बांग्लादेश एकबार फिर से 2007-08 के दौर में वापस आ गया है। ऐसा लगता था कि शेख हसीना के नेतृत्व में देश लोकतांत्रिक राह पर आगे बढ़ेगा, पर वे ऐसा कर पाने में सफल हुईं नहीं। हालांकि इस देश का राजनीतिक भविष्य अभी अस्पष्ट है, पर लगता है कि फिलहाल कुछ समय तक यह सेना के हाथ में रहेगा। उसके बाद लोकतंत्र की वापसी कब होगी और किस रूप में होगी, फिलहाल कहना मुश्किल है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि सेना बैरक में कब लौटेगी, कर्फ्यू पूरी तरह से नहीं हटाया गया है, इंटरनेट पूरी तरह से वापस नहीं आया है और शैक्षणिक संस्थान बंद हैं।
शेख हसीना और उनके सलाहकारों ने भी राजनीतिक रूप से गलतियाँ की हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि उन्होंने पिछले 16 वर्षों में लोकतांत्रिक-व्यवस्था को मजबूत करने की कोशिश नहीं की और जनमत को महत्व नहीं दिया। अवामी लीग जनता के मुद्दों को नजरंदाज़ करती रही। आरक्षण विरोधी आंदोलन को 'सरकार विरोधी आंदोलन' माना गया। उसे केवल कोटा सुधार आंदोलन के रूप में नहीं देखा। शेख हसीना के बेटे और उनके आईटी सलाहकार सजीब वाजेद जॉय ने सेना और न्याय-व्यवस्था से यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया है कि कोई भी अनिर्वाचित देश में नहीं आनी चाहिए। सवाल है कि क्या निकट भविष्य में चुनाव संभव है? भारत की दृष्टि से यह परेशानी का समय है।