लॉकडाउन दो हफ्ते के लिए बढ़ा दिया गया। या आप कह सकते हैं
कि हटा लिया गया, पर कोरोना वायरस के कारण देश के अलग-अलग इलाकों में प्रतिबंध
लगाए गए हैं। सिर्फ समझने की बात है कि गिलास आधा भरा है या आधा खाली है। कोरोना
के खिलाफ वैश्विक लड़ाई को देखें, तो वहाँ भी यही बात लागू होती है। सवाल है कि
क्या हम हालात से निराश हैं? कत्तई नहीं। यह
एक नई चुनौती है, जिसपर हमें जीत हासिल करनी है। हमारे पास आशा या निराशा के
विकल्प नहीं हैं। सकारात्मक सोच अकेला एक विकल्प है।
वैश्विक दृष्टि से हटकर देखें, तो भारत से संदर्भ में हमारे
पास संतोष के अनेक कारण हैं। चीन को अलग कर दें, तो शेष विश्व में करीब 34 लाख लोग
कोरोना के शिकार हुए हैं। इनमें से दो लाख 40 हजार के आसपास लोगों की मौत हुई है।
इस दौरान भारत में करीब 37 हजार लोगो कोरोना के शिकार हुए हैं और 1200 के आसपास
लोगों की इसके कारण मृत्यु हुई है। एक भी व्यक्ति की मौत दुखदायी है, पर तुलना
करें। भारत की आबादी करीब एक अरब 30 करोड़ है, जिसमें 37 हजार को यह बीमारी लगी
है। समूचे यूरोप और अमेरिका की आबादी भारत से कम ही होगी, पर बीमार होने वालों और
मरने वालों की संख्या का अंतर आप देख सकते हैं।
इस अंतर के अनेक कारण हैं। कुछ लोग कहते हैं कि अमेरिका और
यूरोप में टेस्ट ज्यादा होते हैं। भारत में कम होते हैं। हो सकता है कि बीमारों की
संख्या ज्यादा हो। यह तर्क भी पक्का नहीं है। यह तर्क तीन-चार हफ्ते पहले उछाला
गया था। तब भारत में प्रति 10 लाख (मिलियन) लोगों में करीब सवा सौ टेस्ट हो रहे
थे। शनिवार को यह औसत 708 था। यह सम्पूर्ण भारत का औसत है, दिल्ली में तो यह 2400 के आसपास
है। हम जब औसत निकालते हैं, तो समूचे भारत की जनसंख्या के आधार
पर निकालते हैं, जबकि देश के एक बड़े इलाके में वायरस का प्रभाव है ही नहीं।