बारहवीं योजना के दस्तावेज़ में से क्रोनी कैपीटलिज़्म शब्द हटाया जा रहा है। इसका ज़िक्र भारतीय आर्थिक व्यवस्था और हाल के घोटालों के संदर्भ में हुआ था। इस पर कुछ मंत्रियों का कहना था कि इस शब्द का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे क्रोनी कैपीटलिज़्म का भारतीय व्यवस्था में चलन साबित होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई बार क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर आगाह कर चुके हैं। इसी 12 सितम्बर को उन्होंने हाइवे प्रोजेक्ट्स में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को लेकर क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर चेताया था। मनमोहन सिंह सन 2007 में इस प्रवृत्ति के खतरों की ओर चेता चुके हैं। आप कहेंगे वे खुद प्रधानमंत्री हैं और खुद सवाल उठा रहे हैं। पर सच यह है कि मनमोहन सिंह ने भारतीय पूँजी और राजनीति के रिश्तों पर कई बार ऐसी टिप्पणियाँ की हैं। हालांकि उदारीकरण का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फूटता है, पर यह काजल की कोठरी है और इसमें बगैर दाग वाली कमीज़ किसी ने नहीं पहनी है। बहरहाल क्या हम योजना आयोग के दस्तावेज़ से यह शब्द हटाकर व्यवस्था को पारदर्शी बना सकते हैं? पिछले कुछ दिनों में यह बात बार-बार सामने आ रही है कि उदारीकरण का मतलब संसाधनों का कुछ परिवारों के नाम स्थानांतरण नहीं है। हमारा आर्थिक विकास रोज़गार पैदा करने में विफल रहा है। पर क्या ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, मायावती और बीजेपी व्यव्स्था को पारदर्शी बनाना चाहते हैं? क्या उनके विरोध के पीछे कोई आदर्श है? या यह सब ढोंग है?
Monday, September 24, 2012
आर्थिक नहीं, संकट राजनीतिक है
Sunday, September 23, 2012
आनन्द बाज़ार का एबेला
शायद यह टाइम्स ऑफ इंडिया के बांग्ला बाज़ार में प्रवेश की पेशबंदी है या नए पाठकों की तलाश। आनन्द बाज़ार पत्रिका ने एबेला नाम से नया दैनिक पत्र शुरू किया है, जिसका लक्ष्य युवा पाठक हैं। यह पूरी तरह टेब्लॉयड है। रूप और आकार दोनों में। हिन्दी में जागरण के आई नेक्स्ट, अमर उजाला के कॉम्पैक्ट, भास्कर के डीबी भास्कर और हिन्दुस्तान के युवा की तरह। पर इन सबके मुकाबले बेहतर नियोजित।
बेनेट कोलमैन का इरादा इस साल के अंत तक बांग्ला अखबार शुरू करने का है। किसी ज़माने में कोलकाता से नवभारत टाइम्स भी निकलता था। पर टाइम्स ग्रुप हिन्दी के बजाय बांग्ला में जाना चाहता है। टाइम्स हाउस का बांग्ला अखबार कैसा होगा, वह किस वर्ग को टार्गेट करेगा और कब आएगा इस पर कयास हीं हैं। बीसीसीएल के चीफ मार्केटिंग राहुल कंसल को उद्धृत करते हुए जो खबरें आई हैं उनके अनुसार टाइम्स हाउस इस अखबार की सम्भावनाओं को समझ रहा है। पहले अनुमान था कि यह 15 अगस्त तक आ जाएगा और इसका नाम समय होगा। बहरहाल उससे पहले एबेला आ गया है।
Saturday, September 22, 2012
रास्ता कहाँ है?
