Monday, September 30, 2013

लालू के फैसले के बाद क्या बिहार करवट लेगा?

 सोमवार, 30 सितंबर, 2013 को 09:38 IST तक के समाचार
लालू प्रसाद यादव की आरजेडी पार्टी
पिछले शुक्रवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में राहुल गांधी की हैरतभरी घोषणा ने केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए ही असमंजस पैदा नहीं किया, बल्कि उत्तर भारत के महत्वपूर्ण प्रदेश बिहार की राजनीति में उलटफेर के हालात भी पैदा कर दिए हैं.
पिछले एक साल से आरजेडी नेता लालू यादव ने जगह-जगह रैलियाँ करके प्रदेश की राजनीति में न सिर्फ अपनी वापसी के हालात पैदा कर लिए हैं, बल्कि एनडीए से टूटे जेडीयू का राजनीतिक गणित भी बिगाड़ दिया है.
मई में पटना की परिवर्तन रैली और जून में महाराजगंज के लोकसभा चुनाव में प्रभुनाथ सिंह को विजय दिलाकर लालू ने नीतीश कुमार के लिए परेशानी पैदा कर दी थी.
उस वक़्त लालू प्रसाद ने कहा था कि अगले लोकसभा चुनाव में बिहार की सभी 40 सीटों पर आरजेडी की जीत का रास्ता तैयार हो गया है. वह अतिरेक ज़रूर था, पर ग़ैर-वाजिब नहीं. फिलहाल व्यक्तिगत रूप से लालू और संगठन के रूप में उनकी पार्टी की परीक्षा है.

अध्यादेश का क्या होगा?

दाग़ी जनप्रतिनिधियों की सदस्यता बचाने वाला अध्यादेश अधर में है और अब लगता नहीं कि सरकार इस पर राष्ट्रपति के दस्तख़त कराने पर ज़ोर देगी. अगले हफ़्ते इसके पक्ष में फैसला हुआ भी, तो शायद लालू यादव के लिए देर हो चुकी होगी.
लालू यादव
लालू यादव राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी रहे हैं.
अगले हफ़्ते कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य रशीद मसूद से जुड़े मामले में भी सज़ा सुनाई जाएगी. बहरहाल उनके मामले का राजनीतिक निहितार्थ उतना गहरा नहीं है, जितना लालू यादव के मामले का है.
राहुल गांधी के अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने का जितना मुखर स्वागत नीतीश कुमार ने किया है, वह ध्यान खींचता है. क्या नीतीश कुमार को इसका कोई दूरगामी परिणाम नज़र आ रहा है?
लालू यादव राजनीतिक विस्मृति में गर्त में गए तो तीन-चार महत्वपूर्ण सवाल सामने आएंगे. बिहार में आरजेडी एक महत्वपूर्ण ताक़त है. 2010 के विधानसभा के चुनाव में जेडीयू ने 115 सीटों पर जीत हासिल की थी.

Sunday, September 29, 2013

सुरक्षा तंत्र के छिद्रों को तो बंद कीजिए

इधर जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच नोकझोंक की खबरें गर्म थीं कि जम्मू में फौजी कैम्प पर आतंकी हमले की खबरें सुनाई पड़ीं। इसके दो रोज पहले पेशावर और केन्या के एक मॉल से खूंरेजी की खबरें सुनाई पड़ीं। इन सारी बातों का रिश्ता नहीं है, पर ध्यान से देखें तो है। इन सबके केन्द्र में पाकिस्तान का जेहादी ताना-बाना और हमारी सुरक्षा व्यवस्था के सवाल हैं। इसमें दो राय नहीं कि जनरल वीके सिंह और सरकार के बीच तनातनी किसी बड़े सैद्धांतिक कारण से नहीं थी। यह शुद्ध रूप से सेना के भीतर की गुटबाजी की देन थी। इस मामले को ज्यादा बढ़ावा मिलने के पहले ही खत्म कराने की जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व की थी। ऐसा हो नहीं पाया। धीरे-धीरे विवाद ऐसी शक्ल लेता जा रहा है जो देश के हित में नहीं है। जनरल सिंह के इस वक्तव्य को लेकर काफी चर्चा है कि सेना कश्मीर के राजनीतिक नेताओं को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए धन का इस्तेमाल करती थी। इस वक्तव्य पर गौर करें तो इसमें कोई ऐसी बात नहीं थी जो हमारे लिए असमंजस पैदा करे।

Thursday, September 26, 2013

सुरक्षा के गले में राजनीति का फंदा

जनरल वीके सिंह को लेकर विवाद आने वाले समय में बड़ी शक्ल लेगा. जाने-अनजाने राजनीति ने रक्षा व्यवस्था को अपने घेरे में ले लिया है, जिसके दुष्परिणाम भी होंगे. हमारी सेना पूरी तरह अ-राजनीतिक है और इसे विवादों से बाहर रखने की परम्परा है. फिर भी यह विवाद के घेरे में आ रही है तो जिम्मेदार कौन है? क्या हम सीबीआई या किसी दूसरी जाँच एजेंसी की मदद से ऐसे मामलों की जाँच करा सकते हैं? हाल में इशरत जहाँ मामले को लेकर खुफिया एजेंसियों और जाँच एजेंसियों की टकराहट सामने आई है, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं. यह सब क्या व्यवस्था को साफ करने में मदद करेगा या हालात और बिगड़ेंगे? जनरल वीके सिंह का मामला सन 2004 के बाद दिल्ली में बनी यूपीए सरकार के साथ शुरू हुआ है. उसके पहले एनडीए के शासन में रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और नौसेनाध्यक्ष विष्णु भागवत के बीच भी विवाद हुआ था, जिसकी परिणति विष्णु भागवत की बर्खास्तगी में हुई थी. वर्तमान विवाद सन 2005 में जनरल जेजे सिंह की थल सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के बाद शुरू हुआ. इसका प्रस्थान बिन्दु वही नियुक्ति है और इसके पीछे सेना के भीतर बैठी गुटबाजी है.

