जिस तरह दिसम्बर 2012 में दिल्ली में हुई
बलात्कार की एक घटना के बाद देशभर में नाराजगी का माहौल बना था, करीब-करीब उसी तरह
हैदराबाद में हुई घटना को लेकर देशभर में नाराजगी है. सोमवार को संसद के दोनों
सदनों में यह मामला उठा और सांसदों ने अपनी नाराजगी का इज़हार किया. इस चर्चा के
बीच राज्यसभा में जया बच्चन की बातों ने ध्यान खींचा है. उन्होंने कहा, आरोपियों को
पब्लिक के हवाले कर दो. ऐसे
लोगों को सार्वजनिक तौर पर लिंच कर देना चाहिए. उन्हें खुलेआम मौत की सजा दी जाए. उनके स्वरों में जो नाराजगी है, वह
हमें खतरनाक निष्कर्षों की ओर ले जा रही है. क्या हमारी सामाजिक और प्रशासनिक
व्यवस्थाएं फेल हो चुकी हैं, जो ऐसी बात उन्हें कहनी पड़ी?
इस घटना के बाद हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाली
बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा ने एक लेख में कहा कि इस अमानवीय घटना के लिए
सरकार अथवा राजनैतिक दलों को दोष देने के बजाय संपूर्ण भारतीय समाज को दोषी ठहराना
चाहिए. जल्द ही आप लोगों को सड़क पर विरोध करते हुए और कैंडल मार्च निकालते
देखेंगे. लेकिन उसके बाद क्या? क्या
ऐसी घटनाएं होनी बंद हो जाएंगी? ऐसा इसलिए है क्योंकि एक समाज के रूप में हम इस
तरह की घटनाओं के मूल कारणों को दूर करने की कभी चेष्टा नहीं करते. हम सदैव सरकार, न्यायपालिका और पुलिस को दोषी मानते हैं, लेकिन मैं इस सब के लिए सामूहिक रूप से सबको
दोषी ठहराती हूं.
ज्वाला गुट्टा ने अपने लेख में अपने डेनमार्क
के अनुभव का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा, जब मैं 2005 में प्रशिक्षण के लिए वहां गई, तो मैंने पब्लिक ट्रांसपोर्ट) का इस्तेमाल किया. शुरू मे मैं थोड़ा
आशंकित थी. आरहूस मेरे लिए एक अनजान शहर था. मेरे कोच ने मुझसे कहा, ‘ज्वाला, यह अपराध-मुक्त शहर है.’ मैंने पहले ऐसा कभी नहीं सुना था. इसके बाद
मैंने इस बारे में पढ़ना शुरू किया कि आख़िर एक देश कैसे पूरी तरह अपराध रहित बनता
है. यह पूरे समाज की शिक्षा और समझदारी पर निर्भर करता है.
सोमवार को इस मसले पर हुए विमर्श में शामिल
होते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा, ‘ऐसी घटनाएं हमें चिंतित करती है. संसद हमेशा ऐसी घटनाओं पर चिंतित
रही है. हम सब भी मां-बेटी के साथ हो रहे ऐसे अपराध की निंदा करते हैं…इसके लिए
अगर हमें नए कानून भी बनाने पड़े तो पूरा सदन इसके लिए तैयार है.’ रक्षामंत्री
राजनाथ सिंह ने कहा, ‘हम कानून बनाने के लिए भी तैयार हैं.’
उधर राज्यसभा में कांग्रेस सांसद गुलाम नबी आजाद ने कहा कि यह समस्या सिर्फ कानून
बनाकर हल नहीं की जा सकती है. सभापति एम वेंकैया नायडू ने कहा कि हमने कई कानून
बना लिए हैं लेकिन इससे कोई फायदा होता दिख नहीं रहा है. इसके लिए कुछ और करने की
जरूरत है.
