Wednesday, September 25, 2013

भाजपा का नमो नमः


देश की राजनीति का रथ अचानक गहरे ढाल पर उतर गया है, जिसे अब घाटी की सतह का इंतजार है जहाँ से चुनाव की चढ़ाई शुरू होगी। संसद के सत्र में जरूरी विधेयकों को पास कराने में सफल सरकार ने घायल पड़ी अर्थव्यवस्था की मरहम-पट्टी शुरू कर दी है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को लेकर लम्बे अरसे से चले आ रहे असमंजस को खत्म कर दिया है। देखने को यह बचा है कि अब लालकृष्ण आडवाणी करते क्या हैं। मुजफ्फरनगर के दंगों के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में माहौल बिगड़ चुका है। कुछ लोग इसे भी चुनाव की तैयारी का हिस्सा मान रहे हैं। बहरहाल चुनाव आयोग ने पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं। आयोग की टीम ने उन सभी पाँच राज्यों का दौरा शुरू कर दिया है, जहां साल के अंत में चुनाव होने हैं।

दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चुनाव होने हैं। उम्मीद है सितंबर के आखिरी हफ्ते में चुनाव के तारीखों की घोषणा होगी और उसके साथ चुनाव आचार संहिता भी लागू हो जाएगी। उधर पितृपक्ष के खत्म होते ही उत्तर भारत में त्योहारों का मौसम शुरू हो जाएगा। इसबार राजनीतिक और सांस्कृतिक त्योहार एक साथ पड़ रहे हैं इसलिए रौनक कुछ ज्यादा ही होगी। इनके साथ या कुछ बाद देश का सबसे बड़ा राजनीतिक पर्व लोकसभा चुनाव भी होने वाला है इसलिए यह समय खासा रोचक है। फिलहाल कुछ सवाल उठ रहे हैं जो तत्काल दिमाग में आते हैं, और जिनके जवाब पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान या उनके नतीजे आने के बाद मिलेंगे वे इस प्रकार हैं:-

vपहला सवाल यह है कि इन चुनावों का एजेंडा क्या राष्ट्रीय एजेंडा से फर्क होगा या उसकी पूर्वपीठिका होगी?
vमध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का सीधा मुकाबला होने वाला है। इस लिहाज से दोनों की पहली परीक्षा नवम्बर-दिसम्बर में होगी। क्या इन राज्यों के परिणाम लोकसभा चुनावों के परिणामों पर असर डालेंगे?
vभारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए अपने प्रधान मंत्री पद के प्रत्याशी का नाम घोषित कर दिया है। क्या कांग्रेस भी अपने प्रत्याशी का नाम घोषित करेगी?
vनरेन्द्र मोदी से जुड़ा एक सवाल यह है कि यदि विधानसभा चुनाव में वे प्रत्याशित सफलता दिलाने में कामयाब नहीं हुए तो क्या यह गुब्बारे से हवा निकलने की तरह नहीं होगा? सवाल यह भी है कि क्या मोदी को पार्टी के भीतर से जरूरी समर्थन मिलेगा, खासतौर से वरिष्ठ नेताओं का? लगभग इससे मिलता-जुलता मसला कांग्रेस का है। वहाँ भी संगठनात्मक स्थिति कमजोर है।

राहुल-मोदी मुकाबले से बचती कांग्रेस 
भारतीय राजनीति में केवल भाजपा और कांग्रेस ही महत्वपूर्ण नहीं है। पर आनेवाले विधानसभा चुनाव में मुकाबला इन्हीं दो दलों में है। पूरे देश की राजनीति को समझने के लिए हमें तमाम दूसरे कारकों पर नजर डालनी होगी। फिलहाल ये दोनों आमने-सामने हैं। नरेन्द्र मोदी की ललकार के बावजूद कांग्रेस सीधी बहस से बच रही है। इस साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर मोदी के भाषण से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए असहज स्थिति पैदा हो गई, पर यह एक वास्तविकता है, जिसका सामना कांग्रेस को आने वाले समय में भी करना है। भारत की संसदीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री पद का चुनाव सीधे नहीं होता। यहाँ वोटर अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं और सदन सरकार बनाता है। जरूरी नहीं है कि किसी पार्टी विशेष की सरकार बने, पर जो भी बने उसे सदन का विश्वास प्राप्त होना चाहिए। इसका व्यावहारिक मतलब यह है कि जिस पार्टी के पास बहुमत होगा, उसकी सरकार बनेगी। पर अब ऐसा समय आ रहा है, जब किसी एक पार्टी के पास पूरा बहुमत नहीं होगा। उसका विकल्प हमारी राजनीति ने गठबंधन के रूप में निकाला है। यह गठबंधन चुनाव होने से पहले बन सकता है और चुनाव के बाद भी।