Wednesday, September 25, 2013

भाजपा का नमो नमः


देश की राजनीति का रथ अचानक गहरे ढाल पर उतर गया है, जिसे अब घाटी की सतह का इंतजार है जहाँ से चुनाव की चढ़ाई शुरू होगी। संसद के सत्र में जरूरी विधेयकों को पास कराने में सफल सरकार ने घायल पड़ी अर्थव्यवस्था की मरहम-पट्टी शुरू कर दी है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को लेकर लम्बे अरसे से चले आ रहे असमंजस को खत्म कर दिया है। देखने को यह बचा है कि अब लालकृष्ण आडवाणी करते क्या हैं। मुजफ्फरनगर के दंगों के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में माहौल बिगड़ चुका है। कुछ लोग इसे भी चुनाव की तैयारी का हिस्सा मान रहे हैं। बहरहाल चुनाव आयोग ने पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं। आयोग की टीम ने उन सभी पाँच राज्यों का दौरा शुरू कर दिया है, जहां साल के अंत में चुनाव होने हैं।

Sunday, September 22, 2013

तीन सर्वेक्षण तेरह तरह के नतीजे

 शनिवार, 21 सितंबर, 2013 को 11:41 IST तक के समाचार
आगामी विधानसभा चुनावों में चार राज्यों की तस्वीर क्या होगी इसे लेकर क़यास शुरू हो गए हैं.
इन क़यासों को हवा दे रहे हैं चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण जिनपर भले ही यक़ीन कम लोगों को हो पर वे चर्चा के विषय बनते हैं.
हालांकि चुनाव तो पांच राज्यों में होने हैं लेकिन सर्वेक्षण करने वालों ने सारा ध्यान चार राज्यों पर केंद्रित कर रखा है.
हाल में जो सर्वेक्षण सामने आए हैं वे क्लिक करेंकांग्रेस के ह्रास और भारतीय जनता पार्टी के उदय की एक धुंधली सी तस्वीर पेश कर रहे हैं.
सर्वेक्षणों ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीगढ़ के बारे में कमोबेश साफ़ लेकिन दिल्ली के बारे में भ्रामक तस्वीर बनाई है.
इसकी एक वजह आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की उपस्थिति है जो एक राजनीतिक समूह है. उसकी ताक़त और चुनाव को प्रभावित करने के सामर्थ्य के बारे में क़यास इस भ्रम को और भी बढ़ा रहे हैं.
तीन सर्वेक्षण तीन तरह के नतीजे दे रहे हैं जिनसे इनकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा होते हैं. सर्वेक्षणों के बुनियादी अनुमानों में इतना भारी अंतर है कि संदेह के कारण बढ़ जाते हैं.
दिल्ली का महत्व
दिल्ली भारत के मध्य वर्ग का प्रतिनिधि शहर है. यहाँ पर होने वाली राजनीतिक हार या जीत के व्यावहारिक रूप से कोई माने नहीं हों पर प्रतीकात्मक अर्थ गहरा होता है. यहाँ से उठने वाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं.
हाल में दिल्ली गैंगरेप के ख़िलाफ़ और उसके पहले अन्ना हज़ारे के आंदोलन की ज़मीन देश-व्यापी नहीं थी पर दिल्ली में होने के कारण उसका स्वरूप राष्ट्रीय बन गया. इसकी एक वजह वह क्लिक करेंख़बरिया मीडिया है, जो दिल्ली में निवास करता है.
भाजपा का लोगो
हाल ही में भाजपा ने दिल्ली में अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा की.
दिल्ली की इसी प्रतीकात्मक महत्ता के कारण यहाँ के नतीजे महत्वपूर्ण होते हैं भले ही वे दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघों के हों या दिल्ली विधानसभा के.
हाल में भाजपा के मंच पर प्रधानमंत्री के प्रत्याशी का नाम घोषित करने की प्रक्रिया पर जो ड्रामा शुरू हुआ था उसका असर दिखाई पड़ने लगा है और इसमें भी पहल दिल्ली की है.
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के साथ ही उनकी रैलियों का कार्यक्रम बन रहा है.

क्या है मोदी की विश्व-दृष्टि?

पिछले हफ्ते रेवाड़ी में हुई रैली में नरेन्द्र मोदी ने दो महत्वपूर्ण बातें कहीं जिनपर ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने एक तो पाकिस्तान के बरक्स अटल बिहारी वाजपेयी की नीतियों का समर्थन किया। और दूसरे यह कहा कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलकर दक्षिण एशिया की गरीबी दूर करने के रास्ते तलाशने चाहिए। पाकिस्तान के अखबार द नेशन इस खबर को शीर्षक दिया फाइट पावर्टी नॉट इंडिया, मोदी आस्क्स पाकिस्तान। मोदी ने कहा, पाकिस्तान के शासक अगले दस साल तक अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों में शामिल होने से रोक सकें तो मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि पाकिस्तान वह प्रगति देखेगा जो पिछले साठ साल में नहीं देखी होगी। मोदी की बातें आमतौर पर उग्र राष्ट्रवादी शब्दावली में लिपटी होती हैं। पिछले स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री को जवाब देने वाले भाषण में उन्होंने चीनी घुसपैठ और पाकिस्तानी सीमा पर सैनिकों की गर्दन काटे जाने के मामलों में मनमोहन सिंह की प्रतिक्रिया को बेहद कमजोर और क्षीण साबित किया था। पर लगता है प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में उनका नाम तय हो जाने के बाद उनकी शब्दावली संयत और सार्थक हुई है।

