट्रीय कार्य दल बनाया जिसकी अध्यक्षता पूर्व कैबिनेट सचिव नरेश चन्द्रा ने की। इस कार्य दल में देश की सुरक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों की अनुभवी टीम थी। हालांकि इसका दायरा काफी बड़ा था और इसमें बाहरी सुरक्षा का काम भी शामिल था, पर इसके और इसके पहले के कुछ फैसले किस तरह से लागू होंगे यह समझ में नहीं आता। इस कार्यदल ने मई में अपनी रपट दे दी। इसकी महत्वपूर्ण सिफारिय़ों में एक है सुरक्षा सेनाओं के एक जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ की नियुक्ति। इसकी सिफारिश इस रपट में भी है। हमने कम्प्यूटर इमर्जेंसी रिस्पांस टीम बना ली। आने वाले समय में सायबर सुरक्षा और एटमी सुरक्षा के काम और ज्यादा महत्वपूर्ण होने वाले हैं। इसके पहले राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मंत्रिसमूह ने सुझाव दिया था कि हमें अपनी सुरक्षा के काम की हर पाँच साल में समीक्षा करनी चाहिए। यह समीक्षा हर साल होनी चाहिए। पर बात यहीं खत्म नहीं होती।

2008 के मुम्बई विस्फोट के बाद हमने जो फैसले किए, उनमें से सिर्फ नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी बना पाए हैं। पक्की तरह से नैटग्रिड और नेशनल काउंटर टैररिज्म सेंटर नहीं बन पाया है। यह सेंटर सन 2010 के अंत तक बन जाना था। हमारे पास काउंटर इंटेलिजेंस और इनवेस्टिग्शन का एक अच्छा प्रशिक्षण संस्थान नहीं है। ट्रेनिंग नहीं है। टेक्नॉलजी नहीं है। आज नहीं तो कल के लिए हम नौजवानों की ऐसी टीम तैयार करनी होगी जो आधुनिक तरीकों से जाँच करे। पुलिस आधुनिकीकरण का ढिंढोरा पीटा जाता है, पर राजनीति उसे होने नहीं देती। एनसीटीसी पर राजनीतिक विवाद के बाद हमें विचार यह भी करना चाहिए कि क्या आंतरिक सुरक्षा केन्द्रीय विषय बना दिया जाए। मामूली सी जाँच भी इतने राज्यों के इतने संगठनों के बीच से होकर गुजरती है कि उसका रास्ते में ही दम निकल जाता है। पुणे के विस्फोटों का असर मामूली है, पर वे कुछ नए सवाल छोड़ गए हैं। उनके जवाब न जाने कौन देगा।


जनवाणी में प्रकाशित

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