Sunday, August 20, 2023

न्याय-प्रणाली पर व्यापक विचार का मौका


मॉनसून सत्र के आखिरी दिन 11 अगस्त को गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में भारतीय न्याय संहिता विधेयक-2023 पेश करके देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में बुनियादी बदलाव लाने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। एक महत्वपूर्ण और स्मरणीय सुधार माना जा रहा है। गृहमंत्री ने इस सिलसिले में तीन बिल पेश किए, जिनसे भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम में बड़े बदलाव होंगे। इन कानूनों का श्रेय अंग्रेजी राज को, खासतौर से टॉमस बैबिंगटन मैकॉले को दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने बहुत दूरदृष्टि के साथ यह काम किया था। सरकार का दावा है कि ये विधेयक औपनिवेशिक कानूनों की जगह पर राष्ट्रीय-दृष्टिकोण की स्थापना करेंगे। इसीलिए इनके नाम अंग्रेजी में नहीं, हिंदी में हैं। नए नाम हैं भारतीय न्याय संहिता-2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 और भारतीय साक्ष्य विधेयक-2023। 

इस दृष्टि से देखें, तो संकल्प सिद्धांततः अच्छा है, फिर भी इन्हें पास करने में जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। इनका हमारे जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। हालांकि इन्हें तैयार करने के पहले विमर्श की लंबी प्रक्रिया चली है, फिर भी इनके न्यायिक, सामाजिक और सामाजिक प्रभावों पर व्यापक विचार-विमर्श की ज़रूरत होगी। इन्हें पेश करने के बाद संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया। संसदीय समिति में इसके विभिन्न पहलुओं पर बारीकी से विचार होगा। उसके बाद इन्हें विधि आयोग के पास विचारार्थ भी भेजा जाएगा।

बुनियादी सवाल

यह समझने की जरूरत है कि इन विधेयकों को लाने का उद्देश्य क्या है? क्या कोई अघोषित उद्देश्य भी है? यह व्यवस्था क्या आपराधिक-न्याय प्रणाली के दोषों को दूर करके उसका ओवरहॉल कर सकती है? क्या केवल कानूनी बदलाव से यह ओवरहॉल संभव है? मतलब न्याय-प्रणाली और पुलिस-व्यवस्था में सुधार किए बगैर यह ओवरहॉल हो पाएगा? न्याय-प्रणाली और पुलिस-व्यवस्था में सुधार कौन और कैसे करेगा? अभी तक वह क्यों नहीं हो पाया है? ऐसे तमाम सवाल अब खड़े होंगे। सरसरी निगाह से भी देखें, तो ये तीनों विधेयक वर्तमान व्यवस्था में कुछ बदलावों का सुझाव दे रहे हैं, बुनियादी व्यवस्था-परिवर्तन इनसे भले न हो, फिर भी यह साहसिक-निर्णय है। इन कानूनों को अपनी तार्किक-परिणति तक पहुँचने के लिए देश की राजनीतिक और सामाजिक संरचना से होकर भी गुजरना होगा। विरोधी-राजनीति ने कुछ दूसरे सवाल उठाने के अलावा यह भी कहा है कि इन कानूनों को गुपचुपतरीके से लाया गया है वगैरह। क्या ऐसा है? सबसे पहले इस आरोप की जाँच करें।

तैयारी और पृष्ठभूमि

विधेयक पेश करते समय गृहमंत्री ने कहा कि सरकार ने पिछले चार साल में इस विषय पर काफी विचार-विमर्श किया है। सरकार ने 2019 में राज्यपालों, उप राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के साथ इस विषय पर बातचीत की थी। 2020 में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों, बार कौंसिलों और विधि विश्वविद्यालयों को इस विमर्श में शामिल किया गया। 2021 में सांसदों और आईपीएस अधिकारियों को पत्र भेजे गए। हमें 18 राज्यों, छह केंद्र शासित प्रदेशों, सुप्रीम कोर्ट और 16 हाईकोर्टों, पाँच ज्यूडीशियल अकादमियों, 142 सांसदों, 270 विधायकों और नागरिकों के सुझाव प्राप्त भी हुए हैं। ब्यूरो ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) को राज्यों तथा केंद्र के सुरक्षा बलों में नियुक्त आईपीएस अधिकारियों के सुझाव मिले हैं। इसके बाद नेशनल लॉ युनिवर्सिटी के कुलपति की अध्यक्षता में बनाई गई समिति ने विचार किया, जिसकी 58 औपचारिक और 100 अनौपचारिक बैठकें इस विषय पर हुईं। इसके पहले भी विधि आयोग देश की आपराधिक न्याय-व्यवस्था में सुधार के बारे में विचार करता रहा और सुझाव देता रहा है। 

