Sunday, June 18, 2023

भारत की विलक्षण ‘सॉफ्ट पावर’ योग


पिछले आठ साल से दुनिया भर में पूरे उत्साह से मनाए गए अंतरराष्ट्रीय योग दिवस ने भारत की सॉफ्ट पावरको मज़बूती दी है। 21 जून 2015 को, जिस दिन पहला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब 37,000 लोगों के साथ योग का प्रदर्शन किया। यह असाधारण परिघटना थी, पर अकेली नहीं थी। ऐसे तमाम प्रदर्शन दुनिया के देशों में हुए थे। उस अवसर पर दुनिया के हर कोने से, योग-प्रदर्शन की तस्वीरें आईं थीं। अब प्रधानमंत्री 20 से 25 जून तक अमेरिका और मिस्र की यात्रा पर जा रहे हैं। यह यात्रा अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है, और उसके व्यापक राजनयिक निहितार्थ हैं, पर फिलहाल यह जानकारी महत्वपूर्ण है कि न्यूयॉर्क स्थित संरा मुख्यालय में वे अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का नेतृत्व करेंगे। यह भारत की सॉफ्ट पावर है। सॉफ्ट पावर का मतलब है बिना किसी ज़ोर-ज़बरदस्ती के दूसरों को प्रभावित करना। योग के मार्फत दुनिया का बदलते भारत से परिचय हो रहा है। योग के सैकड़ों कॉपीराइट दुनिया भर में कराए गए हैं। भारत में जन्मी इस विद्या के बहुत से ट्रेडमार्क दूसरे देशों के नागरिकों ने तैयार कर लिए हैं। एक उद्यम के रूप में भी योग विकसित हो रहा है। यह दुनिया को भारत का वरदान है।

हमारी सॉफ्ट पावर

भारत के पास प्राचीन संस्कृति और समृद्ध ऐतिहासिक विरासत है। हम अपनी इस विरासत को दुनिया के सामने अच्छी तरह पेश करें तो देश की छवि अपने आप निखरती जाएगी। इसी तरह भारत में बौद्ध संस्कृति से जुड़े महत्वपूर्ण केंद्र हैं। यह संस्कृति जापान, चीन, कोरिया और पूर्वी एशिया के कई देशों को आकर्षित करती है। अंतरराष्ट्रीय पर्यटन हमारी सॉफ्ट पावर को बढ़ाएगा। गूगल के तत्कालीन कार्याधिकारी अध्यक्ष एरिक श्मिट ने कुछ साल पहले कहा था कि आने वाले समय में भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट बाज़ार बन जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ बरसों में इंटरनेट पर जिन तीन भाषाओं का दबदबा होगा वे हैं- हिंदी, मंडारिन और अंग्रेजी। जिस तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों का वैश्विक-प्रसार अमेरिका की सॉफ्ट पावर है, तो, भारत के लिए यही काम योग करता है। अगले एक दशक में योग की इस ताक़त को आप राष्ट्रीय शक्ति के रूप में देखेंगे। योग यानी भारत की शक्ति। विदेश नीति का लक्ष्य होता है राष्ट्रीय हितों की रक्षा। इसमें देश की फौजी और आर्थिक शक्ति से लेकर सांस्कृतिक शक्ति तक का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे इन दिनों ‘सॉफ्ट पावर’ कहते हैं। अमेरिका की ताकत केवल उसकी सेना की ताकत नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था, नवोन्मेषी विज्ञान-तकनीक और यहाँ तक कि उसकी संस्कृति और जीवन शैली ताकत को साबित करती है। करवट बदलती दुनिया में भारत भी अपनी भूमिका को स्थापित कर रहा है।

Wednesday, June 14, 2023

राष्ट्रीय-प्रतिष्ठा से जुड़ी है ‘कोहिनूर’ और पुरावस्तुओं की वापसी


हाल में भारतीय संसद की एक स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ‘कोहिनूर’ हीरे को वापस लाने की भारत की माँग जायज़ है. हालांकि हाल के वर्षों में संस्कृति मंत्रालय और विदेश मंत्रालय की कोशिशों से भारत की पुरानी कलाकृतियाँ और पुरातात्विक वस्तुएं देश में आई हैं, फिर भी ‘कोहिनूर’ हीरे को देश में वापस लाना आसान नहीं है.

