दो लेखों की श्रृंखला का पहला भाग
दमिश्क में ईरानी दूतावास पर इसराइली हमले और
फिर इसराइल पर ईरानी हमले के बाद अंदेशा था कि पश्चिम एशिया में बड़ी लड़ाई की
शुरुआत हो गई है. हालांकि अंदेशा खत्म नहीं हुआ है, फिर भी लगता है कि दोनों पक्ष
मामले को ज्यादा बढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं. यों तो भरोसे के साथ कुछ भी नहीं
कहा जा सकता, पर लगता है कि शुक्रवार 19 अप्रेल को ईरान के इस्फ़हान शहर पर इसराइल
के एक सांकेतिक हमले के बाद फिलहाल मामला रफा-दफा हो गया है.
अमेरिकी मीडिया ने शुक्रवार की सुबह खबर दी कि इसराइल
ने ईरान के इस्फ़हान शहर पर जवाबी हमला बोला है. सबसे पहले अमेरिका के दो
अधिकारियों ने कहा कि इसराइल ने ईरान पर मिसाइल से हमला किया. अमेरिकी अधिकारियों
ने यह जानकारी सीबीएस न्यूज़ को दी.
इस्फ़हान में ईरान की सेना का बड़ा एयर बेस है
और इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों से जुड़े कई अहम ठिकाने भी हैं. ईरानी स्रोतों
ने पहले कहा कि कोई हमला नहीं हुआ है, पर बाद में माना कि उधर कुछ विस्फोट हुए
हैं. साथ ही विश्वस्त सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा गया कि देश के कई हिस्सों
में जो धमाके सुनाई पड़े थे, वे एयर डिफेंस सिस्टम के अज्ञात मिनी ड्रोन्स को
निशाना बनाने के कारण हुए थे.
सुरक्षा परिषद में वीटो
शुक्रवार की शाम तक, ईरान
के सरकारी मीडिया ने कहा कि इसराइल के इस हमले से ईरान को कोई ख़ास नुक़सान नहीं
पहुँचा और ईरान जवाबी कार्रवाई नहीं करेगा. दोनों देशों की इस समझदारी से क्या
फलस्तीन-समस्या के बाबत कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है?
क्या किसी दूरगामी समझौते के आसार निकट भविष्य
में बनेंगे? उससे पहले सवाल यह भी है कि फलस्तीन मसले में
ईरान की क्या कोई भूमिका है?
इन सवालों पर बात करने के पहले पिछले गुरुवार
को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र की पूर्ण
सदस्यता देने के एक प्रस्ताव पर भी नज़र डालें, जो अमेरिकी वीटो के बाद फिलहाल टल
गया है. इस टलने का मतलब क्या है और इसका फलस्तीन-इसराइल समस्या के स्थायी समाधान
से क्या कोई संबंध है?
प्रति-प्रश्न यह भी है कि प्रस्ताव पास हो जाता, तो क्या समस्या का समाधान हो जाता और अमेरिकी वीटो का मतलब क्या यह माना जाए कि वह फलस्तीन के गठन का विरोधी है? सबसे बड़ी रुकावट इसराइल को माना जाता है, जिसकी उग्र-नीतियाँ फलस्तीन को बनने से रोक रही हैं. माना यह भी जाता है कि फलस्तीनियों और उनके समर्थक मुस्लिम-देशों की सहमति बन जाए, तो इसराइल पर भी दबाव डाला जा सकता है.