नरेन्द्र मोदी की विश्व दृष्टि क्या है? मसलन यदि वे प्रधानमंत्री बने तो उनकी विदेश नीति क्या होगी? क्या वे पाकिस्तान और चीन से सीधे मुठभेड़ मोल लेंगे? चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्धों पर उनका दृष्टिकोण क्या होगा? उन्हें वीजा न देने वाले अमेरिका के साथ उनके रिश्ते कैसे होंगे? इन बातों पर अभी ज्यादा चर्चा नहीं हुई है, पर होनी चाहिए। पहली बात तो यह है कि देश की विदेश नीति पूरे देश की नीति होती है, किसी व्यक्ति विशेष की नीति के रूप में उसे देखना मुश्किल होता है। इसीलिए उसमें एक प्रकार की निरंतरता होती है। दूसरे मोदी एक पार्टी के नेता हैं। पार्टी भी इन सवालों पर विमर्श करती है। व्यक्तिगत रूप से नेता भी इसमें भूमिका निभाते हैं जैसे कि पाकिस्तान के संदर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी ने निभाई थी।

Saturday, September 21, 2013

रैनबैक्सीः भारतीय औषधि उद्योग की प्रतिष्ठा को धक्का

रैनबैक्सी की दवाओं पर अमेरिका में पाबंदी लगने से भारतीय शेयर बाजार में निवेशकों के 5,855 करोड़ रुपए एक दिन में ही डूब गए। दुनिया में बिकने वाली तकरीबन चालीस फीसदी जेनरिक दवाएं भारत में बनती हैं। क्या इस फैसले का असर इस पूरे कारोबार पर पड़ेगा? भारत में डॉ रेड्डीज लैबोरेटरीज़, ल्यूपिन लिमिटेड, सन फार्मा और सिपला वगैरह के कारोबार पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है। अमेरिकी एफडीए सभी कंपनियों का निरीक्षण नहीं करता, पर रैनबैक्सी के साथ हालात बिगड़ते चले गए। सही है कि अमेरिकी मानक कड़े होते हैं, पर रैनबैक्सी के मामले में शिकायतें केवल कड़ाई की नहीं थीं। क्या हम वास्तव में दवाओं के ठीक से क्लीनिकल ट्रायल भी नहीं कर सकते? सवाल यह भी है कि हमारे देश के औषधि नियामक किस बात का इंतजार कर रहे हैं? क्या उन्हें अपने देश की कम्पनी से जुड़े मामले की जाँच नहीं करनी चाहिए? क्या कारण है कि हमारे देश में ऐसी कंपनियाँ नहीं है जो नए अनुसंधान के आधार पर दवाएं बनाने की कोशिश करें? क्या हम केवल नकल कर सकते हैं वह भी टेढ़े तरीके से? इस मामले में अमेरिका का विसिल ब्लोवर कानून भी काम में आया है। कंपनी के एक पूर्व अधिकारी की शिकायतें भी इसमें शामिल हैं। इसलिए इस सवाल पर भी विचार करने की जरूरत है कि हम विसिल ब्लोवर कानून को पास करने देरी क्यों कर रहे हैं? और यह भी कि इस कानून को निजी कंपनियों पर भी क्यों नहीं लागू करना चाहिए?

Monday, September 16, 2013

मोदीः मसीहा या मुसीबत

 शनिवार, 14 सितंबर, 2013 को 20:16 IST तक के समाचार
भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार आखिरकार घोषित कर दिया. लाल कृष्ण आडवाणी के साथ-साथ कुछ और लोगों के तमाम विरोधों के बावजूद मोदी के नाम की घोषणा क्या बीजेपी में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी.
क्या मोदी की उम्मीदवारी बीजेपी के लिए तुरूप का पत्ता साबित होगी या इससे पार्टी का अंदरूनी झगड़ा और बढ़ जाएगा. आप क्या सोचते हैं बीजेपी की इस राजनैतिक पहल पर.
बीबीसी इंडिया बोल में इस शनिवार इसी मुद्दे पर बहस हुई. इस कार्यक्रम में श्रोताओं के सवाल दिए वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने.

Sunday, September 15, 2013

घायल है सामाजिक ताना-बाना

मुजफ्फरनगर की घटना के बाद कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। हिंसा में मरने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। इसके घाव काफी गहरे हैं और काफी देर तक इस इलाके को तकलीफ देते रहेंगे। ज्यादा भयावह है घर छोड़कर भागने वालों की बड़ी संख्या। चालीस-पचास हजार या इससे भी ज्यादा लोगों को घरों से भागना पड़ा। वे वापस आ भी जाएंगे तो उनके मन में गहरी दहशत होगी। जिस भाई-चारे और भरोसे के सहारे वे अपने को सुरक्षित पाते थे वह खत्म हो गया है। यह भरोसा सामाजिक ताना-बाना प्रदान करता है। दुनिया की बड़ी से बड़ी प्रशासनिक मशीनरी इसकी गारंटी नहीं दे सकती। आग प्रशासनिक नासमझी से लगी और राजनीतिक स्वार्थों ने इसे भड़काया। इसे ठीक करने की जिम्मेदारी इन दोनों पर है। पर आने वाले वक्त के राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए यह सम्भव नहीं लगता। इसे ठीक करने के लिए भी उन्हीं खाप पंचायतों की जरूरत होगी, जिन्हें कई समस्याओं का दोषी माना जाता है। उन्हें याद दिलाया जाना चाहिए कि वे जिस साझा परम्परा के प्रतिनिधि हैं उसका संवल है एक-दूसरे पर विश्वास। सामाजिक बदलाव और आधुनिकीकरण के रास्ते पर जाने के लिए इन पंचायतों के भीतर विमर्श की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। इसकी जिम्मेदारी नौजवान पीढ़ी को अपने ऊपर लेनी चाहिए।

दुर्भाग्य से इस समय हमारा राष्ट्रीय विमर्श इस बात पर केन्द्रित है कि क्या जाटों का झुकाव भाजपा की ओर बढ़ेगा या क्या मुसलमान सपा का साथ छोड़ेंगे या क्या बसपा इसका फायदा उठाएगी। हमारे सोच-विचार का यही तरीका है। पर विचार इस बात पर होना चाहिए कि उस ताने-बाने को पुनर्स्थापित कैसे किया जाए जो शहरों में तमाम साम्प्रदायिक फसादों के बावजूद गाँवों में बचा रहा। और जो इस बार की हिंसा में तार-तार हो गया है। इतनी बड़ी संख्या में गाँवों से पलायन हमारे सामाजिक जीवन की नई घटना है।
  
