भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-2
आजादी के 75 साल बाद भी यदि मैं आपको सुझाव दूँ कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दासता छोड़ें, तो आपको हैरत होगी। काफी लोग समझते हैं कि ब्रिटिश सरकार का शासन तो गया। वस्तुतः जब आप अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को ज्ञान-विज्ञान की भाषा मानते हुए आगे बढ़ते हैं, तब यह सवाल पैदा होता है कि उच्च शिक्षा या ज्ञान-विज्ञान का माध्यम भारतीय भाषाएं क्यों न बनें? भारत में अंग्रेजी का स्तर दुनिया के बहुत से गैर-अंग्रेजी देशों से बेहतर है, इसमें दो राय नहीं, पर क्या केवल इसी वजह से हमें अपनी शिक्षा-व्यवस्था को अंग्रेजी के हवाले कर देना चाहिए? हमने भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा के बारे में क्यों नहीं सोचा? इसके भी दो-तीन बड़े कारण हैं। एक तो भारतीय भाषाओं में विज्ञान और तकनीकी साहित्य की कमी और इनके माध्यम से शिक्षा प्रदान करने वाली व्यवस्थाओं की अनुपस्थिति।
माना यह भी जाता है कि हम अंग्रेजी में शिक्षा
पाने के बाद वैश्विक समुदाय के बराबर आ जाते हैं और वैश्विक विद्वानों से हमारा
संवाद आसानी से संभव है। हमारी तुलना में चीन जैसे देशों को दिक्कत होती है। पर
क्या चीन का अकादमिक स्तर हम से कम है? हम से कम नहीं हमसे बेहतर ही है। हमें
अपने सॉफ्टवेयर कार्यक्रम पर गर्व है, क्योंकि उसमें अंग्रेजी की सहायता हमें
मिली। पर सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी चीन हमसे पीछे नहीं है। फर्क केवल यह है कि
हम पश्चिमी देशों के लिए सॉफ्टवेयर का काम करते हैं और चीन अपने आंतरिक कार्यों के
लिए सॉफ्टवेयर बनाता है।
आप अपने मोबाइल फोनों को देखें, तो पाएंगे कि
चीनी सॉफ्टवेयर गेमिंग और मनोरंजन से जुड़े सॉफ्टवेयरों में भी काफी आगे हैं।
मेडिकल साइंस, नाभिकीय ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े तमाम शोध वे अपनी भाषा
में ही करते हैं। यही बात जापान, कोरिया और इसरायल जैसे देशों पर लागू होती है।
यूरोप के गैर-अंग्रेजी भाषी देशों की बात करना उचित नहीं होगा, क्योंकि उनकी
भाषाएं पहले से काफी समृद्ध हैं।
भारत की समस्या राजनीतिक है, जिसके पीछे सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलता को बड़ा कारक माना जाता है। माना जाता है कि अंग्रेजी हमें जोड़ती है। देश के सभी इलाके के लोगों को अंग्रेजी स्वीकार्य है। ऐसी कोई भारतीय भाषा नहीं है, जो पूरे देश को जोड़ती हो और जिसे पूरा देश स्वीकार करता हो। यह बात एक हद तक सही है, पर पूरी तरह सही नहीं है। देश के स्वतंत्रता संग्राम की भाषा काफी हद तक हिंदी या हिंदुस्तानी थी, अंग्रेजी नहीं। महात्मा गांधी ने भारत आने से पहले दक्षिण अफ्रीका से अपना अखबार शुरू किया तो उसमें अंग्रेजी के अलावा गुजराती हिन्दी और तमिल का इस्तेमाल भी किया और भारत आने बाद तो देशभर में जनता के बीच वे हिंदी या हिंदुस्तानी का इस्तेमाल ही करते थे।