‘कोहिनूर’ को लौटाने की माँग सिर्फ भारत ही नहीं करता, बल्कि पाकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान की भी इसपर दावेदारी है. भारत ने पहली बार ब्रिटेन से 1947 में आजादी मिलने के बाद ही इसे सौंपने की मांग की थी. दूसरी बार 1953 में मांग की गई.

2000 में भारत की तरफ से फिर माँग की गई. कुछ सांसदों ने ब्रिटिश सरकार को चिट्ठी लिखी. ब्रिटिश सरकार ने तब कहा कि ‘कोहिनूर’ के कई दावेदार हैं. 2016 में भारत के संस्कृति मंत्रालय ने कहा कि वह ‘कोहिनूर’ को भारत लाने के लिए हर संभव प्रयास करेगा.

जुलाई 2010 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन भारत दौरे पर आए तो ‘कोहिनूर’ लौटाने की बात उनके सामने भी उठी. कैमरन ने तब कहा कि ऐसी मांगों पर हाँ कर दें, तो ब्रिटिश म्यूजियम खाली हो जाएंगे. फरवरी 2013 में भारत दौरे पर कैमरन ने फिर कहा कि ब्रिटेन ‘कोहिनूर’ नहीं लौटा सकता.

क्वीन कैमिला ने नहीं पहना

पिछले साल ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय के निधन के बाद और हाल में उनके पुत्र किंग चार्ल्स तृतीय के राज्याभिषेक के दौरान कई बार ‘कोहिनूर’  का जिक्र हुआ. यह चर्चा इसलिए भी हुई, क्योंकि ‘कोहिनूर’ हीरा महारानी एलिज़ाबेथ के मुकुट में था, पर रानी कैमिला के मुकुट में नहीं है. उसकी जगह महारानी मैरी के मुकुट को सजा-सँवार उन्हें पहनाया गया.

अब राजपरिवार को लगता है कि ‘कोहिनूर’ पहनने से भारत के साथ राजनयिक संबंधों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार राजपरिवार अब यह मानने लगा है कि ‘कोहिनूर’ हीरा जबरन हासिल किया गया था.

Sunday, June 11, 2023

कृत्रिम मेधा के खतरे और वरदान


पिछले हफ्ते तमाम बड़ी खबरों के बीच तकनीक और विज्ञान से जुड़ी एक खबर को उतना महत्व नहीं मिला, जितने की वह हकदार थी। ओपनएआई के सीईओ सैम अल्टमैन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की, जिसके बाद प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया: अंतर्दृष्टिपूर्ण बातचीत के लिए सैम अल्टमैन को धन्यवाद…हम उन सभी सहयोगों का स्वागत करते हैं, जो नागरिकों को सशक्त बनाने के लिए हमारे डिजिटल बदलाव को गति दे सकते हैं। यह मुलाकात भले ही बड़ी खबर नहीं बनी हो, पर आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस यानी एआई इन दिनों तकनीकी-विमर्श के शिखर पर है। मई के महीने में जापान में हुई जी-7 की बैठक में आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस पर विचार भी एजेंडा में शामिल था। उन्हीं दिनों जब ओपनएआई ने आईओएस के लिए चैटजीपीटी ऍप लॉन्च किया, तब से इसका ज़िक्र काफी हो रहा है। चैटजीपीटी ओपन एआई द्वारा विकसित नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग मॉडल है। इसके बारे में विवरण पहली बार 2018 में एक शोधपत्र  में प्रकाशित किया गया था। इसे आप गूगल की तरह का एक टूल मान सकते हैं, जो आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की मदद से प्रश्नों के जवाब देता है। महत्वपूर्ण चैटजीपीटी या ओपनएआई नहीं, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस है, जिसे मनुष्य-जाति के लिए तकनीकी वरदान माना जा रहा है, वहीं इसे खतरा भी माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि यह तकनीक अंततः मनुष्य-जाति के अस्तित्व के लिए खतरे पैदा कर सकती है। 