बहरहाल 27 अगस्त को मुजफ्पऱनगर के कवाल गाँव में एक छोटी सी घटना के बाद युवकों के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें पहले एक की मौत हुई, फिर भीड़ ने दो युवकों को पीट-पीटकर मार डाला। इस घटना से स्वाभाविक रूप से आसपास के इलाकों में दहशत फैली होगी। पर ऐसा नहीं था कि दूर-दूर के गाँवों में हिंसा फैलती। प्रशासन को इस घटना की संवेदनशीलता का अनुमान था इसलिए उसने फौरन कार्रवाई करने की ठानी। नासमझी, अनुभवहीनता या अब तक के चलन को देखते हुए उसने वह किया जो नहीं किया जाना चाहिए था। घटना के कुछ समय बाद ही जिले के एसएसपी और जिलाधिकारी को हटा दिया गया। उस रोज इस इलाके में बड़े स्तर की सामूहिक हिंसा नहीं हुई थी। समझदार लोग बात की गम्भीरता को समझते थे और शायद समझाने-बुझाने पर चीजें ठीक रास्ते पर आ जातीं। पर प्रशासन के शीर्ष पर बड़ा बदलाव हो गया। नए अफसर नए थे, वे कुछ समझ और कर पाते कि हालात बिगड़ने लगे। मीडिया की कवरेज पर यकीन करें तो तकरीबन हर दल के नेताओं ने मामले को सुलझाने के बजाय भावनाओं का दोहन करने की कोशिश की। उनकी कोशिश होनी चाहिए थी कि समस्या को साम्प्रदायिक रूप न लेने देते। पर हुआ इसके विपरीत। अफवाहों का एक दौर चला। लोगों का खून खौलाने वाली बातें हुईं।

पहले ऐसा लगता था कि साम्प्रदायिक हिंसा के बीज शहरों में बोए जा रहे हैं। गाँव अछूते हैं, क्योंकि वहाँ पारम्परिक जीवन कायम है। परम्परा से हमारे समाज ने सह-जीवन के संस्कार पैदा कर लिए हैं। पर मुजफ्फरनगर की हिंसा के बाद जो नया संदेश गया है वह भयावह है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में सामाजिक सद्भाव का सैकड़ों साल पुराना तानाबाना टूटता सा लगता है। इन्हीं गाँवों मे स्वतंत्रता ता संग्राम मिल-जुलकर लड़ा गया था। किसान आंदोलन में भी इन गाँवों ने एकजुटता दिखाई थी। मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश के प्रगतिशील जिलों में से एक है। खेती में सबसे आगे। प्रदेश को गुड़ और चीनी की मिठास देने वाला इलाका। इस इलाके में जाट और मुसलमान दो प्रमुख सम्प्रदाय हैं। चूंकि वोट की राजनीति में सामाजिक ताकतों की भूमिका है, इसलिए राजनीतिक दल इनके बीच सक्रिय हैं और इन समुदायों की परतों का इस्तेमाल करते हैं। पर वह वोट की राजनीति तक सीमित रहा है।

इलाके के मुसलमानों ने धर्मांतरण से पहले की अपनी पहचान को कायम रखा है, जिससे समझा जा सकता है कि यह इलाका अपनी परम्पराओं का कितना आदर करता है। मूले, त्यागी और राजपूत मुसलमानों की तमाम परम्पराएं चलती आ रही हैं। खास बात यह है कि सभी मिलकर अपने पर्व-त्योहार मनाते रहे हैं। इस अर्थ में हिन्दुओं और मुसलमानों ने कई बार एक-दूसरे के हितों की लड़ाई लड़ी है। चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत किसानों के सवाल उठाते थे। पर जब मौका आया तो 1989 में नईमा कांड के खिलाफ भोपा में 40 दिन तक जेल भरो आंदोलन भी उन्होंने चलाया। नईमा की अपहरण के बाद हत्या कर दी गई थी। संयोग है कि इस बार भी 7 सितम्बर की पंचायत के पहले राकेश टिकैत ने कहा था कि नईमा कांड की तरह इस आंदोलन को भी बड़े स्तर पर शुरू किया जा सकता है।

जाट समुदाय अपनी पहचान को लेकर संवेदनशील है और अपनी परम्परागत खाप व्यवस्था को बनाकर रखता है। वह सगोत्र विवाह और नए चाल-चलन को लेकर कई बार कड़े फैसले भी करता है, पर इसके कारण वह कई प्रकार के सामाजिक दोषों से भी बचा है। इन बातों के समानांतर इलाके में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, संचार और परिवहन के आधुनिक साधन बढ़े हैं और स्त्री शिक्षा बढ़ी है। इन बातों का सामाजिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ा है। बेटी-बहन की रक्षा करना इलाके में प्रतिष्ठा का प्रश्न माना जाता है। इसे लेकर अक्सर झगड़े होते रहते हैं, पर इस हद तक नहीं होते कि उसकी आग में पूरा इलाका जल जाए।

मुजफ्फरनगर की हिंसा के सिलसिले में कुछ लोगों ने इस बात को रेखांकित करने की कोशिश की है कहीं एके-47 मिली या उसके कारतूस मिले। यों भी अब्दुल करीम टुंडा या कुछ और लोगों के नाम से इस शहर की पहचान है, पर यही अकेली वास्तविकता नहीं है। यह उस अलगाव का लक्षण है, जो हमारे बीच पनप रहा है और जिसे राजनीति प्रश्रय दे रही है। सच यह है कि बड़ी संख्या में लोग ऐसे हैं, जिनके लिए टुंडा आदर्श नहीं है। इस इलाके में ऊँची नाक की लड़ाई आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की प्रतिक्रिया है। यह यहाँ के परम्परागत समाज के भीतर बैठी है वह हिन्दू हो या मुसलमान। इसे दूर करने के लिए आधुनिक शिक्षा के प्रसार की जरूरत है। उससे पहले राजनीतिक स्वार्थों पर रोक लगनी चाहिए। यह काम इस इलाके के लोग ही कर सकते हैं।


