Sunday, July 17, 2022

भारत के उपराष्ट्रपति की भूमिका

जगदीप धनखड़

उपराष्ट्रपति पद के लिए भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जगदीप धनखड़ का नाम सामने आने के बाद दो तरह की बातें सामने आई हैं। एक, धनखड़ से जुड़ी और दूसरी देश के उपराष्ट्रपति की भूमिका को लेकर। हालांकि राष्ट्रपति की तुलना में उपराष्ट्रपति पद छोटा है, पर राजनीतिक-प्रशासनिक जीवन में उसकी भूमिका ज्यादा बड़ी है, बल्कि संसदीय प्रणाली में भारत के उपराष्ट्रपति का पद अपने आप में अनोखा है। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में ऐसा सम्भव ही नहीं है, क्योंकि वहाँ राजा के बाद कोई उप-राजा नहीं होता। 

राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति उसकी भूमिका निभाता है। राष्ट्रपति की भूमिका कार्यपालिका-प्रमुख तक सीमित है, जबकि उपराष्ट्रपति की भूमिका विधायिका के साथ है। वह राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष है। भारत के उपराष्ट्रपति की तुलना अमेरिकी उपराष्ट्रपति से की जा सकती है, जो सीनेट का अध्यक्ष भी होता है। अमेरिका में सीनेट राज्यों का प्रतिनिधि सदन है और भारत में भी राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधि सदन है। प्रतिनिधित्व के मामले में अमेरिकी सीनेट का स्वरूप वही है, जैसा बताया गया है, जबकि राज्यसभा का स्वरूप धीरे-धीरे बदल गया है।

देश के वर्तमान उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू का कार्यकाल 10 अगस्त को पूरा हो रहा है। उसके पहले 6 अगस्त को उपराष्ट्रपति पद का चुनाव होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 63 में कहा गया है, भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 64 में कहा गया है कि उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होगा, परन्तु किसी अवधि के दौरान उपराष्ट्रपति, अनुच्छेद 65 के अधीन राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्यसभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा और वह अनुच्छेद 97 के अधीन राज्यसभा के सभापति को संदेय वेतन या भत्ते का हकदार नहीं होगा।

संविधान सभा में उपराष्ट्रपति पद से जुड़े उपबंधों को स्वीकार किए जाने के बाद 29, दिसम्बर 1948 को संविधान की दस्तावेज (ड्राफ्टिंग) समिति के अध्यक्ष भीमराव आम्बेडकर ने इस पद के व्यावहारिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा कि हालांकि संविधान में उपराष्ट्रपति पद का उल्लेख है, पर वस्तुतः वह राज्यसभा का सभापति है। दूसरे शब्दों में वह लोकसभा अध्यक्ष का समतुल्य है।

इस पद के अतिरिक्त वह किसी कारण से राष्ट्रपति पद के रिक्त हो जाने पर राष्ट्रपति पद पर कार्य करेगा। अनुच्छेद 65(1) के अनुसार, राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से उसके पद में हुई रिक्ति की दशा में उपराष्ट्रपति उस तारीख तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा, जिस तारीख को ऐसी रिक्ति को भरने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार निर्वाचित नया राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करता है।

अनुच्छेद 65(2) के अनुसार, जब राष्ट्रपति अनुपस्थिति, बीमारी  किसी अन्य कारण से अपने कर्तव्यों के निर्वहन में असमर्थ है, तब उपराष्ट्रपति उस तारीख तक उसके कर्तव्यों का निर्वहन करेगा, जिस तारीख क राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों को फिर से संभालता है।

कोई भी नागरिक जिसकी आयु कम से कम 35 वर्ष है और किसी राज्य या केंद्र शासित क्षेत्र में पंजीकृत मतदाता है, इस पद के लिए प्रत्याशी बन सकता है। इसके लिए उसके नाम का प्रस्ताव कम से कम 20 सांसद करें और 20 सांसद उसके नाम का समर्थन करें। अनुच्छेद 66(2) के अनुसार उपराष्ट्रपति संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा। यदि संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का कोई सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो जाता है, तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान उपराष्ट्रपति के रूप में अपने पद-ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।

क्या से क्या हो गया श्रीलंका?


