Sunday, May 6, 2012

एनसीटीसी की भैंस चली गई पानी में

सतीश आचार्य का कार्टून
नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर पर शनिवार को हुई बैठक से जिन्होंने उम्मीदें लगा रखी थीं, उन्हें निराशा हाथ लगी। कोई भी पक्ष अपनी बात से हिलता नज़र नहीं आ रहा है। खासतौर से जो इसके विरोधी हैं उनके रुख में सख्ती ही आई है। मसलन ममता बनर्जी और जयललिता चाहती हैं कि पहले इसकी अधिसूचना वापस ली जाए। केन्द्र सरकार ने सावधानी बरती होती तो यह केन्द्र-राज्य सम्बन्धों का मामला नहीं बनता। पर अब बन गया है। फिलहाल इसमें किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं लगती।
इस बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हम आतंक-विरोधी कार्रवाई में समन्वय चाहते हैं। पर उनकी पहलकदमी में काफी देर हो चुकी है। यह मामला पूरी तरह राजनीतिक रंग ले चुका है। मुख्यमंत्रियों के रुख को देखते हुए साफ है कि वे इसे वर्तमान रूप में किसी तरह स्वीकार नहीं करेंगे। हालांकि इसके पहले गृहमंत्री पी चिदम्बरम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि राज्यों के आतंक विरोधी दस्तों के मार्फत ही एनसीटीसी काम करेगा। इसकी स्थायी परिषद में सभी राज्यों की पुलिस के महानिदेशक शामिल होंगे। वे इस मामले में और पीछे हटने को तैयार नज़र आते हैं, पर इससे खास फर्क नहीं पड़ेगा। बेहतर होता कि इसकी कार्यपद्धति के बारे में राजनीतिक विचार-विमर्श के पहले अधिकारियों की बैठक भी होती। पर केन्द्र सरकार ने राज्यों के साथ विचार-विमर्श के बजाय इसकी अधिसूचना जारी कर दी, जिससे मामला भड़क गया। बेहतर हो कि राज्यों और केन्द्र सरकार के विशेषज्ञ अपने स्तर पर विचार-विमर्श करें और उसके बाद राजनीतिक मंच पर चर्चा हो। यह आतंरिक सुरक्षा से जुड़ा मामला है। इसे राजनीतिक दृष्टिकोण से देखना उचित नहीं, पर अब इससे राजनीति को अलग करना सम्भव भी नहीं।


पर इस बैठक में ममता बनर्जी, जयललिता, नरेन्द्र मोदी, नीतीश कुमार और नवीन पटनायक के रुख को देखकर नहीं लगता कि यह संगठन बन पाएगा। देश के कम से कम बारह मुख्यमंत्री इसके सख्त खिलाफ हैं। ज्यादातर मुख्यमंत्री इसकी अधिसूचना वापस लेने की माँग कर रहे हैं। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री की सलाह है कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक उपसमिति बनाई जानी चाहिए। पर ममता बनर्जी का रुख सबसे ज्यादा सख्त था। वे यूपीए के सहयोगी दल की नेता है। मुख्यमंत्रियों की बातों से लगता है कि वे मानते हैं कि आतंकवाद पूरे देश की समस्या है, किसी एक राज्य की नहीं। पर उनका कहना है कि इस सिलसिले में कोई कदम उठाने के पहले सभी सम्बद्ध पक्षों से मशविरा करना चाहिए।

माओवाद, नक्सलवाद या सीमा पार से आए लश्करे तैयबा के आतंकवाद से निपटने के लिए किसी एक राज्य की पुलिस समर्थ नहीं है। समर्थ है भी तो तमाम राज्यों की पुलिस को दूसरे राज्यों के साथ समन्वय करना होगा। इसमें कहीं न कहीं केन्द्र की भूमिका होगी। यह सामान्य डकैती और अपराध का मामला नहीं है। दूसरे आतंकवादी हमला हवाई मार्ग से या समुद्री मार्ग से भी हो सकता है जैसा कि न्यूयॉर्क और मुम्बई में हुआ। संविधान निर्माताओं ने सोचा भी नहीं होगा कि कभी ऐसी स्थिति आएगी। इस अर्थ में कानून-व्यवस्था का मामला राज्यों के पास रखने में कोई दिक्कत नहीं थी। पर आतंकी हमला राष्ट्रीय सुरक्षा पर हमला होता है। इसलिए इसे राष्ट्रीय सुरक्षा की तरह देखना चाहिए। पर ऐसे में केन्द्र सरकार पर जिम्मेदारी आती है कि वह राज्य सरकारों को यह बात समझाए।

नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) की स्थापना 1 मार्च को होनी थी और उसके ठीक पहले लगभग सभी पार्टियों ने विरोध का झंडा खड़ा कर दिया। यूपीए सरकार ने 3 फरवरी को इस आशय की अधिसूचना जारी की, उसे स्थगित कर दिया। सरकार को इस मामले में न सिर्फ पीछे हटना पड़ा, बल्कि इसकी अवधारणा के चीथड़े उड़ गए। इस वक्त हम क्षेत्रीय शक्तियों का उभार देख रहे हैं। क्षेत्रीय ताकतें केन्द्र को निरंकुश बनते नहीं देख सकतीं। पर देश को टकराव की नहीं समन्वय की जरूरत है। एनसीटीसी की ज़रूरत 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए हमले के बाद महसूस की गई थी। इसके साथ ही राष्ट्रीय जाँच एजेंसी बनाने का फैसला भी हुआ। अमेरिका में भी 11 सितम्बर के हमले के बाद कानूनों में भारी बदलाव किया गया था और सन 2004 में नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर बनाया गया था। 26/11 के बाद अफरा-तफरी में जब दिसम्बर 2008 में अवैधानिक गतिविधि कानून में संशोधन किया जा रहा था बहस तब होनी चाहिए थी। पर हमारी राजनीतिक ताकतों ने इस पर बात नहीं की। क्यों नहीं की? इसलिए कि तब क्षेत्रीय ताकतें इस प्रकार खड़ी नहीं थीं। यह संशोधन सिर्फ एक दिन की बहस के बाद 11 दिसम्बर 2008 को पास कर दिया गया था। लोक सभा में जिस वक्त इसे पेश किया गया था तब सदन में 50 सदस्य उपस्थित थे। इसे पास करते वक्त विपक्षी सदस्यों ने प्रतिवाद तब नहीं किया था।

आंतरिक सुरक्षा और राजनीतिक में आपसी टकराव नहीं है। दोनों का उद्देश्य नागरिकों का हित है। इसमें टकराव से ज्यादा समन्वय की जरूरत है। हमारी समन्वय क्षमता की परीक्षा इसके मार्फत होगी। सच यह है कि हमारे यहाँ इतनी एजेंसियाँ हैं कि समन्वय नहीं हो पाता। नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर सन 2010 के अंत तक बन जाना था। हम नहीं बना पाए और अब भी उसे किसी न किसी वजह से रोक रहे हैं। क्या तीसरे या चौथे मोर्चे का प्रस्थान बिन्दु एनसीटीसी से शुरू होगा? ऐसा हुआ तो यह देश के लिए शुभ संकेत नहीं। कम से कम बारह राज्यों के मुख्यमंत्री इसे राजनीतिक प्रश्न मान रहे हैं। और वे इसके सहारे किसी न किसी प्रकार का राजनीतिक मोर्चा खोल रहे हैं।
राजनेता पुलिस को ताकत का प्रतीक मानते हैं। गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने एनसीटीसी की जब परिकल्पना की थी तब यह एक अम्ब्रेला संगठन के रूप में काम करता। यानी आईबी, एनआईए और एनएसजी भी इसके अधीन होते। पर वास्तव में अब यह स्वतंत्र रूप से काम करने वाली संस्था नहीं बन रही है। बल्कि इंटेलीजेंस ब्यूरो के अधीन इसे काम करना है। इसके मूल रूप में वैसे ही काफी बदलाव हो चुके हैं। पर जो बन भी रही है वह खुफिया संगठन के रूप में है। खुफिया संगठन में पारदर्शिता नहीं होती। पहली आपत्ति इस बात पर है कि अपारदर्शी संगठन को इतनी शक्तियाँ क्यों दी जाएं। इंटेलीजेंस ब्यूरो को भी राजनेताओं के दबाव में काम करना होता है। दूसरे हमारे यहाँ सुरक्षा एजेंसियाँ आपसी खींचतान में लगी रहती हैं। मुम्बई में 26 नवम्बर 2008 के हमले के बाद हमने इन एजेंसियों के बीच के टकराव को भी देखा। राज्यों की पुलिस को लगता है कि आतंक के खिलाफ लड़ाई में उनकी कोई भूमिका नहीं बची।
हाईटेक न्यूज में प्रकाशित

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