ओपनएआई

आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (एआई) से जुड़ी रिसर्च लैबोरेटरी ओपनएआई आईएनसी, नॉन-प्रॉफिट संस्था है, जिससे जुड़ी ओपनएआई एलपी लाभकारी संस्था है। इसकी स्थापना 2015 में सैम अल्टमैन, एलन मस्क और कुछ अन्य व्यक्तियों ने सैन फ्रांसिस्को में की थी। फरवरी, 2018 में मस्क ने इसके बोर्ड से इस्तीफा दे दिया था, पर वे डोनर के रूप में इसके साथ बने रहे। इसके बाद माइक्रोसॉफ्ट और मैथ्यू ब्राउन कंपनी ने इसमें निवेश किया। इस साल माइक्रोसॉफ्ट ने इसमें 10 अरब डॉलर का एक और निवेश किया है। आईआईटी दिल्ली में डिजिटल इंडिया डायलॉग्स कार्यक्रम में, अल्टमैन ने खुलासा किया कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनकी मुलाकात मजेदार रही। पीएम मोदी आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (एआई) को लेकर उत्साहित हैं। अल्टमैन ने कहा कि उन्होंने उभरती प्रौद्योगिकी के डाउनसाइड्स, यानी खतरों पर भी चर्चा की।

खतरा कैसा खतरा?

यह अंदेशा कंप्यूटर-युग की शुरुआत में ही व्यक्त किया गया था कि जब मशीनें मनुष्य का स्थान लेने लगेंगी, तब उसका विस्तार एक दिन इंसान के अंत के रूप में भी हो सकता है। अब विशेषज्ञ खुलकर कह रहे हैं कि आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस से इंसानी वजूद को ख़तरा हो सकता है। उसका हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। मसलन ड्रग डिस्कवरी टूल्स की मदद से रासायनिक हथियार बनाए जा सकते हैं। फ़ेक जानकारियाँ अस्थिरता पैदा करेंगी। साथ ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित होगी। एआई की ताक़त थोड़े से हाथों में सिमटने का खतरा भी है।  सरकारें बड़े पैमाने पर लोगों की निगरानी करने और दमनकारी सेंसरशिप के लिए इस्तेमाल करेंगी। मनुष्य एआई पर निर्भर होकर जबर्दस्त आलसी बन जाएंगे और मशीनें अमर होने के तरीके खोज लेंगी, जैसा पिक्सेल फ़िल्म वॉल ई जैसी फिल्मों में दिखाया गया है। दूसरी तरफ एआई वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि ऐसे सर्वनाश की परिकल्पना भी कुछ ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर बताई जा रही है।

Friday, June 9, 2023

संस्कृति और अपनी ज़मीन से जुड़े भारतीय मुसलमान

कुछ प्रसिद्ध मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी

नवंबर 2003 की बात है. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने लोकतंत्र से जुड़े एक कार्यक्रम में कहा कि भारत ने लोकतंत्र और बहुधर्मी-समाज के निर्माण की दिशा में अद्भुत काम किया है. उन्होंने कहा कि भारतीय मुसलमानों ने साबित किया है कि इस्लाम का लोकतंत्र के साथ समन्वय संभव है.

जॉर्ज बुश ने एक जगह इस बात का जिक्र भी किया है कि अल-कायदा के नेटवर्क में भारतीय मुसलमान नहीं हैं. हालांकि बाबरी मस्जिद और गुजरात के प्रकरण के बाद भारतीय मुसलमानों को भड़काने के प्रयास किए गए, पर उन्हें सफलता नहीं मिली.

उसके भी पहले अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ लड़ने वाले 'मुजाहिदीन' के बीच भारत के मुसलमान या तो थे ही नहीं और थे भी, तो बहुत कम संख्या में थे. आज तो स्थिति और भी बदली हुई है. भारतीय-संस्कृति और लोकतंत्र में मुसलमानों की भूमिका अपने आप में विषद विषय है.  इस छोटे से संदर्भ में भी उनकी भूमिका पर नज़र डालें, तो रोचक बातें सामने आती हैं.  