हमारी संसदीय व्यवस्था ब्रिटिश व्यवस्था से निकली है, पर दोनों देशों का वोटर और समाज एक सा नहीं है। वहाँ मुख्य पार्टियों की संख्या तीन है, पर अमूमन फैसला दो के बीच ही होता रहा है। संयोग से मई 2010 के ब्रिटिश चुनाव में धर्म संकट पैदा हो गया, जब वहाँ त्रिशंकु संसद बन गई। पर ब्रिटिश राजनीति ने त्रिशंकु संसद के बावजूद सरकार बनाने का रास्ता खोज लिया और वहाँ कंजर्वेटिव और लिबरल-डेमोक्रेटिक पार्टी की गठबंधन सरकार बनी और बगैर कड़वाहट के बनी। ब्रिटिश गठबंधन थोड़ा असहज था। कंजर्वेटिव और लिब-डेम विचारों के लिहाज से मेल नहीं खाते। पर यह मज़बूरी था, क्योंकि लेबर के साथ जाने पर भी उस गठबंधन के पास बहुमत नहीं होता। भारत में हम अभी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की गठबंधन सरकार बनने की कल्पना नहीं करते। सम्भव है कभी ऐसी सरकार भी बने, पर अभी सम्भव नहीं लगता।

हमारे यहाँ पार्टियों की तादाद इतनी ज्यादा है कि गठबंधन बनेंगे और फिलहाल दो बड़े गठबंधन हमारे देश में हैं। यूपीए और एनडीए। पर लगता है कि असली गठबंधन चुनाव के बाद बनेंगे, क्योंकि चुनाव परिणाम आने के बाद तमाम दल माहौल देखकर फैसला करेंगे। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर उन नेताओं के नाम खोज पाना मुश्किल होता है, जो प्रधानमंत्री पद के दावेदार हों। भारतीय जनता पार्टी ने इसबार के चुनाव में अपनी रणनीति दो यूपीए की दो कमजोरियों पर केन्द्रित की है। एक है, नेता के आधार पर और दूसरी है कांग्रेस की एंटी इनकम्बैंसी पर। भाजपा को लगता है कि कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट है। किसी कारण से राहुल गांधी अपने आप को तैयार नहीं कर पाए हैं, या वे खुद को नेता के रूप में प्रोजेक्ट करना नहीं चाहते। नरेन्द्र मोदी ने अपने आप को आक्रामक और पूरे आत्मविश्वास के साथ तैयार किया है। इसीलिए वे बार-बार राहुल गांधी को बहस के लिए ललकार रहे हैं।

यूपीए की एंटी इनकम्बैंसी के रूप में भाजपा के पास पिछले तीन साल से चल रही घोटाला-कथा है, जिसे उसने जिन्दा बनाकर रखा है। सन 2010 में लगता था कि भाजपा इसे लम्बे समय तक खींच नहीं पाएगी, पर अपने अंतर्विरोधों के कारण यह मामला अबतक खिंच गया। सन 2009 में जब यूपीए-2 की विजय हुई थी तब भारत के पास आर्थिक सफलता की कहानी थी। बावजूद सन 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी और अन्न संकट के भारत पर कोई असर नहीं पड़ा था। पर उस संकट से बचने के लिए भारत ने स्टिम्युलस दिए और साथ ही रोजगार गारंटी योजना जैसे कल्याणकारी कार्यों पर साधनों को लगाया और पेट्रोलियम सब्सिडी वगैरह को खत्म करने में देरी की। इनके कारण राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने में परेशानी हुई, महंगाई बढ़ी, पूँजी निवेश घटा जिसके कारण नए कारोबार नहीं लगे। इनके साथ ही यूरोप में आर्थिक संकट आया और फिर अमेरिका ने अपनी अर्थ-व्यवस्था को सुधारने की कोशिश की तो डॉलर का संकट आया। इससे नए रोजगार पैदा करने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। कांग्रेस ने सरकार और पार्टी के दो सत्ता केन्द्र बनाकर जो अंतर्विरोध पैदा किया उसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।  