Saturday, September 14, 2013

सैर करनी है तो अंतरिक्ष में आइए

 आपकी जेब में पैसा है तो अगले साल गर्मियों की छुट्टियाँ अंतरिक्ष में बिताने की तैयारी कीजिए। रिचर्ड ब्रॉनसन की कम्पनी वर्जिन एयरलाइंस ने पिछले शुक्रवार को अपने स्पेसक्राफ्ट वर्जिन गैलेक्टिकका दूसरा सफल परीक्षण कर लिया। वर्जिन गैलेक्टिक पर सवार होकर अंतरिक्ष में जाने वालों की बुकिंग शुरू हो गई है। एक टिकट की कीमत ढाई लाख डॉलर यानी कि तकरीबन पौने दो करोड़ रुपए है, जो डॉलर की कीमत के साथ कम-ज्यादा कुछ भी हो सकती है। वर्जिन गैलेक्टिक आपको किसी दूसरे ग्रह पर नहीं ले जाएगा। बस आपको सब ऑर्बिटल स्पेस यानी कि पृथ्वी की कक्षा के निचले वाले हिस्से तक लेजाकर वापस ले आएगा। कुल जमा दो घंटे की यात्रा में आप छह मिनट की भारहीनता महसूस करेंगे। जिस एसएस-2 में आप विराजेंगे उसमें दो पायलट होंगे और आप जैसे छह यात्री। लगे हाथ बता दें कि इस यात्रा के लिए जून के महीने तक 600 के आसपास टिकट बिक चुके हैं। वर्जिन गैलेक्टिक की तरह कैलीफोर्निया की कम्पनी एक्सकोर ने लिंक्स रॉकेट प्लेन तैयार किया है। यह भी धरती से तकरीबन 100 किलोमीटर की ऊँचाई तक यात्री को ले जाएगा।

Friday, September 13, 2013

आडवाणी कब तक नाराज रहेंगे?

नीचे प्रकाशित आलेख 13 सितम्बर की सुबह लिखा गया था। चूंकि फैसला हो गया इसलिए अब इसकी कालावधि पूरी हो गई। पर अब यह समझने की जरूरत है कि फैसला जिस तरह से हुआ है, उसका मतलब क्या है। क्या आडवाणी जी हाशिए पर गए? क्या अब मोदी के वर्चस्व का समय आ गया है?  संघ के पूरे दबाव के बावजूद आडवाणी जी ने हार नहीं मानी। ऐसा क्यों हुआ? ऐसी क्या बात हुई कि वे पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक में आना चाहकर भी नहीं आ पाए? क्या यह व्यक्तिगत पीड़ा है? मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज की बैठक में उपस्थिति के बावजूद इतना स्पष्ट है कि वे खुश नहीं हैं। ऐसा लगता है कि आडवाणी को यकीन है कि मोदी विफल होंगे। आज विरोध दर्ज कराते हुए वे अपने कल की पेशबंदी कर रहे हैं। ताकि कह सकें कि मैने अपना विरोध दर्ज कराया था। व्यक्तिगत रूप से देखें तो असंतुष्ट नेताओं में सुषमा स्वराज ही ऐसी हैं, जो भविष्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। मुरली मनोहर जोशी भी ज्यादा समय के नेता नहीं हैं। भाजपा के पास प्रधानमंत्री पद के लिए सुयोज्ञ पात्र सुषमा जी हैं, पर इस वक्त कांग्रेस को परास्त करने के लिए मोदी जैसे आक्रामक व्यक्ति की भाजपा को जरूरत है। कांग्रेस जबर्दस्त एंटी इनकम्बैंसी की शिकार है। साथ ही उसके पास लोकप्रिय नेता नहीं है। फिलहाल नरेन्द्र मोदी की परीक्षा चार राज्यों के चुनाव में होगी, पर उसके पहले देखना होगा कि पार्टी संगठन किस प्रकार चुनाव में उतरता है। मोदी को कहीं भितरघात का सामना तो नहीं करना होगा? उसके पहले देखना यह है कि आडवाणी जी मोदी को कैसा आशीर्वाद देते हैं। क्या वे लम्बे समय तक नाराज रह सकेंगे? उनकी नाराजगी मोदी से है या संघ से, जिसने उनकी उपेक्षा की है? मोदी को आगे करने का फैसला कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ गया है।

फैसला मोदी नहीं, आडवाणी के बारे में होना है?

 शुक्रवार, 13 सितंबर, 2013 को 11:26 IST तक के समाचार
भारतीय जनता पार्टी क्या अपने सबसे बड़े कद के नेता को हाशिए पर डालने की हिम्मत रखती है? पार्टी में मतभेदों के सार्वजनिक होने के बाद अपनी फजीहत और कांग्रेस के व्यंग्य-बाणों से खुद को बचाने की क्या कोई योजना उसके पास है? और क्या इस फजीहत का असर चार राज्यों के विधान सभा चुनाव पर नहीं पड़ेगा?
लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी के कम से कम तीन-चार बड़े नेताओं का समर्थन हासिल है. पर यह भी लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के फैसले की कद्र करते हुए शायद इनमें से कोई भी नेता अंतिम क्षण तक आडवाणी जी का साथ नहीं देगा.
हो सकता है कि अंततः आडवाणी भी इसे कबूल कर लें, पर क्या वे मोदी के नाम का प्रस्ताव करेंगे? या इस फैसले के बाबत होने वाली प्रेस कांफ्रेस में साथ में खड़े होंगे? या फिर से पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा देंगे?
जून में जब गोवा में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया था तब उन्होंने पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा दे दिया था. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अध्यक्ष मोहन भागवत के सीधे हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने हाथ खींचे थे.
उन्हें भरोसा दिलाया गया था कि प्रधान मंत्री पद का फैसला करते वक्त आपको शामिल किया जाएगा और इसीलिए इस हफ्ते पार्टी के तमाम नेता उन्हें लगातार मनाने की कोशिश करते रहे हैं. क्या अब उन्हें मनाने की कोशिश बंद कर दी जाएगी?