इसके अलावा बेज़बरुआ समिति, विश्वनाथन समिति, मलिमथ समिति, माधव मेनन समिति ने भी सुझाव दिए हैं। संसद की स्थायी समिति ने 2005 में अपनी 111वीं, 2006 में 128वीं और 2010 में 146वीं रिपोर्टों में भी इस आशय के सुझाव दिए हैं। मई 2020 में महामारी के दौरान इस विषय पर सुझाव देने के लिए नेशनल लॉ युनिवर्सिटी के कुलपति की अध्यक्षता में बनी विशेषज्ञ समिति ने भी सुझाव दिए। इन सबको शामिल करते हुए भारत दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1898, 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 को समाप्त करते हुए उनके स्थान पर तीन नए कानूनों का प्रस्ताव किया है।

Thursday, August 17, 2023

चंद्रयान और उसके बहाने कुछ यादें

 


चंद्रयान-3 को लेकर एक पोस्ट मैंने फेसबुक पर बुधवार 16 अगस्त को लगाई तो मेरे मित्र संजय श्रीवास्तव ने लिखा कि चंद्रयान-1 ने चंद्रयान-3 के मुकाबले कम समय लगाया, ऐसा क्यों?  साइंस का मेरा ज्ञान सीमित है, जिज्ञासा ज्यादा है। इधर-उधर से पढ़कर मैं जो जान पाता हूँ, उसे ही शेयर करता हूँ। चंद्रयान पर आने से पहले मैं एक निजी अनुभव से शुरुआत करूँगा।

सत्तर के दशक में जब मैंने सबसे पहले लखनऊ के स्वतंत्र भारत में काम करना शुरू किया, तब पहले दिन ही मुझे चीफ सब एडिटर वीरेंद्र सिंह के साथ लगा दिया गया। मेरी राय में वीरेंद्र सिंह निश्चित रूप से अपने दौर के सबसे काबिल पत्रकारों में से एक थे। कई कारणों से उनकी प्रतिभा को सामने आने का मौका मिला नहीं। अलबत्ता जो लोग पुराने जमाने की नवनीत में पुस्तक सार पढ़ते रहे हैं, उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बड़ी संख्या में पुस्तक सार वीरेंद्र सिंह ने लिखे थे।

मुझे सबसे पहले मिड शिफ्ट में काम करने का मौका मिला, जिसमें तीन से रात के नौ बजे तक काम होता था। वीरेंद्र सिंह ने मुझे स्पेस से जुड़ी पीटीआई की एक खबर पकड़ा दी। खबर काफी लंबी थी और मैंने पूरी खबर बना दी। वह खबर अखबार के आखिरी पेज पर टॉप बॉक्स के रूप में छपी। अपने लिखे अक्षर पहली बार खबर के रूप में देखकर जो खुशी मिलती है, वह खासतौर से पत्रकार दोस्तों को बताने की जरूरत नहीं।

बहरहाल अंतरिक्ष से मेरी दोस्ती की वह शुरुआत थी। मुझे पहली बार यह भी समझ में आया कि हिंदी की पत्रकारिता, मुकाबले अंग्रेजी की पत्रकारिता के, ज्यादा चुनौती भरी क्यों है। नीचे इस आलेख में आप एपोजी और पेरिजी कक्षाओं का जिक्र पढ़ेंगे। मैं अंग्रेजी का पत्रकार होता, तो कॉपी को अपर लोअर (अंग्रेजी के पत्रकार जानते हैं कि यह क्या है) करके छुट्टी कर लेता, पर मुझे एपोजी और पेरिजी को समझना पड़ा। और वह इंटरनेट का ज़माना नहीं था। बहरहाल।

हल्का और भारी पेलोड

संजय के सवाल के सिलसिले में जो जानकारी मैं हासिल कर पाया हूँ, उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि ऐसा कई कारणों से हो सकता है। चंद्रयान-1 का पेलोड बहुत हल्का था। वह इंपैक्टर था। उसे तो चंद्रमा से टकराना भर था। चंद्रयान-2 उसकी तुलना में काफी भारी थी और चंद्रयान-3 और ज्यादा भारी है। ऐसे में पृथ्वी और चंद्रमा की कक्षा में दायरा बढ़ाने और घटाने की प्रक्रिया चलती है, जिसमें काफी सावधानी बरतनी होती है। चंद्रयान-1 को चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश करने के बाद दायरा छोटा करने में समय लगा। चंद्रयान-2 अंतिम कुछ सेकंडों में अपनी स्पीड को काबू में नहीं रख पाया।

भारत-पाकिस्तान एकसाथ ‘15 अगस्त’ क्यों नहीं मनाते?