श्रीलंका में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने जनता के दबाव में इस्तीफा दे दिया है। खबरों के मुताबिक वे मालदीव होते हुए सिंगापुर पहुंच गए हैं। प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को अंतरिम राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई गई है। देश में जनांदोलन का आज 99वाँ दिन है। शनिवार 9 जुलाई को राष्ट्रपति भवन में भीड़ घुस गई। इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़े की घोषणा की। देश में राजनीतिक असमंजस है, आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। वहाँ सर्वदलीय सरकार बनाने की कोशिश हो रही है। अंतरिम राष्ट्रपति के शपथ लेने से समस्या का समाधान नहीं होगा। संसद को राष्ट्रपति चुनना होगा, जो गोटाबाया के शेष कार्यकाल को पूरा करे। उनका कार्यकाल 2024 तक है। 20 जुलाई को नए राष्ट्रपति का चुनाव होगा। इस जनांदोलन के पीछे सकारात्मकता भी दिखाई पड़ी है। भीड़ ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा जरूर किया, पर राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट करने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि उसकी रक्षा की। सेना ने भी आंदोलनकारियों के दमन का प्रयास नहीं किया।

अनेक कारण

राजनीतिक स्थिरता के बाद ही आईएमएफ से बेल आउट पैकेज को लेकर बातचीत हो सकती है। सबसे पहले हमें समझना होगा कि समस्या है क्या। समस्या के पीछे अनेक कारण हैं। विदेशी मुद्रा कोष खत्म हो गया है, जिसके कारण जरूरी वस्तुओं का आना बंद हो गया है। 2019 को हुए चर्च में हुए विस्फोट, कोविड-9 के कारण पर्यटन उद्योग को लगा धक्का, खेती में रासायनिक खादों का इस्तेमाल एकमुश्त खत्म करके ऑर्गेनिक खेती शुरू करने की नीति, इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए चीनी कर्ज को चुकाने की दिक्कतें और धीरे-धीरे आर्थिक गतिविधियों का ठप होना। सरकार रास्ते खोज पाती कि जनता का गुस्सा फूट पड़ा। पर समाधान राजनीतिक और प्रशासनिक गतिविधियों से ही निकलेगा।

दिवालिया देश

महीने की शुरुआत में प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे ने कहा था कि देश दिवालिया हो चुका है। पेट्रोल और डीजल खत्म हो चुका है। परिवहन तकरीबन ठप है। शहरों तक भोजन सामग्री नहीं पहुँचाई जा सकती है। दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। अस्पतालों में सर्जरी बंद हैं। विदेश से चीजें मंगवाने के लिए पैसा नहीं है। अच्छे खासे घरों में फाके शुरू हो गए हैं। स्कूल बंद हैं। सरकारी दफ्तरों तक में छुट्टी है। निजी क्षेत्र काम ही नहीं कर रहा है। इसके पहले अप्रेल के महीने में श्रीलंका सरकार ने कहा था कि वह 51 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। विदेश से पेट्रोल, दवाएं और जरूरी सामग्री खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा नहीं है।

विदेशी मुद्रा

जनवरी में लगने लगा था कि विदेशी-मुद्रा कोष के क्षरण के कारण श्रीलंका में डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो जाएगी। राजपक्षे परिवार ने चीन और भारत से मदद माँगी। 15 जनवरी को विदेशमंत्री एस जयशंकर ने श्रीलंका के वित्तमंत्री बासिल राजपक्षे के साथ बातचीत की, जिससे स्थिति बिगड़ने से बची। दिसंबर में पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने श्रीलंका के साथ 1.5 अरब डॉलर का करेंसी स्वैप किया। 13 जनवरी को भारत ने फौरी तौर पर 90 करोड़ डॉलर के ऋण की घोषणा की थी, ताकि श्रीलंका खाद्य-सामग्री का आयात जारी रख सके। इस दोनों वित्तीय पैकेजों ने कुछ समय के लिए उसे बड़े संकट से बचा लिया, पर यह स्थायी समाधान नहीं था।

अनुशासनहीनता

वर्तमान बदहाली के पीछे राजनीतिक अनुशासनहीनता का हाथ है। 2019 में गोटाबाया राजपक्षा के राष्ट्रपति बनने के बाद आईएमएफ की उन मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों को त्याग दिया गया, जो उसके तीन साल पहले इसी किस्म का संकट पैदा होने पर अपनाई गई थीं। श्रीलंका में सत्ता-परिवर्तन के पीछे लंबी जद्दो-जहद थी। नई सरकार ने आते ही तैश में या लोकप्रियता बटोरने के इरादे से टैक्सों और ब्याज में कमी कर दी। यह देखे बगैर की जरूरत किस बात की है। ऊपर से कोविड-19 ने परिस्थिति को बदल दिया। अब आईएमएफ के पास जाना भी राजनीतिक रूप से तमाचा होता। आईएमएफ की शर्तों की वे खुली आलोचना कर चुके थे और इसे संप्रभुता में हस्तक्षेप मानते रहे।  