Wednesday, September 11, 2013

चुनाव-महोत्सव की 'फॉर्मूला रेस'

कृषि-प्रधान होने के साथ-साथ भारत मनोरंजन-प्रधान देश भी है. मनोरंजन के तीन साधन हैं. सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति. तीनों को जोड़ता है टीवी, जो सब कुछ है. इन सबके तड़के से तैयार होता है द ग्रेट इंडियन रियलिटी शो. कभी सोचा है कि राजनीति वाला सिनेमा में सिनेमा वाला खेल मे और खेल वाला राजनीति में क्यों है? तीनों की अपनी फॉर्मूला रेस है और अपना सीजन. राजनीति का सीजन आ रहा है और उसके साथ आने वाला है उसका अपना कॉमेडी सर्कस. कुछ विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं और इनके तीन महीने बाद लोकसभा के. इस लोकतांत्रिक-महोत्सव के बरक्स देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रजानीति पर नजर डालनी चाहिए.

    

तीन-चार हफ्ते से देश आर्थिक संकट को लेकर बिलबिला रहा था. पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद सम्हालने के दिन ही रघुराम राजन ने कुछ घोषणाएं कीं और वित्तीय बाजारों की धारणा बदलने लगी. रुपए की कीमत जो डॉलर के मुकाबले 68 रुपए के पार थी वह 65 के आसपास आ गई. शेयर बाजार में गिरावट रुक गई. बहरहाल हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार इतना है कि लम्बे अरसे तक किसी किस्म की परेशानी नहीं होगी. अब कहा जा रहा है कि फंडामेंटल्स मजबूत है. अच्छे मॉनसून के कारण अनाज और खेती से जुड़ी वस्तुओं के दाम गिरेंगे और मुद्रास्फीति पर रोक लगेगी. एचडीएफसी बैंक के चेयरमैन दीपक पारेख संजीदा व्यक्ति हैं. उनका कहना है कि भारत खराब दौर से बाहर आ गया है. इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की विकास दर 4.4 प्रतिशत पर आ गई, जो पिछले दशक की सबसे धीमी गति है. इसे बॉटम आउट मानें तो अब इससे बेहतर समय आएगा.

Thursday, September 5, 2013

बेटे के अध्यापक को अब्राहम लिंकन का पत्र

बेटे के अध्यापक को अब्राहम लिंकन का पत्र
Lincoln's letter

अब्राहम लिंकन ने यह पत्र अपने बेटे के अध्यापक को लिखा था। लिंकन ने इसमें वे तमाम बातें लिखी थीं जो वे अपने बेटे को सिखाना चाहते थे।

सम्माननीय महोदय,
मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूँ कि आप उसे यह बताएँ कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होता है। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है। मैं चाहता हूँ कि आप उसे सिखाएँ कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है। ये बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूँ। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पाँच रुपए के नोट से ज्यादा कीमती होता है।

आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाएँ। साथ ही यह भी कि खुलकर हँसते हुए भी शालीनता बरतना कितना जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएँगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्‍छी बात नहीं है। यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए।

आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहिएगा ही, पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को धूप, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मँडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा। मैं समझता हूँ कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं।

मैं मानता हूँ कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्‍छा है। किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना और बुरे लोगों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा।

आप उसे बताना मत भूलिएगा कि उदासी को किस तरह प्रसन्नता में बदला जा सकता है। और उसे यह भी बताइएगा कि जब कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा।

ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएँ उतना उसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी।

आपका
अब्राहम लिंकन

Sunday, September 1, 2013

संकट नहीं, हमारी अकुशलता है

मीडिया की कवरेज को देखने से लगता है कि देश सन 1991 के आर्थिक संकट से भी ज्यादा बड़े संकट से घिर गया है। वित्त मंत्री और उनके बाद प्रधानमंत्री ने भी माना है कि संकट के पीछे अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के अलावा राष्ट्रीय कारण भी छिपे हैं। राज्यसभा में शुक्रवार को प्रधानमंत्री तैश में भी आ गए और विपक्ष के नेता अरुण जेटली के साथ उनकी तकरार भी हो गई। पर उससे ज्यादा खराब खबर यह थी कि इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की संवृद्धि की दर 4.4 फीसदी रह गई है, जो पिछले चार साल के न्यूनतम स्तर पर है। रुपए का डॉलर के मुकाबले गिरना दरअसल संकट नहीं संकट का एक लक्षण मात्र है। यदि हमारी अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुखी होती तो रुपए की कमजोरी हमारे फायदे का कारण बनती। पर हम दुर्भाग्य से आयातोन्मुखी हैं। पेट्रोलियम से लेकर सोने और हथियारों तक हम आयात के सहारे हैं।

Saturday, August 31, 2013

सीरियाः पश्चिम एशिया में एक और ‘इराक’?

 कई सवाल एक साथ हैं? अमेरिकी सेना अगले साल अफगानिस्तान से हटने जा रही है, पर उससे पहले ही सीरिया में अपने पैर फँसाकर क्या वह हाराकीरी करेगी? या वह शिया और सुन्नियों के बीच झगड़ा बढ़ाकर अपनी रोटी सेकना चाहता है? क्या उसने ईरान पर दबाव बनाने के लिए सलाफी इस्लाम के समर्थकों से हाथ मिला लिया है, जिनका गढ़ पाकिस्तान है और जिसे सऊदी अरब से पैसा मिलता है? उधर रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने सऊदी अरब को धमकी दी है कि सीरिया पर हमला हुआ तो हम सऊदी अरब पर हमला बोल देंगे?  यह धमकी सऊदी शाहजादे बंदर बिन सुल्तान अल-सऊद की इस बात से नाराज होकर दी है कि रूस यदि सीरिया की पराजय को स्वीकार नहीं करेगा तो अगले साल फरवरी में होने वाले विंटर ओलिम्पिक्स के दौरान चेचेन चरमपंथियों खूनी खेल खेलने से रोक नहीं पाएगा। पुतिन की सऊदी शाहजादे से इसी महीने मुलाकात हुई है। पर इसका मतलब क्या है? यह अमेरिका की लड़ाई है या सऊदी अरब की?  अमेरिका इस इलाके में लोकतंत्र का संदेश लेकर आया है तो वह सऊदी अरब के साथ मिलकर क्या कर रहा है?

