Saturday, August 20, 2022

कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर असमंजस जारी


घोषित कार्यक्रम के अनुसार कांग्रेस के अध्यक्ष पद की चुनाव प्रक्रिया 21 अगस्त से 20 सितंबर के बीच पूरी की जानी है। चुनाव की तारीख कार्यसमिति तय करेगी। अभी तक कार्यसमिति की बैठक का कार्यक्रम तय नहीं है। इस चुनाव में सभी राज्यों के 9,000 से अधिक प्रतिनिधि मतदाता होंगे। मधुसूदन मिस्त्री की अध्यक्षता में पार्टी की चुनाव-समिति ने कहा है कि हम समय पर चुनाव के लिए तैयार हैं। फिर भी लगता नहीं कि चुनाव हो पाएंगे। राज्यों के अध्यक्षों का चुनाव भी 20 अगस्त तक होना था, लेकिन यह प्रक्रिया किसी भी राज्य में पूरी नहीं हुई है।

चुनाव टलते जाने की सबसे बड़ी वजह यह है कि राहुल गांधी फिर से इस पद पर वापसी के लिए तैयार नहीं हैं और पार्टी किसी दूसरे व्यक्ति के नाम को लेकर मन बना नहीं पाई है। पार्टी के वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि राहुल गांधी ही इस पद पर आएं या फिर परिवार का कोई दूसरा सदस्य इस पद पर आए। पर राहुल और सोनिया गांधी कई बार कह चुके हैं कि गांधी परिवार से अब कोई अध्यक्ष नहीं बनेगा।

अब सुना जा रहा है कि किसी ऐसे नेता को पार्टी की कमान सौंपने की तैयारी की जा रही है, जो परिवार का विश्वस्त हो। शायद कुछ नेता खुद को दावेदार मानते हैं, पर वे खुलकर नहीं कहते। चुनाव की खुली घोषणा हो, तो नाम सामने आ भी सकते हैं। पर परिवार किसी एक नाम का इशारा करेगा, तो उसपर सहमति बन जाएगी। इस बीच जो नाम निकल कर आ रहे हैं, उनमें अशोक गहलोत, मल्लिकार्जुन खड़गे, मुकुल वासनिक, सुशील कुमार शिंदे, मीरा कुमार, कुमारी शैलजा और केसी वेणुगोपाल शामिल हैं। पर ज्यादातर कयास हैं।  

Friday, August 19, 2022

‘हम भारत के लोग’ पूरा करेंगे ‘नए भारत’ का सपना


जब हम स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे कर रहे हैं, तब हमारे मन में कुछ बातें आती हैं। क्या यह स्वतंत्रता सार्थक रही है? कैसा है हमारा भविष्य? 15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था। अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी। सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी। यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी। क्या इतिहास के इस पहिए को हम उल्टा घुमा सकते हैं?

15 अगस्त, 1947 को जवाहर लाल नेहरू ने कहा, इतिहास के प्रारंभ से ही भारत ने अपनी अनंत खोज आरंभ की थी। अनगिनत सदियां उसके उद्यम, अपार सफलताओं और असफलताओं से भरी हैं। अपने सौभाग्य और दुर्भाग्य के दिनों में उसने इस खोज को आँखों से ओझल नहीं होने दिया और न ही उन आदर्शों को ही भुलाया, जिनसे उसे शक्ति प्राप्त हुई। हम आज दुर्भाग्य की एक अवधि पूरी करते हैं। आज भारत ने अपने आप को फिर पहचाना है आज हम जिस उपलब्धि का जश्‍न मना रहे हैं, वह हमारी राह देख रही महान विजयों और उपलब्धियों की दिशा में महज एक कदम है।

इस भाषण के दो साल बाद 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में भीमराव आंबेडकर ने कहा, राजनीतिक लोकतंत्र तबतक विफल है, जबतक उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र नहीं हो। हमारी राजनीति में अनेक दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती हैं। यह फर्क उसके राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। बीसवीं सदी के शुरू में इस आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ली और तबसे लगातार इसकी शक्ल राष्ट्रीय रही। इस आंदोलन के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के आंदोलन भी चले। इनमें कुछ अलगाववादी भी थे, पर एक वृहत भारत की संकल्पना कमजोर नहीं हुई। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ। छोटे देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे भारत के पक्ष में थी। यह एक नई राजनीति थी, जिसकी धुरी था लोकतंत्र।