क्या मोदी ऐन मौके पर फुस्स हो जाएंगे?
कांग्रेस का अनुमान है कि नरेन्द्र मोदी इस वक्त जो माहौल पैदा कर रहे हैं उससे उनकी सारी ऊर्जा चुनाव को मौके तक खत्म हो जाएगी। और तब राहुल गांधी अपने गेम चेंजर कार्यक्रमों के साथ जनता के सामने जाएंगे। कांग्रेस ने 2009 के चुनाव के लिए अपने प्रधानमंत्री प्रत्याशी के रूप में मनमोहन सिंह को सामने रखा था। सन 2008 में अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील को लेकर उन्होंने वामपंथी दलों के प्रहार को जिस तरह धेला था, उससे जनता की हमदर्दी भी उनके साथ थी। आडवाणी जी के नेतृत्व में भाजपा की भूमिका को जनता ने नापसंद किया। इन दोनों बातों का अनुमान 2009 के चुनाव से लगता है, जिसमें कांग्रेस ने 1991 के बाद का सबसे बेहतर और भाजपा ने सबसे खराब प्रदर्शन किया।

सवाल है कांग्रेस क्यों नहीं पूरे वेग के साथ चुनाव में उतर रही है और वे कौन सी वजहें हैं, जिनके आधार पर उसे लगता है कि मोदी की कहानी लोकसभा चुनाव में खत्म हो जाएगी? सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक पास करा दिया है, पर उसके लागू होते-होते लोकसभा चुनाव हो जाएंगे। यह सही है कि अर्थव्यवस्था के सामने खड़ा संकट टल गया है, मुद्रास्फीति में उस स्तर की तेजी नहीं आई है जिसका अंदेशा था। अच्छे मॉनसून के कारण फसल अच्छी होने के आसार हैं। सरकार ने चलते-चलाते आर्थिक उदारीकरण को लेकर फैसले करने शुरू कर दिए हैं, जिनसे आर्थिक गतिविधियाँ फिर से शुरू होने की सम्भावना है। भूमि अधिग्रहण कानून का सर फौरन दिखाई नहीं पड़ेगा, पर दिल्ली के आसपास के इलाकों में निर्माण कार्य फिर से शुरू होने से आर्थिक चहल-पहल बढ़ती दिखाई पड़ेगी।
विधानसभा चुनावों में क्या होगा?
इतना सकारात्मक होने के बावजूद हिन्दी भाषी चार राज्यों के चुनाव कांग्रेस की पीड़ा बढ़ाने वाले साबित हो सकते हैं। इन चार में से दो में कांग्रेस की सरकार है और दो में भाजपा की। दोनों पार्टियों की पहली चिन्ता है अपनी सरकार को बचाना। इस मामले में भाजपा अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में लगती है। कांग्रेस को राजस्थान और दिल्ली दोनों जगह अपने विकेट को बचाना होगा। ऐसा नहीं हुआ तो लोकसभा के रणक्षेत्र में प्रवेश के पहले ही नरेन्द्र मोदी को श्रेय मिलने लगेगा। मोदी ने छत्तीसगढ़ और राजस्थान में रैलियों को संबोधित किया है। राहुल गांधी ने भी रैलियाँ शुरू कर दी हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह का कहना है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने का असर छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के साथ ही लोकसभा चुनाव में भी नजर आएगा।