ऐसा कुछ और क्या है, जो हम कर नहीं पा रहे हैं? इसका जवाब मॉब
लिंचिंग नहीं है, बल्कि उस शिक्षा और संस्कारों की जरूरत है, जिससे हम विमुख हैं.
स्त्रियों को मनुष्य न समझने की मनोवृत्ति है. यह जब बलात्कार के रूप में सामने
आती है, तो भयावह लगती है, पर जब स्त्री भ्रूण हत्या के रूप में उभरती है, तो हम
उसकी अनदेखी कर देते हैं. लड़कों में मन में छुटपन से ही लड़कियों के प्रति आदर का
भाव पैदा करना परिवारों का काम है. जैसे-जैसे स्त्रियों की भूमिका जीवन और समाज
में बढ़ रही है, उसके समांतर सामाजिक-सांस्कृतिक समझ विकसित नहीं हो रही है.
पुरुषों के बड़े हिस्से का दिमाग जानवरों जैसा है. पर बलात्कारियों को फाँसी देने या बधिया करने से भी अपराध खत्म नहीं होंगे.
पहला काम तो स्त्रियों को सबल बनाने का है. दिल्ली
रेप कांड के बाद स्त्री-चेतना में विस्मयकारी बदलाव हुआ था. लम्बे अरसे से छिपा उनका
गुस्सा एकबारगी सामने आया. उस आंदोलन से बड़ा बदलाव भले नहीं हुआ, पर सामाजिक जीवन में एक नया नैरेटिव तैयार हुआ.
हम कितने भी आगे बढ़ गए हों, हमारी
स्त्रियाँ पश्चिमी स्त्रियों की तुलना में कमज़ोर हैं. व्यवस्था उनके प्रति सामंती
दृष्टिकोण रखती है. बेटियों की माताएं डरी रहती हैं. उन्हें व्यवस्था पर भरोसा
नहीं है. आजादी के 72 वर्ष बाद भी आधी आबादी के मन में भय है. अपने घरों से निकल
कर काम करने या पढ़ने के लिए बाहर जाने वाली स्त्रियों की सुरक्षा का सवाल मुँह
बाए खड़ा है.
दिल्ली से लेकर हैदराबाद रेप कांडों को केवल
रेप तक सीमित करने से इसके अनेक पहलुओं की ओर से ध्यान हट जाता है. यह मामला केवल
रेप का नहीं है. कम से कम जैसा पश्चिमी देशों में रेप का मतलब है. एक रपट में
पढ़ने को मिला कि पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत में रेप कम है. पर उस डेटा को
ध्यान से पढ़ें तो यह तथ्य सामने आता है कि रिपोर्टेड केस कम हैं. यानी शिकायतें
कम हैं. दूसरे पश्चिम में स्त्री की असहमति और उसकी रिपोर्ट बलात्कार है.हमारे
कानून कितने ही कड़े हों, एक तो उनका विवेचन ठीक से नहीं हो पाता, दूसरे
पीड़ित स्त्री अपने पक्ष को सामने ला ही नहीं पाती.
हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था स्त्रियों के
प्रति सामंती दृष्टिकोण रखती है. ऐसा नहीं कि वह निष्क्रिय है. पर उसकी सीमाएं हैं.
उसकी ट्रेनिंग में कमी है, अनुशासन नहीं है और काम की सेवा-शर्तें भी खराब
हैं. अपराधों को रोकने के लिए एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था की ज़रूरत है. हैदराबाद से
खबरें मिली हैं कि वहाँ पुलिस इन दिनों रात के आठ बजे के बाद कर्फ्यू जैसे हालात
पैदा कर रही है. इस तरह तो पुलिस खुद अराजकता
पैदा कर रही है. ऐसे ही 2012 में दिल्ली पुलिस ने एक साथ नौ मेट्रो स्टेशनों को
बंद करा दिया था. यह नादानी है. अपराध हो जाने के बाद की सख्ती का कोई मतलब नहीं
है.