Monday, July 6, 2020

भारत क्या नए शीतयुद्ध का केंद्र बनेगा?


लद्दाख की गलवान घाटी में 15 जून की रात हुए हिंसक संघर्ष के बाद दुबारा कोई बड़ी घटना नहीं हुई है, पर समाधान के लक्षण भी नजर नहीं आ रहे हैं। सन 1962 के बाद पहली बार लग रहा है कि टकराव रोकने का कोई रास्ता नहीं निकला, तो वह बड़ी लड़ाई में तब्दील हो सकता है। दोनों पक्ष मान रहे हैं कि सेनाओं को एक-दूसरे से दूर जाना चाहिए, पर कैसे? अब जो खबरें मिली हैं, उनके अनुसार टकराव की शुरूआत पिछले साल सितंबर में ही हो गई थी, जब पैंगांग झील के पास दोनों देशों के सैनिकों की भिड़ंत हुई थी, जिसमें भारत के दस सैनिक घायल हुए थे।

शुरूआती चुप्पी के बाद भारत सरकार ने औपचारिक रूप से 25 जून को स्वीकार किया कि मई के महीने से चीनी सेना ने घुसपैठ बढ़ाई है। गलवान घाटी में पेट्रोलिंग पॉइंट-14 (पीपी-14) के पास हुई झड़प के बाद यह टकराव शुरू हुआ है। लगभग उसी समय पैंगांग झील के पास भी टकराव हुआ। दोनों घटनाएं 5-6 मई की हैं। उसी दौरान हॉट स्प्रिंग क्षेत्र से भी घुसपैठ की खबरें आईं। देपसांग इलाके में भी चीनी सैनिक जमावड़ा है।

Sunday, July 5, 2020

लद्दाख से मोदी की गंभीर चेतावनी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लद्दाख यात्रा जितनी सांकेतिक है, उससे ज्यादा सांकेतिक है उनका वक्तव्य। यदि हम ठीक से पढ़ पा रहे हैं, तो यह क्षण भारतीय विदेश-नीति के लिए महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। मोदी के प्रतिस्पर्धियों को भी उनके वक्तव्य को ठीक से पढ़ना चाहिए। यदि वे इसे समझना नहीं चाहते, तो उन्हें कुछ समय बाद आत्ममंथन का मौका भी नहीं मिलेगा। बहरहाल पहले देखिए कि यह लद्दाख यात्रा महत्वपूर्ण क्यों है और मोदी के वक्तव्य की ध्वनि क्या है।

प्रधानमंत्री की इस यात्रा के एक दिन पहले रक्षामंत्री लद्दाख जाने वाले थे। वह यात्रा अचानक स्थगित कर दी गई और उनकी जगह अगले रोज प्रधानमंत्री खुद गए। सवाल केवल सैनिकों के मनोबल को बढ़ाने का ही नहीं है, बल्कि देश की विदेश-नीति में एक बुनियादी मोड़ का संकेतक भी है। अप्रेल के महीने से लद्दाख में शुरू हुई चीनी घुसपैठ के बाद से अब तक भारत सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री मोदी के बयानों में तल्खी नहीं रही। ऐसा लगता रहा है कि भारत की दिलचस्पी चीन के साथ संबंधों को एक धरातल तक बनाए रखने की है। भारत चाहता था कि किसी तरह से यह मसला सुलझ जाए।

Friday, July 3, 2020

चीन-पाकिस्तान पर नकेल डालने की जरूरत

21 नवंबर 2011 के टाइम का कवर
भारत-चीन सीमा पर गत 16 जून को हुए हिंसक संघर्ष के बाद दोनों देशों के बीच शुरू हुई बातचीत का दौर इन पंक्तियों के प्रकाशन तक किसी न किसी रूप में चल रहा है, पर किसी स्थायी हल के आसार नहीं हैं। वर्तमान घटनाक्रम से हमें दो सबक जरूर सीखने चाहिए। चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दूसरे घुसपैठ की किसी भी हरकत का उसी समय करारा जवाब देना चाहिए। इसके पहले 1967 में नाथूला और 1986-87 में सुमदोरोंग में करारी कार्रवाइयों के कारण चीन की हिम्मत नहीं पड़ी। लद्दाख में इसबार की घुसपैठ के बाद भारत ने शुरूआती चुप्पी के बाद तीन स्तर पर जवाबी कार्रवाई की है। एक, बड़े स्तर पर सेना की सीमा पर तैनाती। दूसरे, कारोबारी स्तर पर कुछ बड़े फैसले किए, जिनसे चीन को हमारे इरादों का संकेत मिले। तीसरे राजनयिक स्तर पर अपनी बात को दुनिया के सामने रखा और अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल किया है। इस तीसरे कदम का दीर्घकालीन प्रभाव भारत-चीन रिश्तों पर पड़ेगा।


अभी तक का अनुभव है कि चीन के बरक्स भारत की नीति अपेक्षाकृत नरम रही है। बावजूद इसके कि चीन ने भारत में पाक-समर्थित आतंकवाद को खुला समर्थन दिया है। जैशे मोहम्मद के सरगना मसूद अज़हर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने को प्रस्ताव को पास होने से अंतिम क्षण तक चीन ने रोक कर रखा। एनएसजी की सदस्यता और संरा सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता में अड़ंगे लगाए। अब जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन पर भारतीय संसद के प्रस्ताव पर चीनी प्रतिक्रिया हमारी संप्रभुता पर खुला हमला है। इसे सहन नहीं किया जाना चाहिए। लगता है कि अब हमारी नीति में बदलाव आ रहा है। लद्दाख पर चल रही बातचीत पर काफी कुछ निर्भर करेगा कि हमारी नीति की दिशा क्या होगी। चीनी सेना यदि अप्रेल में हथियाई जमीन छोड़ेगी, तो संभव है कि कड़वाहट ज्यादा न बढ़े। पर चीन यदि अपनी सी पर अड़ा रहा, तो भारत को अपनी नीति में आधारभूत बदलाव करना होगा।