छत्तीसगढ़ में शांतिपूर्ण चुनाव कराना एक बड़ी चुनौती है। इसी साल मई में नक्सलियों ने कांग्रेस के काफिले पर हमला कर कांग्रेस के कई सीनियर नेताओं की हत्या कर दी थी। उस घटना से कांग्रेस को हमदर्दी मिलनी चाहिए, पर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का संगठनात्मक आधार बिगड़ हुआ है। राजस्थान में कांग्रेस की सरकार ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पाई, जिससे लगे कि वह दुबारा चुनकर आएगी। दिल्ली सरकार के पास साधनों की इफरात है और विकास के लिहाज से यह देश का सबसे विकसित शहर है। सन 2008 में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव ही नहीं जाती 2009 के संसदीय चुनाव में सातों सीटें जीतकर कांग्रेस का परचम फहरा दिया था। पर उसके बाद से पार्टी ने कोई सफलता यहाँ हासिल नहीं की है। इसके बाद हुए द्वारका और ओखला विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हार मिली। 2012 को दिल्ली की तीन महानगर पालिकाओं के चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस को हराया। सिख गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव में भी कांग्रेस समर्थित गुटों को हार मिली है। हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव में भी एनएसयूआई को हार मिली। पर इसका मतलब यह नहीं है कि भाजपा यहाँ जीत के प्रति आश्वस्त हो सकती है। दिल्ली में पार्टी संगठन में भीतरी गुटबाजी उसकी सबसे बड़ी समस्या है। भाजपा दिल्ली को कितना महत्व देती है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ चुनाव संचालन की जिम्मेदारी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को दी गई है।

मोदी के लिए महत्वपूर्ण
संगठनात्मक रूप से भाजपा के मुकाबले कांग्रेस बेहतर स्थिति में है। पार्टी ने पिछले साल नवम्बर में ही अपनी चुनाव से जुड़ी संगठनात्मक संरचना को तय कर दिया था। पूरी जिम्मेदारी राहुल गांधी को दी जा चुकी है। जनवरी में जयपुर में उन्हें औपचारिक रूप से पार्टी का उपाध्यक्ष घोषित करके दूसरे नम्बर का नेता घोषित कर दिया गया। कुछ रोज पहले मनमोहन सिंह ने यह कहकर कि मुझे राहुल गांधी के अधीन काम करने में खुशी होगी, एक तरह से साफ कर दिया कि राहुल ही लोकसभा चुनाव के बाद के नेता हैं। बावजूद इसके पार्टी उन्हें फिलहाल प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं कर रही है। चारों राज्यों के चुनाव उनके लिए भी महत्वपूर्ण हैं।

राहुल गांधी और भाजपा तथा कांग्रेस के संगठनों से ज्यादा ये चुनाव नरेन्द्र मोदी के लिए व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण हैं। मोदी का गुब्बारा फुस्स करना है तो कांग्रेस को इन चुनावों में जीत हासिल करनी होगी। ऐसा नहीं हुआ तो मोदी दुगने वेग से लोकसभा चुनाव में उतरेंगे। लालकृष्ण आडवाणी समेत मोदी का विरोध करने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का कहना था कि मोदी के नाम को घोषित करने का यह समय उपयुक्त नहीं है। इसके पीछे बड़ा कारण मध्य प्रदेश है जहाँ 39 सीटों पर मुसलमान वोटरों की महत्वपूर्ण भूमिका है। मोदी के नाम से मुसलमान वोटरों के भड़कने का अंदेशा है। पर क्या वे भाजपा के परम्परागत वोटर हैं? वे भाजपा को वोट देते हैं या शिवराज सिंह चौहान को?  शायद आडवाणी इस बहाने मोदी के फैसले को टालते रहना चाहता थे, क्योंकि यदि मोदी की मदद के बगैर शिवराज चौहान मध्य प्रदेश में जीतते तो वे चौहान को मोदी के मुकाबले खड़ा करने की कोशिश करते। और इस बात को नरेन्द्र मोदी समर्थक समझने लगे हैं, इसीलिए वे चाहते थे कि मोदी का नाम जल्द से जल्द घोषित किया जाए। यों भी लोकसभा चुनाव अब इतने दूर नहीं हैं कि नेतृत्व को लेकर संशय बाकी रखा जाए। इससे बड़ी बात यह है कि चुनाव केवल चेहरा दिखाकर नहीं जीता जाता। उसके लिए पार्टी को माइक्रो मेनेजमेंट करना होता है। कार्यकर्ता का विश्वास जीतना होता है। इस वक्त मोदी के समर्थन में शीर्ष नेतृत्व से ज्यादा नीचे का कार्यकर्ता एकजुट है।