फिराक गोरखपुरी की पंक्ति है, ‘सरज़मीने हिन्द पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/ काफ़िले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया।’ भारत को उसकी विविधता और विशालता में ही परिभाषित किया जा सकता है। भारत हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है, पर लोकतंत्र नई अवधारणा है। यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं। स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन।

देश की संवैधानिक व्यवस्था पर विचार करते समय इस बारे में कभी दो राय नहीं थी कि यह काम सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा और इसमें क्षेत्र, जाति, धर्म और लिंग का भेदभाव नहीं होगा। नए भारत का पुनर्निर्माण होना है। देश ने सन 1948 में पहली औद्योगिक-नीति के तहत मिश्रित-अर्थव्यवस्था को अपनाने का फैसला किया। उसके पहले जेआरडी टाटा, घनश्याम दास बिड़ला सहित देश के आठ उद्योगपतियों में ‘बॉम्बे-प्लान’ के रूप में एक रूपरेखा पेश की थी। इसमें सार्वजनिक उद्योगों की महत्ता को स्वीकार किया गया था, पर स्वदेशी उद्योगों को संरक्षण देने का सुझाव भी दिया गया था।

बिहार का बदलाव विरोधी दलों की राष्ट्रीय-राजनीति का प्रस्थान-बिंदु बनेगा

बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की जोड़ी ने शपथ लेकर एक नई राजनीतिक शुरुआत की है। इससे बिहार में ही नहीं देशभर में विरोधी दलों का आत्मविश्वास लौट आया है। पहली बार भारतीय जनता पार्टी अर्दब में दिखाई पड़ रही है। सवाल है कि राज्य की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ेगी? क्या तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी की समझदारी बढ़ी है? नए सत्ता समीकरणों में कांग्रेस की भूमिका क्या है? शेष छोटे दलों का व्यवहार कैसा रहेगा वगैरह? ये सवाल बिहार तक ही सीमित नहीं हैं। इस बदलाव को विरोधी दलों की राष्ट्रीय-राजनीति का प्रस्थान-बिंदु बनना चाहिए।  

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक अरसे से प्रयास कर रही हैं कि बीजेपी के आक्रामक रवैए को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी दलों को एकजुट होना चाहिए। ममता बनर्जी ने बिहार में हुए परिवर्तन पर खुशी जाहिर की है। तृणमूल कांग्रेस ने नीतीश कुमार के कदम का स्वागत किया है और कहा है कि भाजपा सत्ता हथियाने के साथ सहयोगी दलों के अस्तित्व में विश्वास नहीं करती है।

तेजस्वी यादव ने भी इसी बात को दोहराया है। उन्होंने कहा कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों में बीजेपी का अब कोई भी अलायंस पार्टनर नहीं बचा। बीजेपी क्षेत्रीय पार्टियों का इस्तेमाल करती है, फिर उन्हीं पार्टियों को ख़त्म करने के मिशन में जुट जाती है। बिहार में यही करने की कोशिश हो रही थी। बीजेपी के राष्ट्रीय अभियान का प्रतिरोध नहीं हुआ, तो वह समूची राजनीति पर बुलडोजर चला देगी।

आक्रामक बीजेपी और विरोधी गठबंधन-राजनीति की बढ़ती चुनौतियाँ

लोकसभा चुनाव में अब दो साल से भी कम का समय बचा है, पर राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य स्पष्ट नहीं है। दो प्रवृत्तियाँ एक साथ देखने को मिल रही हैं। भारतीय जनता पार्टी की बढ़ती आक्रामकता और विरोधी-एकता के प्रयासों में बढ़ता असमंजस। महाराष्ट्र में हुआ सत्ता-परिवर्तन विरोधी गठबंधन राजनीति के लिए स्तब्धकारी साबित हुआ। राष्ट्रपति-चुनाव को दौरान भी दोनों प्रवृत्तियाँ एक साथ देखने को मिली।

Thursday, August 18, 2022

The Hindu के हिंदी-प्रेम के पीछे क्या है?