भारतीय विदेश-नीति के बुनियादी तत्वों को स्पष्ट करने की घड़ी भी अब आ रही है। गुट निरपेक्षता की अवधारणा ने लम्बे अरसे तक हमारा साथ दिया, पर आज वह व्यावहारिक नहीं है। आज शीतयुद्ध की स्थिति भी नहीं है और दो वैश्विक गुट भी नहीं है। इसके बावजूद हमें अपने मित्र और शत्रु देशों की दो श्रेणियाँ बनानी ही होंगी। ऑस्ट्रेलिया, जापान, वियतनाम, फिलीपींस और इंडोनेशिया जैसे देश हैं, जो चीनी उभार की तपिश महसूस कर रहे हैं। हमें उन्हें साथ लेना चाहिए। बेशक हम अमेरिका के हाथ की कठपुतली न बनें, पर चीन को काबू में करने के लिए हमें अमेरिका का साथ लेना चाहिए। इस सवाल को न तो हमें अपने देश की आंतरिक राजनीति की नजर से देखना चाहिए और न अमेरिकी राजनीति के नजरिए से। अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी भी चीन की उतनी ही आलोचक है, जितनी ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी। चीनी अहंकार बढ़ता ही जा रहा है। उसे रोकने के लिए वैश्विक गठबंधन तैयार करने में कोई हमें हिचक नहीं होनी चाहिए। यह नकेल अकेले चीन पर नहीं होगी, बल्कि उसके साथ पाकिस्तान पर भी डालनी होगी। 

Thursday, July 2, 2020

दिव्यांगों और वृद्धों की सामाजिक सुरक्षा योजनाएं


देश के कोरोना वायरस के प्रकोप को देखते हुए भारत सरकार ने नागरिकों के लिए 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज के साथ आत्मनिर्भर भारत अभियान शुरू किया है| इस पैकेज के माध्यम से सरकार ने समाज के अलग-अलग वर्गों की सहायता का प्रयास किया है। उद्यमियों, कारोबारियों, श्रमिकों और विभिन्न सामाजिक वर्गों की सहायता करने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन का सभी वर्गों पर प्रभाव पड़ा था। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत सरकार ने 1.70 लाख करोड़ रुपये के जिस आर्थिक पैकेज की घोषणा की, उसमें गरीबों, मजदूरी करने वाली महिलाओं, शारीरिक और मानसिक चुनौतियों का सामना कर रहे व्यक्तियों और वृद्धों के लिए अलग से व्यवस्थाएं की गई हैं। ये योजनाएं विभिन्न कार्यक्रमों का हिस्सा हैं। इनमें केंद्र और राज्यों की योजनाएं भी शामिल हैं।


कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत असहाय व्यक्तियों का सहारा भी राज्य है। बेशक उन्हें सामाजिक संस्थाएं और निजी तौर पर अपेक्षाकृत सबल व्यक्ति कमजोरों, वंचितों और हाशिए पर जा चुके लोगों की सहायता के लिए आगे आते हैं, पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी राज्य की होती है। हमारे संविधान का अनुच्छेद 41 कहता है, राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर, काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा। इसके साथ अनुच्छेद 42 और 43 भी सामाजिक वर्गों की सहायता के लिए राज्य की भूमिका की ओर इशारा करते हैं।

Tuesday, June 30, 2020

चीन का सिरदर्द हांगकांग


China Threatens to Retaliate If U.S. Enacts Hong Kong Bill - Bloombergऔपचारिक रूप से हांगकांग अब चीन का हिस्सा है, पर एक संधि के कारण उसकी प्रशासनिक व्यवस्था अलग है, जो सन 2047 तक रहेगी। पिछले कुछ समय से हांगकांग में चल रहे आंदोलनों ने चीन की नाक में दम कर दिया है। उधर अमेरिकी सीनेट ने 25 जून 2020 को हांगकांग की सम्प्रभुता की रक्षा के लिए दो प्रस्तावों को पास किया है, जिससे और कुछ हो या न हो, हांगकांग की स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को धक्का लगेगा।
चीन के नए सुरक्षा कानून के विरोध में अमेरिका ने यह कदम उठाया है। इस प्रस्ताव में उन बैंकों पर भी प्रतिबंध लगाने की बात है जो हांगकांग की स्वायत्तता के खिलाफ चीन का समर्थन करने वालों के साथ कारोबार करते हैं। ऐसे बैंकों को अमेरिकी देशों से अलग-थलग करने और अमेरिकी डॉलर में लेनदेन की सीमा तय करने का प्रस्ताव है।
हांगकांग ऑटोनॉमी एक्ट नाम से एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया, जिसका उद्देश्य उन व्यक्तियों और संस्थाओं पर पाबंदियाँ लगाना है, जो हांगकांग की स्वायत्तता को नष्ट करने की दिशा में चीनी प्रयासों के मददगार हैं। कानून बनाने के लिए अभी इसे हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स से पास कराना होगा और फिर इस पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हस्ताक्षर होंगे।