आडवाणी फैक्टर
लालकृष्ण आडवाणी क्या अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे? वर्ना क्या वजह थी कि उन्होंने मोदी को लेकर इतना लम्बा विरोध किया। पिछले साल गुजरात के विधानसभा चुनाव के बाद उन्होंने मोदी को औपचारिक बधाई तक नहीं दी, क्योंकि तब तक पार्टी ने मोदी के नाम को हवा में उछालना शुरू कर दिया था। क्या नरेन्द्र मोदी इतने ताकतवर हैं कि उनके मन में जो आता है उसे हासिल कर सकते हैं? यह अकेले मोदी की बात नहीं है। पार्टी के पास मोदी एक उपलब्धि है जो तमाम विरोध के बावजूद राजनीतिक स्तर पर सफलता हासिल करता गया है। उनके अलावा रमन सिंह, शिवराज सिंह चैहान और मनोहर पर्रिकर भी हैं, पर मोदी ने अपनी राष्ट्रीय पहचान बना ली है। वे युवा वर्ग को भी समझ में आने लगे हैं।

पर सवाल यह है कि भारतीय जनता पार्टी क्या अपने सबसे बड़े कद के नेता को हाशिए पर डालने हिम्मत रखती है? पार्टी के मतभेदों के सार्वजनिक होने के बाद अपनी फजीहत और कांग्रेस के व्यंग्य-वाणों से खुद को बचाने की क्या कोई योजना उसके पास है? और क्या इस फजीहत का असर इन चार राज्यों के विधान सभा चुनाव पर नहीं पड़ेगा? आडवाणी को पार्टी के कम से कम तीन-चार बड़े नेताओं का समर्थन हासिल है। पर उन्होंने अपने विरोध की सीमा को पहचान लिया। क्या अंततः आडवाणी जी को भी इसे कबूल नहीं कर लेना चाहिए? उनकी उम्र 86 साल है और अगले साल वे 87 के होंगे। उन्हें सक्रिय राजनीति से बाहर आना चाहिए।

जून में जब गोवा में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया था तब उन्होंने पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा दे दिया था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अध्यक्ष मोहन भागवत के सीधे हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने हाथ खींचे थे। उन्हें भरोसा दिलाया गया था कि प्रधान मंत्री पद का फैसला करते वक्त आपको शामिल किया जाएगा। और इसीलिए इस हफ्ते पार्टी के तमाम नेता उन्हें लगातार मनाने की कोशिश करते रहे हैं। क्या अब उन्हें मनाने की कोशिश बंद कर दी जाएगी? या वे खुद अपनी नाराजगी पर काबू पाएंगे? इसका जवाब उन्हें ही देना है। उनका राजनीतिक भविष्य 2009 के चुनाव में भाजपा की जबर्दस्त पराजय के बाद तय हो गया। वे अब नेता विपक्ष भी नहीं है। नरेन्द्र मोदी की छवि तेज-तर्रार नेता की है या बनाई जा रही है। पार्टी के शिखर नेतृत्व में भले ही दूसरी राय हो, नीचे का कार्यकर्ता चाहता है कि चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ही उतरना चाहिए। आडवाणी इस फैसले को अब तक टाल सकते थे, रोक नहीं सकते। हाल में जब नरेन्द्र मोदी ने कहा कि प्रधानमंत्री बनने की मेरी महत्वाकंक्षा नहीं है, तो उसके साथ लिपटा संदेश था कि फैसला करना है तो जल्दी करो। मोदी की परीक्षा होनी है तो विधानसभा चुनाव से ही क्यों न हो?


मोदी के बारे में फैसला करने के बाद भी पार्टी की चुनौतियाँ खत्म नहीं हुईं, बल्कि बढ़ी हैं।  विधान सभा चुनावों में पर्याप्त सफलता नहीं मिली तो यह लोकसभा चुनाव के लिए अशनि संकेत होगा। एनडीए लगभग खत्म हो चुका है। चुनाव पूर्व गठबंधनों में इस बार ज्यादा जान नहीं होगी। पार्टी को जीतना है तो उसे एकजुटता और कार्यकर्ता के सुदीर्घ मनोबल की जरूरत होगी। कांग्रेस हालांकि संगठनात्मक रूप से तैयार है, पर विधानसभा चुनाव परिणाम अच्छे नहीं हुए तो उसका मनोबल टूटेगा। हाल के वर्षों में उसने कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड में सफलताएं हासिल की हैं। पर ये सभी सफलताएं उसने अर्जित नहीं कीं, बल्कि भाजपा की आपसी गुटबाजी के कारण उसे मिलीं। पर इसबार मैदान आसान नहीं है। 

No comments:

Post a Comment