Tuesday, August 27, 2019

क्या कहते हैं मोदी को लेकर बढ़ते कांग्रेसी अंतर्विरोध


जैसे-जैसे कांग्रेस पार्टी की कमजोरियाँ सामने आ रही हैं, वैसे-वैसे उसके भीतर से अंतर्विरोधी स्वर भी उठ रहे हैं। अगस्त के पहले हफ्ते में अनुच्छेद 370 को लेकर यह बात खुलकर सामने आई थी। नरेंद्र मोदी के प्रति नफरत को लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने जयराम रमेश और अभिषेक मनु सिंघवी की बातों का समर्थन करके पार्टी की सबसे महत्वपूर्ण रणनीति पर सवालिया निशान लगाया है। सन 2007 के गुजरात विधान सभा चुनाव में सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर बताते हुए इस रणनीति का सूत्रपात किया था।
गुजरात-दंगों में मोदी की भूमिका का मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था, जिसके पीछे पार्टी का समर्थन कोई छिपी बात नहीं थी। मोदी का अमेरिकी वीज़ा रद्द हुआ, तब भी कहीं न कहीं पार्टी का समर्थन भी था। फिर अमित शाह की गिरफ्तारी हुई और उनके गुजरात प्रवेश पर रोक लगी। सारी बातें व्यक्तिगत रंजिशों की याद दिला रही थीं। फिर जब 2013 में मोदी को बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया, तो सोशल मीडिया पर अघोषित युद्ध छिड़ गया।
कांग्रेस और बीजेपी की प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह है, पर मोदी के प्रति अलग किस्म की नफरत कांग्रेसी नेतृत्व के मन में है। यह वैचारिक मतभेद से कुछ ज्यादा है। ऐसे में पार्टी के भीतर से अलग स्वरों का सुनाई पड़ना कुछ सोचने को मजबूर करता है। एक पुस्तक विमोचन समारोह में जयराम रमेश ने गुरुवार को कहा, मोदी के कार्यों को भी देखना चाहिए, जिनकी वजह से वे मतदाताओं का समर्थन हासिल करके सत्ता हासिल कर पाए हैं।  

Monday, August 26, 2019

अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर विफल पाकिस्तान


पिछले 72 साल में पाकिस्तान की कोशिश या तो कश्मीर को फौजी ताकत से हासिल करने की रही है या फिर भारत पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने की रही है। पिछले दो या तीन सप्ताह में स्थितियाँ बड़ी तेजी से बदली हैं। कहना मुश्किल है कि इस इलाके में शांति स्थापित होगी या हालात बिगड़ेंगे। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान की आंतरिक और बाहरी राजनीति किस दिशा में जाती है। पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तानी डीप स्टेट का रुख क्या रहता है।
विभाजन के दो महीने बाद अक्तूबर 1947 में फिर 1965, फिर 1971 और फिर 1999 में कम से कम चार ऐसे मौके आए, जिनमें पाकिस्तान ने बड़े स्तर पर फौजी कार्रवाई की। बीच का समय छद्म युद्ध और कश्मीर से जुड़ी डिप्लोमेसी में बीता है। हालांकि 1948 में संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को लेकर भारत गया था, पर शीतयुद्ध के उस दौर में पाकिस्तान को पश्चिमी देशों का सहारा मिला। फिर भी समाधान नहीं हुआ।
चीनी ढाल का सहारा
इस वक्त पाकिस्तान एक तरफ चीन और दूसरी तरफ अमेरिका के सहारे अपने मंसूबे पूरे करना चाहता है। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तानी डिप्लोमेसी को अमेरिका से झिड़कियाँ खाने को मिली हैं। इस वजह से उसने चीन का दामन थामा है। उसका सबसे बड़ा दोस्त या संरक्षक अब चीन है। अनुच्छेद 370 के सिलसिले में भारत सरकार के फैसले के बाद से पाकिस्तान ने राजनयिक गतिविधियों को तेजी से बढ़ाया और फिर से कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण पर पूरी जान लगा दी। फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है, पर कहानी खत्म भी नहीं हुई है।