देखते ही देखते तबाही

संकट तब पैदा हुआ, जब हालात सुधरने की आशा थी। महामारी के दौरान अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाओं पर लगी रोक के कारण पर्यटन-कारोबार ठप हो गया था। पर्यटक अब आने लगे हैं, पर पहले के मुकाबले 20 फीसदी भी नहीं हैं। निर्यात बढ़ा, कंपनियों की आय बढ़ी, फिर भी अर्थव्यवस्था लंगड़ा गई। पुराने कर्जों को निपटाने में विदेशी मुद्रा का भंडार खत्म होने लगा। इससे पेट्रोल, रसोई गैस, गेहूँ और दवाओं के आयात पर असर पड़ा। रुपये की कीमत घटती गई, जिससे विदेशी सामग्री और महंगी हो गई। संकट पिछले साल के अंत में ही नजर आने लगा था। नवंबर 2021 में श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 1.2 अरब डॉलर रह गया। दिसंबर में एक महीने के आयात के लायक एक अरब डॉलर की मुद्रा हाथ में थी। 18 जनवरी को 50 करोड़ डॉलर के इंटरनेशनल सॉवरिन बॉण्ड की अदायगी अलग से होनी थी, जिसके डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो गई थी। इससे बचने के लिए बाहरी मदद की जरूरत पड़ी।

Wednesday, July 13, 2022

दुनिया के सबसे बड़े युद्धाभ्यास ‘रिम्पैक’ में भारतीय नौसेना शामिल

यूक्रेन पर रूसी हमले के इस दौर में दुनिया का ध्यान यूरोप पर है, पर अंदेशा इस बात का भी है कि हिंद-प्रशांत में भी किसी भी समय टकराव की स्थितियाँ पैदा हो सकती हैं। हाल में चीन और रूस के विमानों ने जापान के आसपास के आकाश पर उड़ानें भरकर अपने इरादे जाहिर किए हैं। यूक्रेन में रूसी कार्रवाई की देखादेखी चीन भी ताइवान के खिलाफ कार्रवाई करने के संकेत दे रहा है। उधर जापान में पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की हत्या के बाद इस बात की सम्भावना है कि जापान अपनी सुरक्षा को लेकर कुछ बड़े कदम उठा सकता है। इन सब बातों को देखते हुए रिम्पैक युद्धाभ्यास का महत्व है। इस युद्धाभ्यास में भारत भी शामिल होता है। ताइवान से लेकर पूर्वी लद्दाख तक अपने पड़ोसी देशों को आंखें दिखा रहे चीन को उसके घर में ही घेरने की तैयारी शुरू हो गई है।

भारतीय नौसेना के युद्धपोत आईएनएस सतपुड़ा और पी8आई टोही विमान ने अमेरिका के हवाई द्वीप स्थित पर्ल हार्बर पर इस युद्धाभ्यास में भाग लिया। इस अभ्यास के लिए सतपुड़ा 27 जून को और पी8आई विमान 2 जुलाई को हवाई पहुंचा था। कमांडर पुनीत डबास के नेतृत्व में पी8आई दस्ते का हिकम हवाई क्षेत्र पर एमपीआरए परिचालन के प्रमुख विंग कमांडर मैट स्टकलेस (आरएएएफ) ने स्वागत किया। पी8आई ने सात प्रतिभागी देशों के 20 एमपीआरए के साथ समन्वित बहुराष्ट्रीय पनडुब्बी भेदी युद्ध अभियान में हिस्सा लिया।

गत 29 जून से चल रहा और 4 अगस्त तक होने वाला रिम्पैक नौसैनिक-युद्धाभ्यास चीन के लिए गम्भीर चुनौती का काम करेगा। भारतीय नौसेना और क्वॉड के अन्‍य देशों के अलावा हमारे पड़ोस और दक्षिण चीन सागर से जुड़े, जो देश इसमें भाग ले रहे हैं उनमें फिलीपींस, ब्रूनेई, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड और श्रीलंका के नाम उल्लेखनीय हैं। दुनिया का यह सबसे बड़ा युद्धाभ्यास चीन को घेरने और उसे कठोर संदेश देने की यह कोशिश है। यह युद्धाभ्यास सन 1971 से हो रहा है। इस साल इसका 28वाँ संस्करण होगा, पर वैश्विक स्थितियों को देखते हुए इस साल अभ्यास का विशेष महत्व है।