पाकिस्तान की स्वतंत्रता की पहली वर्षगाँठ पर जारी डाक टिकट, जिसमें स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त बताया गया है। 

भारत और पाकिस्तान के टाइम-ज़ोन अलग-अलग हैं. स्वाभाविक है, दोनों की भौगोलिक स्थितियाँ अलग हैं, इसलिए टाइम-ज़ोनभी अलग हैं, पर दोनों के स्वतंत्रता दिवस अलग क्यों हैं?  एक दिन आगे-पीछे क्यों मनाए जाते हैं, जबकि दोनों ने एक ही दिन स्वतंत्र देश के रूप में जन्म लिया था? इसके पीछे पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान की खुद को भारत से अलग नज़र आने की चाहत है.

पाकिस्तान में एक तबका खुद को भारत से अलग साबित करने पर ज़ोर देता है. उन्हें लगता है कि हम भारत के साथ एकता को स्वीकार कर लेंगे, तो इससे हमारे अलग अस्तित्व के सामने खतरा पैदा हो जाएगा. उनकी कोशिश होती हैं कि देश के इतिहास को भी केवल इस्लामी इतिहास के रूप में पेश किया जाए. सरकारी पाठ्य-पुस्तकों में इतिहास का काफी काट-छाँटकर विवरण दिया जाता है.

बेशक, यह न तो पूरे देश की राय है और न संज़ीदा लेखक, विचारक ऐसा मानते हैं, पर एक तबका ऐसा ज़रूर है, जो भारत से अलग नज़र आने के लिए कुछ भी करने को आतुर रहता है. इस इलाके में एकता से जुड़े जो सुझाव आते हैं, उनमें दक्षिण एशिया महासंघ बनाने, एक-दूसरे के यहाँ आवागमन आसान करने, वीज़ा की अनिवार्यता खत्म करने और कलाकारों, खिलाड़ियों तथा सांस्कृतिक-सामाजिक कर्मियों के आने-जाने की सलाह दी जाती है.

1857 की वर्षगाँठ

इन सलाहों पर अमल कौन और कब करेगा, इसका पता नहीं, अलबत्ता 14 और 15 अगस्त के फर्क से पता लगता है कि किसी को न बातों पर आपत्ति है. 2006-07 में जब भारत में 1857 की क्रांति की 150वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी, तब एक प्रस्ताव था कि भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश तीनों मिलकर इसे मनाएं, क्योंकि ये तीनों देश उस संग्राम के गवाह हैं.

जनवरी 2004 में दक्षेस देशों के इस्लामाबाद में हुए 12वें शिखर सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सुझाव दिया था कि क्यों न हम 2007 में 1857 की 150वीं वर्षगाँठ तीनों देश मिलकर मनाएं. पाकिस्तान के विदेश विभाग के प्रवक्ता मसूद खान से जब यह सवाल पूछा गया, तब उन्होंने कहा, इसका जवाब है नहीं. उसके अगले दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़फरुल्ला खां जमाली ने कहा, देखते हैं विचार करेंगे. वैसे पाकिस्तान 1857 को दूसरी निगाह से देखता है.

बहरहाल दोनों देशों के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हमारा सवाल बनता है कि हम मिलकर एक ही दिन अपना स्वतंत्रता-दिवस क्यों नहीं मनाते? इसके जवाब में अजब-गजब बातें कही जाती हैं.

एक दिन पहले शपथ

भारत 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ, तो पाकिस्तान भी उसी दिन आज़ाद हुए. भ्रम केवल इस बात से है कि पाकिस्तान की संविधान सभा में गवर्नर जनरल और वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन का भाषण और उसके बाद का रात्रिभोज 14 अगस्त को हुआ था.

चूंकि भारत ने अपना कार्यक्रम मध्यरात्रि से रखा था, इसलिए यह सम्भव नहीं था कि वे कराची और दिल्ली में एक ही समय पर उपस्थित हो पाते. किसी ने ऐसा सोचा होता, तो शायद दोनों देशों की सीमा पर 14-15 की मध्यरात्रि को एक ऐसा समारोह कर लिया जाता, जिसमें दोनों देशों का जन्म एकसाथ होता.