Thursday, August 29, 2013

यूपीए का आर्थिक राजनीति शास्त्र

देश का राजनीतिक अर्थशास्त्र या आर्थिक राजनीति शास्त्र एक दिशा में चलता है और व्यावहारिक अर्थ व्यवस्था दूसरी दिशा में जाती है। सन 1991 में हमने जो आर्थिक दिशा पकड़ी थी वह कम से कम कांग्रेस की विचारधारात्मक देन नहीं थी। मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक के 'वॉशिंगटन कंसेंसस' के अनुरूप ही अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया। वह दौर वैश्वीकरण का शुरूआती दौर था। ऐसा कहा जा रहा था कि भारत इस दौड़ में चीन से तकरीबन डेढ़ दशक पीछे है, जापान और कोऱिया से और भी ज्यादा पिछड़ गया है। बहरहाल तमाम आलोचनाओं के उदारीकरण की गाड़ी चलती रही। एनडीए सरकार भी इसी रास्ते पर चली। सन 2004 में यूपीए सरकार ने दो रास्ते पकड़े। एक था सामाजिक कल्याण पर खर्च बढ़ाने की राह और दूसरी उदारीकरण की गाड़ी को आगे बढ़ाने की राह। 2009 के बाद यूपीए का यह अंतर्विरोध और बढ़ा। आज जिस पॉलिसी पैरेलिसिस का आरोप मनमोहन सिंह पर लग रहा है वह वस्तुतः सोनिया गांधी के नेतृत्व के कारण है। यदि वे मानती हैं कि उदारीकरण गलत है तो प्रधानमंत्री बदलतीं। आज का आर्थिक संकट यूपीए के असमंजस का संकट भी है। यह असमंजस एनडीए की सरकार में भी रहेगा। भारत की राजनीति और राजनेताओं के पास या तो आर्थिक दृष्टि नहीं है या साफ कहने में वे डरते हैं। 

जिस विधेयक को लेकर राजनीति में ज्वालामुखी फूट रहे थे वह खुशबू के झोंके सा निकल गया. लेफ्ट से राइट तक पक्षियों और विपक्षियों में उसे गले लगाने की ऐसी होड़ लगी जैसे अपना बच्चा हो. उसकी आलोचना भी की तो जुबान दबाकर. ईर्ष्या भाव से कि जैसे दुश्मन ले गया जलेबी का थाल. यों भी उसे पास होना था, पर जिस अंदाज में हुआ उससे कांग्रेस का दिल खुश हुआ होगा. जब संसद के मॉनसून सत्र के पहले सरकार अध्यादेश लाई तो वृन्दा करात ने कहा था, हम उसके समर्थक हैं पर हमारी आपत्तियाँ हैं. हम चाहते हैं कि इस पर संसद में बहस हो. खाद्य सुरक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए. सबके लिए समान. मुलायम सिंह ने कहा, यह किसान विरोधी है. नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी कि मुख्यमंत्रियों से बात कीजिए. पर लगता है उन्होंने अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बात नहीं की. भाजपा के नेता इन दिनों अलग-अलग सुर में हैं. दिल्ली में विधान सभा चुनाव होने हैं और पार्टी संग्राम के मोड में है. बिल पर संसद में जो बहस हुई, उसमें तकरीबन हरेक दल ने इसे चुनाव सुरक्षा विधेयक मानकर ही अपने विचार व्यक्त किए. सोमवार की रात कांग्रेसी सांसद विपक्ष के संशोधनों को धड़ाधड़ रद्द करने के चक्कर में सरकारी संशोधन को भी खारिज कर गए. इस गेम चेंजर का खौफ विपक्ष पर इस कदर हावी था कि सुषमा स्वराज को कहना पड़ा कि हम इस आधे-अधूरे और कमजोर विधेयक का भी समर्थन करते हैं. जब हम सत्ता में आएंगे तो इसे सुधार लेंगे.  

Tuesday, August 27, 2013

लोक और तंत्र के बीच यह कौन बैठा है?

पिछले साल दिसम्बर में दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद अचानक लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसके खिलाफ इस गुस्से का इजहार करें? और किससे करें? देश भयावह संदेहों का शिकार है। एक तरफ आर्थिक संवृद्धि, विकास और समृद्धि के कंगूरे हैं तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार और बेईमानी की कीचड़भरी राह है। समझ में नहीं आता हम कहाँ जा रहे हैं? आजादी के 66 साल पूरे हो चुके हैं और लगता है कि हम चार कदम आगे आए हैं तो छह कदम पीछे चले गए हैं। दो साल पहले इन्हीं दिनों अन्ना हजारे का आंदोलन जब शुरू हुआ था तब उसके साथ करोड़ों आँखों की उम्मीदें जुड़ गई थीं। पर वह आंदोलन तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा। और अन्ना आज अपनी जनतांत्रिक यात्राओं के साथ देश के कोने-कोने में जा रहे हैं। पर संशय कम होने के बजाय बढ़ रहे हैं। संसद से सड़क तक देश सत्याग्रह की ओर बढ़ रहा है। सत्याग्रह यानी आंदोलन। कैसा आंदोलन और किसके खिलाफ आंदोलन? गांधी का सत्याग्रह सुराज की खोज थी। कहाँ गया सुराज का सपना?