रिम्पैक युद्धाभ्यास

रिम ऑफ द पैसिफिक एक्सरसाइज़ को संक्षेप में रिम्पैक कहते हैं। दो साल में एकबार होने वाला यह युद्धाभ्यास अमेरिका के पश्चिमी तट पर प्रशांत महासागर में होनोलुलु, हवाई के पास जून-जुलाई में होता है। इसका संचालन अमेरिकी नौसेना का प्रशांत बेड़ा करता है, जिसका मुख्यालय पर्ल हार्बर में है। इसका साथ देते हैं मैरीन कोर, कोस्ट गार्ड और हवाई नेशनल गार्ड फोर्स। हवाई के गवर्नर इसके प्रभारी होते हैं।

हालांकि यह युद्धाभ्यास अमेरिकी नौसेना का है, पर वह दूसरे देशों की नौसेनाओं को भी इसमें शामिल होने का निमंत्रण देते हैं। इसमें प्रशांत महासागर से जुड़े इलाके के देशों के अलावा दूर के देशों को भी बुलाया जाता है। पहला रिम्पैक अभ्यास सन 1971 में हुआ था, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, युनाइटेड किंगडम, और अमेरिका की नौसेनाओं ने भाग लिया। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमेरिका ने तबसे अबतक हरेक अभ्यास में हिस्सा लिया है। इसमें शामिल होने वाले अन्य नियमित भागीदार देश हैं, चिली, कोलम्बिया, फ्रांस, इंडोनेशिया, जापान, मलेशिया, नीदरलैंड्स, पेरू, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, और थाईलैंड। न्यूजीलैंड की नौसेना 1985 तक नियमित रूप से इसमें शामिल होती रही। एक विवाद के कारण कुछ साल तक वह अलग रही, फिर 2012 के बाद से उसकी वापसी हो गई। पिछले कई वर्षों से भारतीय नौसेना भी इसमें शामिल होती है। चीन की नौसेना ने भी 2014 में रिम्पैक अभ्यास में पहली बार हिस्सा लिया था, लेकिन 2018 में अमेरिका ने चीनी नौसेना को इसमें शामिल होने का निमंत्रण नहीं दिया। अमेरिका ने कहा कि चीन दक्षिण चीन सागर में विवादित द्वीपों पर तेजी से फौजी तैयारी कर रहा है।

Tuesday, July 12, 2022

हांगकांग में चीन की बढ़ती दमन-नीति

पिछले तीन साल से चल रहे लोकतांत्रिक आंदोलन का दमन करने के बाद चीन ने हांगकांग की व्यवस्था के अपनी मर्जी के रूपांतरण का इरादा खुलकर ज़ाहिर कर दिया है। इसके पहले 2 जनवरी, 2019 को राष्ट्रपति शी चिनफिंग ताइवान के लोगों से कह चुके हैं कि उनका हर हाल में चीन के साथ 'एकीकरण' होकर रहेगा। भले ही हमें फौजी कार्रवाई करनी पड़े। अब पिछली 1 जुलाई को हांगकांग के नए चीफ एक्जीक्यूटिव जॉन ली को शपथ दिलाने राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने खुद जाकर अपने इरादों का इज़हार कर दिया है।  

हांगकांग-हस्तांतरण के 25 वर्ष पूरे होने पर इन दिनों समारोह मनाए जा रहे हैं। हांगकांग में शी चिनफिंग दो दिन रहे। उस दौरान उनकी सुरक्षा में जबर्दस्त घेरा बनाकर रखा गया, पर उनके जाते ही हजारों की संख्या में लोकतंत्र समर्थक सड़कों पर निकल आए। पश्चिमी मीडिया को शी चिनफिंग के कार्यक्रमों की कवरेज के लिए नहीं बुलाया गया। पिछले कुछ साल से 1 जुलाई को ये प्रदर्शन हो रहे हैं। 1 जुलाई 1997 को हांगकांग का हस्तांतरण हुआ था।

ब्रिटिश-हांगकांग

हांगकांग चीन के दक्षिण तट पर सिंकियांग नदी के मुहाने पर स्थित एक द्वीप है। सन 1842 में पहले अफीम युद्ध की समाप्ति के बाद चीन के चिंग राज्य ने हांगकांग को अपने से अलग करना स्वीकार कर लिया। वह ब्रिटिश उपनिवेश बन गया। दूसरे अफीम युद्ध के बाद 1860 में काउलून खरीदकर इसमें जोड़ दिया गया। सन 1898 में न्यू टेरिटरीज़ को 99 साल के पट्टे पर ले लिया गया।