वैश्विक लड़ाई से दूर

भारत में मुसलमानों की आबादी इंडोनेशिया और पाकिस्तान की आबादियों के करीब-करीब बराबर है. पश्चिम एशिया के देशों के नागरिक जितनी बड़ी संख्या में विदेशी-युद्धों में लड़ते दिखाई पड़ते हैं, उनकी तुलना में भारतीयों की संख्या नगण्य है. उन छोटे देशों की कुल आबादी की तुलना में उनके लड़ाकों का प्रतिशत देखा जाए तो वह बहुत ज्यादा होगा.

भारतीय मुसलमान ने वैश्विक-आतंकवाद को नकारा है. इसकी वजह भारतीय समाज और संस्कृति में खोजी जा सकते हैं. हमें इस बात को हमेशा ध्यान में रखना होगा कि जिस भारत का विभाजन इस्लाम के आधार पर हुआ, उसमें आज भी तकरीबन उतने ही मुसलमान नागरिक हैं, जितने पाकिस्तान में हैं. उन्होंने भारत में ही रहना चाहा, तो उसका कोई कारण जरूर था.

उनकी देशभक्ति को लेकर किसी प्रमाण की जरूरत ही नहीं है. काउंटर-टेरर रणनीति बनाने वालों को इस फैक्टर पर गहराई से विचार करना चाहिए कि कौन से सांस्कृतिक-भावनात्मक और मानसिक कारण भारतीय मुसलमानों को अपनी ज़मीन से जोड़कर रखते हैं.

अतिवादी तत्व

यह भी नहीं कह सकते कि उनके बीच चरमपंथी नहीं हैं. उनके बीच अतिवादी तत्व भी हैं, पर सीमित संख्या में हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि जब वैश्विक-स्तर पर काफी बड़ी आबादी टकराव के रास्ते पर है, भारतीय मुसलमान उससे अपेक्षाकृत दूर हैं. हमारे जीवन में दोनों तरफ से जहरीली बातें भी हैं. उनकी प्रतिक्रिया भी होती है, पर देश की न्यायपालिका और जिम्मेदार नागरिक इस बदमज़गी को बढ़ने से रोकते हैं.  

Wednesday, June 7, 2023

इमरान बनाम सेना बनाम पाकिस्तानी लोकतंत्र


पाकिस्तानी राजनीति में इमरान खान का जितनी तेजी से उभार हुआ था, अब उतनी ही तेजी से पराभव होता दिखाई पड़ रहा है. उनकी पार्टी के वफादार सहयोगी एक-एक करके साथ छोड़ रहे हैं. कयास हैं कि उन्हें जेल में डाला जाएगा, देश-निकाला हो सकता है, उनकी पार्टी को बैन किया जा सकता है वगैरह.

पाकिस्तान में कुछ भी हो सकता है. ऊपर जो बातें गिनाई हैं, ऐसा अतीत में कई बार हो चुका है. पहले भी सेना ने ऐसा किया था और इस वक्त इमरान के खिलाफ कार्रवाई भी सेना ही कर रही है. परीक्षा पाकिस्तानी नागरिकों की है. क्या वे यह सब अब भी होने देंगे?

कुल मिलाकर यह लोकतंत्र की पराजय है. इमरान खान ने सेना का सहारा लेकर प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों को पीटा, अब वे खुद उसी लाठी से मार खा रहे हैं. पर उन्होंने अपनी इस गलती को कभी नहीं माना. 

ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने लिखा है कि इमरान को पिछले साल अपदस्थ करने के बजाय, लँगड़ाते हुए ही चलने दिया जाता, तो अगले चुनाव में जनता उसे रद्द कर देती. लोकतंत्र में खराब सरकारों को जनता खारिज करती है. इसकी नज़ीर बनती है और आने वाले वक्त की सरकारें डरती हैं.

सेना का हस्तक्षेप

जनरलों ने किसी भी सरकार को पूरे पाँच साल काम करने नहीं दिया. पिछले साल इमरान को हटाने के पीछे भी जनरल ही थे, जिन्होंने एक विफल राजनेता को सफल बनने का मौका दिया. इमरान ने साजिशों की कहानियाँ गढ़ लीं, और उनके समर्थकों की तादाद बढ़ती चली गई.