Monday, August 26, 2013

डिफेंस मॉनिटर का नया अंक

रक्षा आयात से भी चाहिए आजादी

डिफेंस मॉनिटर का छठा अंक बाजार में आ गया है। यह अंक रक्षा सामग्री के स्वदेशीकरण पर केन्द्रित है। इसके मुख्य लेख इस प्रकार हैं :-

कहानी पर्वत और तूफान की : रक्षा सामग्री के स्वदेशीकरण की दिशा में फाइटर प्लेन एचएफ-24 मारुत और युद्धपोत नीलगिरि के निर्माण की कहानियाँ दो अलग किस्म के अनुभवों को बताती है। रियर एडमिरल विजय एस चौधरी (सेनि) का विशेष लेख
एम्फीबियस एयरक्राफ्ट से और बढ़ेगी नौसेना की ताकत : एम्फीबियस विमान सागर की सतह पर भी उतर सकते हैं। जापानी विमान शिनमेवा यूएस-2 दुनिया का सर्वश्रेष्ठ एम्फीबियस विमान है, जिन्हें भारत खरीदने का विचार कर रहा है।
हाइड्रोग्राफी : सागर की गहराइयों की राजदार : कैप्टेन जीएस इंदा
तलवार की धार पर अफगानिस्तान : गुरमीत कँवल
कैसा हो आदर्श रक्षा उत्पादन : मृणाल पाण्डे
जीतेगा वही जो सोचेगा, हम पीछे क्यों रहें : प्रमोद जोशी
इंपोर्टेड माल की पुरानी लत है सेनाओं को : सुशील शर्मा
हिमालय सा हौसला लिए  जुटी रही आईटीबीपी :  श्याम प्रधान

इसके अलावा वर्दी वाले देवदूत, मिग-21 विमान : 50 साल का गबरू, उत्तराखंड में राहत की एक्सक्लूसिव तस्वीरें और रक्षा शब्दावली।


Sunday, August 25, 2013

रुपए की नहीं गवर्नेंस की फिक्र कीजिए

डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने का मतलब कितने लोग जानते हैं? कितने लोग यह जानते हैं कि यह कीमत तय कैसे होती है? और कितने लोग जानते हैं कि इसका हमारी जिन्दगी से वास्ता क्या है? हम महंगाई को जानते हैं बाजार में चीजों की उपलब्धता को पहचानते हैं और अपनी आय को कम या ज्यादा होने की प्रक्रिया को भी समझते हैं। विश्व की मुद्राओं की खरीद-फरोख्त का बाजार है विदेशी मुद्रा बाजार। दूसरे वित्तीय बाजारों के मुकाबले यह काफी नया है और सत्तर के दशक में शुरू हुआ है। फिर भी कारोबार के लिहाज से यह सबसे बड़ा बाजार है। विदेशी मुद्राओं में प्रतिदिन लगभग चार हजार अरब अमेरिकी डालर के बराबर कामकाज होता है। दूसरे बाजारों के मुकाबले यह सबसे ज्यादा स्थायित्व वाला बाजार है। फिर भी इसमें इन दिनों हो रहे बदलाव से हम परेशान हैं। यह बदलाव लम्बा नहीं चलेगा। एक जगह पर जाकर स्थिरता आएगी। वह बिन्दु कौन सा है यह अगले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा।

Wednesday, August 21, 2013

Growth Vs Development Debate

Everything you wanted to know about the Sen-Bhagwati debate

The debate between two of the finest Indian economists—Amartya Sen and Jagdish Bhagwati—reflects the deeper question facing India’s political leaders

 The debate on economic policy has never been as riveting as it is today, with two giants from the world of academic economics, Amartya Sen and Jagdish Bhagwati, tackling each other on what India’s governance priorities should be. Sen is a Nobel Prize winner in economics and a professor of economics and philosophy at Harvard University. Bhagwati is a Columbia University professor of economics, who has been nominated for the top honour several times. Along with Sen and Avinash Dixit, he is considered to be among the three greatest Indian economists ever.

Tuesday, August 20, 2013

लाइसेंसी पत्रकारिता सम्भव नहीं

पत्रकारिता से जुड़ी वैबसाइट सैंस सैरिफ ने अपने पाठकों से इस विषय पर राय माँगी है कि पत्रकारों के चयन के लिए क्या कोई राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा होनी चाहिए? और यह भी क्या कोई लाइसेंस होना चाहिए जैसा वकालत या डॉक्टरी वगैरह का होता है? रोचक बात यह है कि इस पोल के जवाब में लगभग बराबरी की संख्या में पक्ष और विपक्ष में वोट पड़े हैं। कुछ समय पहले जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने भी पत्रकारिता से जुड़ने के एक बुनियादी शैक्षिक योग्यता की सलाह दी थी। बड़ी संख्या में पत्रकार भी मानते हैं कि योग्यता होनी चाहिए। इसे बड़ी संख्या कहने के बजाय लगभग बहुमत कहना चाहिए। किसी को क्यों आपत्ति होगी? हाँ आपत्ति उस तरीके और कारण पर होनी चाहिए जो इस माँग के पीछे है। बहरहाल आप अपनी राय बनाएं उससे पहले इस बात की पृष्ठभूमि तक भी आपको जाना चाहिए।

Sunday, August 18, 2013

सदाचार भी इसी राजनीति में है

जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा है, 'दुनिया जिसे राजनीति के नाम से जानती है वह केवल भ्रष्टाचार है और कुछ नहीं।' सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में राजनीतिक व्यवस्था बन ही रही थी। पत्रकारिता जन्म ले रही थी। उन दिनों विमर्श पैम्फलेट्स के मार्फत होता था। आपने गुलीवर की यात्राएं पढ़ी होंगी, उसके लेखक जोनाथन स्विफ्ट। स्विफ्ट अपने दौर के श्रेष्ठ पैम्फलेटीयर थे। वह भी नई विधा थी। स्विफ्ट ने उस दौर की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों टोरी और ह्विग के लिए पर्चे लिखे थे। वे श्रेष्ठ व्यंग्य लेखक थे। अखबारों में सम्पादकीय लेखन के सूत्रधार थे, बल्कि पहले सम्पादकीय लेखक थे। तकरीबन तीन सौ साल पहले उनकी राजनीति के बारे में ऐसी राय थी।