शायद इस वजह से 14 अगस्त की तारीख को चुना गया, पर 14 अगस्त को पाकिस्तान बना ही नहीं था. शपथ दिलाने से पाकिस्तान बन नहीं गया, वह 15 को ही बना. तब पाकिस्तान ने 15 अगस्त को ही स्वतंत्रता दिवस मनाया और कई साल तक 15 को मनाया.

Wednesday, August 16, 2023

चंद्रयान-3 और लूना-25 की रेस

एक हफ्ते बाद संभवतः 23 अगस्त को चंद्रयान-3 की चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग होगी। इसके एक या दो दिन पहले रूसी मिशन लूना-25 चंद्रमा पर उतर चुका होगा। चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण 14 जुलाई को हुआ था, जबकि रूसी मिशन का प्रक्षेपण 10 अगस्त को हुआ। आपके मन में सवाल होगा कि फिर भी रूसी यान भारतीय यान से पहले क्यों पहुँचेगा? चंद्रयान-3 चंद्रमा की सतह पर तभी उतरेगा, जब वहाँ की भोर शुरू होगी। चूंकि रूसी लैंडर भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा, इसलिए संभवतः रूस इस बात का श्रेय लेना चाहता है कि दक्षिणी ध्रुव पर उतने वाला पहला यान रूसी हो। दक्षिणी ध्रुव पर अभी तक किसी देश का यान नहीं उतरा है।

चंद्रमा का एक दिन धरती के 14 दिन के बराबर होता है। चंद्रयान-3 केवल 14 दिन काम करने के लिए बनाया गया है, जबकि रूसी यान करीब एक साल काम करेगा। लूना-25 जिस जगह उतरेगा वहाँ भोर दो दिन पहले होगी। भोर का महत्व इसलिए है, क्योंकि चंद्रमा की रात बेहद ठंडी होती है। वहाँ दिन का तापमान 140 डिग्री से ऊपर होता है और रात का माइनस 180 से भी नीचे।

खुशहाली की राहों में हम होंगे कामयाब


आज़ादी के सपने-09

कई साल से देश में एक कहावत चल रही है, सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान.’ यह बात ट्रकों के पीछे लिखी नजर आती है. यह एक प्रकार का सामाजिक अंतर्मंथन है कि हम अपना मजाक उड़ाना भी जानते हैं. दूसरी तरफ एक सचाई की स्वीकृति भी थी. 

हताश होकर हम अपना मजाक उड़ाते हैं. पर हम विचलित हैं, हारे नहीं हैं. सच यह है कि भारत जैसे देश को बदलने और एक नई व्यवस्था को कायम करने के लिए 76 साल काफी नहीं होते. खासतौर से तब जब हमें ऐसा देश मिला हो, जो औपनिवेशिक दौर में बहुत कुछ खो चुका हो.

मदर इंडिया

फिल्म ‘मदर इंडिया’ की रिलीज के कई दशक बाद एक टीवी चैनल के एंकर इस फिल्म के एक सीन का वर्णन कर रहे थे, जिसमें फिल्म की हीरोइन राधा (नर्गिस) को अपने कंधे पर रखकर खेत में हल चलाना पड़ता है.

चैनल का कहना था कि हमारे संवाददाता ने महाराष्ट्र के सतारा जिले के जावली तालुक के भोगावाली गाँव में खेत में बैल की जगह महिलाओं को ही जुते हुए देखा तो उन्होंने उस सच को कैमरे के जरिए सामने रखा, जिसे देखकर सरकारें आँख मूँद लेना बेहतर समझती हैं.

1957 में रिलीज़ हुई महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं. स्वतंत्रता के ठीक दस साल बाद बनी इस फिल्म की कहानी के परिवेश और पृष्ठभूमि में काफी बदलाव आ चुका है. यह फिल्म बदहाली की नहीं, बदहाली से लड़ने की कहानी है.

भारतीय गाँवों की तस्वीर काफी बदल चुकी है या बदल रही है, फिर भी यह फिल्म आज भी पसंद की जाती है. टीवी चैनलों को ट्यून करें, तो आज भी यह कहीं दिखाई जा रही होगी. मुद्रास्फीति की दर के साथ हिसाब लगाया जाए तो ‘मदर इंडिया’ देश की आजतक की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म साबित होगी.