आज हांगकांग एक विशेष प्रशासनिक क्षेत्र है। ग्लोबल महानगर और वित्तीय केंद्र होने के साथ-साथ यहाँ एक उच्च विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है। साठ के दशक में ही वह महत्वपूर्ण कारोबारी केन्द्र के रूप में उभर आया था। जबकि उन दिनों चीन में भयानक अकाल और सांस्कृतिक क्रांति का दौर था। फिर भी हांगकांग के नागरिक खुद को पराधीन मानते थे। उनकी सांस्कृतिक जड़ें चीन में थीं। हांगकांग में भी प्रतिरोध आंदोलन चला, जो अपने सबसे उग्र रूप में 1967 में सामने आया।

हांगकांग वासी चीन जैसी व्यवस्था भी नहीं चाहते थे। वे रोजगार, शिक्षा और नागरिक सुविधाओं में बेहतरी चाहते थे। साठ और सत्तर के दशक में काम के घंटे कम हुए, अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा-व्यवस्था की शुरुआत हुई, सार्वजनिक आवास योजनाएं, स्वास्थ्य सेवाएं तथा अन्य कल्याण योजनाएं शुरू हुईं।

यह सब चीन की मुख्य भूमि के नागरिकों की तुलना में एक अलग तरह का अनुभव था। स्वतंत्र न्याय-व्यवस्था, फ्री प्रेस और नागरिक अधिकारों का प्रवेश उस व्यवस्था में हो गया था। वहाँ प्रगतिशील चीन की अवधारणा जन्म ले रही थी, जो न तो ब्रिटिश हो और न कम्युनिस्ट। सत्तर के उत्तरार्ध से देंग श्याओ फेंग के नेतृत्व में चीन का रूपांतरण भी हो रहा था, जिसके अंतर्विरोध 3-4 जून, 1989 को तिएन-अन-मन चौक पर हुए टकराव के रूप में सामने आए। इसकी प्रतिक्रिया हांगकांग में भी हुई थी।

Sunday, July 10, 2022

आसान नहीं है श्रीलंका के संकट का समाधान

राष्ट्रपति भवन पर हल्ला बोल

श्रीलंका में राष्ट्रपति के इस्तीफे की घोषणा के बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि उसे देश के राजनीतिक संकट के समाधान की उम्मीद है। राजनीतिक स्थिरता के बाद
बेल आउट पैकेज को लेकर बातचीत फिर से शुरू हो सकती है। श्रीलंका के वर्तमान संकट का हल आईएमएफ की मदद से ही हो सकता है। देश में 92 दिन से चले आ रहे जनांदोलन के बाद शनिवार को राष्ट्रपति भवन में भीड़ घुस गई। इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़े की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि देश में शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए वे 13 जुलाई को इस्तीफ़ा दे देंगे

शनिवार को बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति के सरकारी आवास के अंदर घुस गए थे। उन्होंने प्रधानमंत्री के निजी आवास में भी आग लगा दी थी। उस समय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही अपने आवासों पर मौजूद नहीं थे। श्रीलंका में खराब आर्थिक हालात के चलते लंबे समय से विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। प्रदर्शनकारी लगातार राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफ़े की मांग करते रहे हैं। राष्ट्रपति के साथ-साथ प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे ने भी इस्तीफ़ा देने की घोषणा की है। सरकारी सूत्रों के अनुसार एक सुरक्षित स्थान पर सेना राष्ट्रपति की रक्षा कर रही है। कुछ सूत्रों का कहना है कि उनके आवास पर भीड़ के आने के पहले नौसेना ने उन्हें बाहर निकाल लिया था।

शनिवार की शाम संसद के अध्यक्ष ने राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई जिसमें प्रधानमंत्री विक्रमासिंघे ने अपने इस्तीफे की घोषणा की ताकि एक सर्वदलीय सरकार बनाई जा सके। उनके प्रवक्ता ने कहा कि जैसे ही नई सरकार बनेगी वे इस्तीफा दे देंगे। राष्ट्रपति के हट जाने के बाद संसद के अध्यक्ष 30 दिन तक गोटाबाया के स्थान पर काम कर सकते हैं। इस दौरान संसद को एक राष्ट्रपति चुनना होगा, जो गोटाबाया के शेष कार्यकाल को पूरा करे। उनका कार्यकाल 2024 तक है।   

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के इस्तीफे के बाद नई सर्वदलीय सरकार का गठन आसान नहीं होगा। देश का विपक्ष काफी बिखरा हुआ है। उनके पास संसद में बहुमत भी नहीं है। सत्तारूढ़ दल के समर्थन से विरोधी दलों की सरकार बन भी गई, तब भी देश की अर्थव्यवस्था को संभाल पाना काफी मुश्किल होगा। सरकार बदलने से आर्थिक-समस्याओं का समाधान नहीं हो जाएगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष भी सहायता करने के पहले देश की राजनीतिक स्थिरता को समझना चाहेगा।