अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ
समय से न्यायपालिका को लेकर भी निराशा है। उसके भीतर और बाहर से कई तरह के सवाल उठे
हैं। अक्सर लगता है कि सरकार नहीं सुप्रीम कोर्ट के हाथ में देश की बागडोर है, पर न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता
के सवाल है। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ न्याय-व्यवस्था
बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से देखना चाहिए।
दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं।
सबसे ज्यादा परेशान कर
रही हैं न्याय-व्यवस्था में भ्रष्टाचार की शिकायतें। हाल में सुप्रीम कोर्ट के
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इलाहाबाद उच्च
न्यायालय के न्यायाधीश एसएन शुक्ला को हटाने की कार्यवाही शुरू करने का अनुरोध
किया है। एक आंतरिक जांच समिति ने उक्त न्यायाधीश को कदाचार का दोषी पाया है। न्यायाधीश
को हटाने की एक सांविधानिक प्रक्रिया है। सरकार उस दिशा में कार्यवाही करेगी, पर
इस पत्र ने न्यायपालिका के भीतर बैठे भ्रष्टाचार की तरफ देश का ध्यान खींचा है।
इस दौरान एक और पत्र रोशनी
में आया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस रंगनाथ पांडेय ने जजों की नियुक्तियों पर गंभीर
सवाल उठाए हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर कहा है कि प्रचलित
कसौटी परिवारवाद और जातिवाद से ग्रसित है। उन्होंने
लिखा है कि 34 साल के सेवाकाल में मुझे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के ऐसे जजों को देखने का
अवसर मिला है, जिनकी कानूनी जानकारी संतोषजनक नहीं है।
सवाल तीन हैं। न्याय-व्यवस्था को राजनीति और सरकारी दबाव से परे किस तरह रखा
जाए? जजों की नियुक्ति को पारदर्शी कैसे बनाया जाए? तीसरे और सबसे
महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति तक न्याय किस तरह से उपलब्ध कराया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है। प्रशासनिक कुशलता और राजनीतिक ईमानदारी के
बगैर हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे।
मुकदमों में देरी क्यों?
नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड के अनुसार इस हफ्ते 10 जुलाई तक देश की अदालतों
में तीन करोड़ बारह लाख से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन पड़े थे। इनमें 76,000 से
ज्यादा केस 30 साल से ज्यादा पुराने हैं। यह मान लें कि औसतन एक मुकदमे में कम से
कम दो या तीन व्यक्ति पक्षकार होते हैं तो देश में करीब 10 करोड़ लोग मुकदमेबाजी
के शिकार हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है।
सामान्य व्यक्ति के नजरिए
से देखें तो अदालती चक्करों से बड़ा चक्रव्यूह कुछ नहीं है। एक बार फँस गए, तो
बरसों तक बाहर नहीं निकल सकते। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने
लोअर कोर्ट में पांच और अपील कोर्ट में दो साल में मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा
था। यह तभी सम्भव है जब प्रक्रियाएं आसान बनाई जाएं। न्याय व्यवस्था का संदर्भ
केवल आपराधिक न्याय या दीवानी के मुकदमों तक सीमित नहीं है। व्यक्ति को कारोबार का
अधिकार देने और मुक्त वातावरण में अपना धंधा चलाने के लिए भी उपयुक्त न्यायिक
संरक्षण की जरूरत है।