इक्कीसवीं सदी के
दूसरे दशक के अंत और तीसरे दशक की शुरुआत में ऐसे दौर में कोरोना वायरस ने दस्तक
दी है, जब दुनिया अपनी तकनीकी उपलब्धियों पर इतरा रही है। इतराना शब्द ज्यादा कठोर
लगता हो, तो कहा जा सकता है कि वह अपने ऐशो-आराम के चक्कर में प्रकृति की उपेक्षा
कर रही है। कोरोना प्रसंग ने मनुष्य जाति के विकास और प्रकृति के साथ उसके
अंतर्विरोधों को एकबारगी उघाड़ा है। इस घटनाक्रम में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों
प्रकार के संदेश छिपे हैं।
कोरोना के अचानक
हुए आक्रमण के करीब साढ़े तीन महीने के भीतर दुनिया के वैज्ञानिकों ने मनुष्य जाति
की रक्षा के उपकरणों को खोजना शुरू कर दिया है। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है,
वहीं ‘वैश्विक सुरक्षा’ की एक नई अवधारणा सामने आ
रही है, जिसका संदेश है कि इनसान की सुरक्षा के लिए एटम बमों और मिसाइलों से
ज्यादा महत्वपूर्ण हैं वैक्सीन और औषधियाँ। और उससे भी ज्यादा जरूरी है प्रकृति के
साथ तादात्म्य बनाकर जीने की शैली, जिसे हम भूलते जा रहे हैं।