Sunday, August 25, 2019

मोदी के मित्र और सुधारों के सूत्रधार जेटली


भारतीय जनता पार्टी के सबसे सौम्य और लोकप्रिय चेहरों में निश्चित रूप से अरुण जेटली को शामिल किया जा सकता है, पर वे केवल चेहरा ही नहीं थे. वैचारिक स्तर पर उनकी जो भूमिका थी, उसे झुठलाया नहीं जा सकता. पार्टी और खासतौर से नेतृत्व के नजरिए से देखें, तो यह मानना पड़ेगा कि नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति दिलाने में सबसे बड़ी भूमिका उनकी रही. हालांकि उनके राजनीतिक जीवन का काफी लम्बा समय नरेंद्र मोदी की राजनीति से पृथक रहा, पर कुछ महत्वपूर्ण अवसरों पर उन्होंने निर्णायक भूमिका अदा की. दुर्भाग्य से उनका देहावसान असमय हो गया, अन्यथा उनके सामने एक बेहतर समय आने वाला था. 
सन 2002 में गुजरात के दंगे जब हुए, तब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बने ही बने थे. उनके पास प्रशासनिक अनुभव बहुत कम था. दंगों के कारण उत्पन्न हुई बदमज़गी के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि मोदी को राजधर्म का निर्वाह करना चाहिए. यह एक प्रकार से नकारात्मक टिप्पणी थी. पर्यवेक्षकों का कहना है कि अटल जी चाहते थे कि मोदी मुख्यमंत्री पद छोड़ दें, क्योंकि गुजरात के कारण पार्टी की नकारात्मक छवि बन रही थी. मोदी के समर्थन में लालकृष्ण आडवाणी थे, पर लगता था कि वे अटल जी को समझा नहीं पाएंगे.
नरेंद्र मोदी का व्यावहारिक राजनीतिक जीवन तब शुरू हुआ ही था. हालांकि वे संगठन के स्तर पर काफी काम कर चुके थे, पर प्राशासनिक स्तर पर उनका अनुभव कम था. उनकी स्थिति जटिल हो चुकी थी. यदि वे इस तरह से हटे, तो अंदेशा यही था कि समय की धारा में वे पिछड़ जाएंगे. ऐसे वक्त पर अरुण जेटली ने मोदी का साथ दिया. बताते हैं कि वे वाजपेयी जी को समझाने में न केवल कामयाब रहे, बल्कि मोदी के महत्वपूर्ण सलाहकार बनकर उभरे. वे अंतिम समय तक नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी सलाहकारों में से एक रहे.

आर्थिक सुधारों के सूत्रधार जेटली


इस बात को निःसंकोच कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी को केवल आर्थिक मामलों में ही नहीं, हर तरह के विषयों में अरुण जेटली का काफी सहारा था। एनडीए सरकार के पहले दौर में अनेक मौकों पर सरकार का पक्ष सामने रखने के लिए उन्हें खड़ा किया गया। राज्यसभा में अल्पमत होने के कारण सरकार के सामने जीएसटी और दिवालिया कानून को पास कराने की चुनौती थी, जिसपर पार पाने में जेटली को सफलता हासिल हुई। ये दो कानून आने वाले समय में मोदी सरकार की सफलता के सूत्रधार बनेंगे। खासतौर से जीएसटी को लेकर जेटली ने विभिन्न राज्य सरकारों को जितने धैर्य और भरोसे के साथ आश्वस्त किया वह साधारण बात नहीं है।
इस साल मई में जब नई सरकार का गठन हो रहा था, अरुण जेटली ने जब कुछ समय के लिए कोई सरकारी पद लेने में असमर्थता व्यक्त की थी, तभी समझ में आ गया था कि समस्या गंभीर है। जून, 2013 में जब बीजेपी के भीतर प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी को लेकर विवाद चल रहा था, जेटली ने खुलकर मोदी का साथ दिया। बीजेपी और कांग्रेस के बीच जब भी महत्वपूर्ण मसलों पर बहस चली, जेटली ने पार्टी का वैचारिक पक्ष बहुत अच्छे तरीके से रखा। मोदी सरकार बनने के बाद उन्होंने न केवल वित्तमंत्री का पद संभाला, बल्कि जरूरत पड़ने पर रक्षा और सूचना और प्रसारण मंत्रालय की बागडोर भी थामी। वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी मंत्री रहे। उन्होंने वाणिज्य और उद्योग, विधि, कम्पनी कार्य तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय संभाले। वे सन 2009 से 2014 तक राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे।

Saturday, August 24, 2019

‘नकद को ना’ यानी डिजिटल भुगतान की दिशा में बढ़ते कदम


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले के प्राचीर से अपने राष्ट्रीय संबोधन में कहा कि देश में डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देना चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है। उन्होंने कहा कि दुकानों पर डिजिटल पेमेंट को 'हाँ', और नकद को 'ना' के बोर्ड लगाने चाहिए। सामान्य व्यक्ति को भले ही यह समझ में नहीं आता हो कि भुगतान की इस प्रणाली से अर्थव्यवस्था को मजबूती किस प्रकार मिलती है, फिर भी व्यक्तिगत रूप से उसे पहली नजर में यह प्रणाली सुविधाजनक लगती है। इसमें एक तो बटुए में पैसा भरकर नहीं रखना पड़ता। साथ ही बटुआ खोने या जेबकतरों का शिकार होने का डर नहीं। नोटों के भीगने, कटने-फटने और दूसरे तरीकों से नष्ट होने का डर भी नहीं। रेज़गारी नहीं होने पर सही भुगतान करने और पैसा वापस लेने में भी दिक्कतें होती हैं। और पर्याप्त पैसा जेब में नहीं होने के कारण कई बार व्यक्ति भुगतान से वंचित रह जाता है।