चेन्नई से प्रकाशित अखबार द हिंदू के संपादक सुरेश नंबथ ने गत 15 अगस्त को ट्वीट किया, ‘@the_hindu in Hindi; from today, our editorials will be available in Hindi.’ पहली नज़र में लगा कि शायद यह अखबार हिंदी में भी निकलने वाला है। गौर से देखने पर पता लगता है कि फिलहाल तो ऐसा नहीं है। हो सकता है कि ऐसा करने के बारे में विचार किया जा रहा हो। हुआ यह है कि अखबार की वैबसाइट पर संपादकीय के साथ हिंदी का एक पेज और जोड़ दिया गया है। अंग्रेजी अखबार के संपादकीयों का हिंदी अनुवाद भी अब उपलब्ध हैं।

हिंदू की वैबसाइट पर मैंने इस हिंदी पेज को खोजने की कोशिश की, तो नहीं मिला, पर सुरेश नंबथ ने जो लिंक दिया है, उसके सहारे आप अब तक प्रकाशित सभी संपादकीयों को पढ़ सकते हैं। सुरेश नंब के ट्वीट पर हिंदी के कुछ पाठकों और पत्रकारों ने काफी दिलचस्पी दिखाई और इसका स्वागत किया। यह स्वागत इस अंदाज़ में था कि शायद यह अखबार हिंदी में आने वाला है।

हिंदू से उम्मीदें

ऐसा कभी हो, तो बड़ी अच्छी बात होगी, क्योंकि इसमें दो राय नहीं कि गुणवत्ता के लिहाज से हिंदू अच्छा अखबार है। हिंदी अखबारों की गुणवत्ता का, खासतौर से देश-दुनिया से जुड़ी संजीदा जानकारी का जिस तरह से ह्रास हुआ है, उसके कारण लोगों को हिंदू से उम्मीदें हैं। काफी लोग उसके वामपंथी झुकाव और राजनीतिक-दृष्टिकोण के मुरीद हैं। पर इन बातों के साथ कई तरह के किंतु-परंतु जुड़े हैं।

हिंदी में बंगाल के आनंद बाजार पत्रिका और केरल के मलयाला मनोरमा ग्रुप ने भी प्रवेश करने की कोशिश की है। आनंद बाजार पत्रिका को प्रिंट में तो सफलता नहीं मिली, पर उनका टीवी चैनल जरूर एक हद तक सफल हुआ है। हिंदी में हिंदू के प्रकाशन की संभावना का जिक्र होते ही काफी लोगों का ध्यान गया है। एक जमाने में खबरें आती थीं कि स्टेट्समैन समूह हिंदी में नागरिक नाम से अखबार निकालना चाहता है। ऐसा हुआ नहीं। पर हिंदी वाले अच्छे और संजीदा मीडिया का इंतजार करते रहते हैं।

हिंदी-शहरों में हिंदू

हिंदू तमिल-जीवन और समाज के भीतर से निकला अखबार है, जिसमें हिंदी के प्रति अनुग्रह बहुत कम है, बल्कि हिंदी-विरोधी स्वर उस क्षेत्र में सबसे तीखे हैं। उसका तमिल-संस्करण भी है। वह दक्षिण की दूसरी भाषाओं को छोड़कर हिंदी-संस्करण क्यों निकालना चाहेगा?  वह केरल और तमिलनाडु में सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है। विकीपीडिया के अनुसार, इस समय यह भारत के 11 राज्यों के 21 स्थानों से प्रकाशित होता है। इनमें दक्षिण भारत के छोटे-बड़े शहरों के अलावा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता वगैरह भी समझ में आते हैं, पर मोहाली, लखनऊ, इलाहाबाद और पटना के नाम पढ़कर हैरत होती है और इसका मतलब भी समझ में आता है।