1991 के बाद शुरू हुए आर्थिक सुधारों पर इस समय चल रही बहस पर हाल में सामने आए घोटालों की छाया है। कुछ लोग इन सारे घोटालों का कारण उदारीकरण को मान रहे हैं और कुछ लोग मानते हैं कि उदारीकरण के कारण ये घोटाले सामने आए हैं। पहले ये सामने नहीं आते थे। इसके अलावा यह भी कि सरकरारी निर्णय प्रक्रिया पुराने ढर्रे पर ही चल रही है। उसमें भी सुधार की ज़रूरत है। प्रधानमंत्री ने कहा कि कड़े फैसले करने होंगे। पर क्या जनता जानती है कि कड़े फैसलों का मतलब क्या होता है? उसे दाल-आटे के भाव में ही कड़े या मुलायम फैसले नज़र आते हैं।
Friday, September 21, 2012
जी कस्तूरी का निधन
'हिन्दू' अपने किस्म का अनोखा अखबार है और मेरे विचार से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अखबारों में एक है। कोई अखबार अच्छा या खराब अपने मालिकों के कारण होता है। इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका, आनन्द बाज़ार पत्रिका के सरकार परिवार, टाइम्स हाउस के साहू जैन और उससे पहले डालमिया परिवार, मलयालम मनोरमा के केसी मैमन मैपिल्लै का परिवार और हिन्दुस्तान टाइम्स के बिड़ला परिवार की भूमिका मीडिया के कारोबार के अलावा पत्रकारिता को उच्चतर मूल्यों से जोड़ने में रही है। पर हिन्दू के मालिकों में कुछ अलग बात रही। जी कस्तूरी पत्रकारिता के पुराने ढब में ढले थे, जिसमें अपने व्यक्तित्व को पीछे रखा जाता है। उनके निधन से भारतीय पत्रकारिता ने बहुत कुछ खो दिया है। बेशक कारोबारी बयार ने हिन्दू को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है, पर देश में कोई अखबार इस आँधी में बचा है तो वह हिन्दू है। और इसका श्रेय जी कस्तूरी को जाता है।
Thursday, September 20, 2012
भारत बंद यानी अक्ल पर पड़ा ताला
जनता परेशान है। महंगाई की मार उसे जीने नहीं दे रही। इसलिए बंद। व्यापारियों को डर है कि खुदरा कारोबार में एफडीआई से उनके कारोबार पर खतरा है। बंद माने रेलगाड़ियाँ रोक दो। बसों को जला दो। दुकानें बंद करा दो भले ही दुकानदार उन्हें खोलना चाहे। भले ही जनता को ज़रूरी चीज़ें खरीदनी हों। देश का एक लोकप्रिय नारा है, माँग हमारी पूरी हो, चाहे जो मज़बूरी हो। जनता की परेशानियों को लेकर राजनीतिक दलों का विरोध समझ में आता है, पर रेलगाड़ियाँ रोकना क्या जनता की परेशानी बढ़ाना नहीं है? जिन प्रश्नों को लेकर पार्टियाँ बंद आयोजित करती हैं क्या उन्हें लेकर वे जनता को जागरूक बनाने का काम भी करती हैं?
इस बंद में भाजपा, सपा, वामपंथी दल, जेडीयू, जेडीएस, डीएमके और अन्ना डीएमके शामिल हैं। इन पार्टियों की जिन राज्यों में सरकार है वहाँ बंद को सफल होना ही है, क्योंकि वह सरकारी काम है। जिन सवालों पर बंद है उन्हें लेकर ये पार्टियाँ जनता के बीच कभी नहीं गईं। बीजेपी ने किसीको नहीं बताया कि सिंगिल ब्रांड रिटेल में एफडीआई तो हमारी देन है। इन पार्टियों में से सीपीएम और दो एक दूसरी पार्टियों को छोड़ दें तो प्रायः सबने दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सुख प्राप्त किया है। कांग्रेस और बीजेपी के अलावा संयुक्त मोर्चा सरकार में ये सारी पार्टियाँ थीं, जिनके वित्तमंत्री पी चिदम्बरम हुआ करते थे। सबने उदारीकरण का समर्थन किया, उसे आगे बढ़ाया। पेंशन बिल भी तो बीजेपी की देन है। तब कांग्रेस ने उसका विरोध किया था। राजनीति का पाकंड ऐसे मौकों पर वीभत्स रूप में सामने आता है।
जनता के सवालों को उठाना राजनीति का काम है, पर क्या हमारी राजनीति जनता के सवालों को जानती है? राजनीतिक नेताओं का अहंकार बढ़ता जा रहा है। उनके आचरण में खराबी आती जा रही है। सबकी निगाहों अगले चुनाव पर हैं। सबको अपनी गोटी फिट करने की इच्छा है। आप सोचें क्या वास्तव में इस बंद से जनता सहमत है या थी?
इस बंद में भाजपा, सपा, वामपंथी दल, जेडीयू, जेडीएस, डीएमके और अन्ना डीएमके शामिल हैं। इन पार्टियों की जिन राज्यों में सरकार है वहाँ बंद को सफल होना ही है, क्योंकि वह सरकारी काम है। जिन सवालों पर बंद है उन्हें लेकर ये पार्टियाँ जनता के बीच कभी नहीं गईं। बीजेपी ने किसीको नहीं बताया कि सिंगिल ब्रांड रिटेल में एफडीआई तो हमारी देन है। इन पार्टियों में से सीपीएम और दो एक दूसरी पार्टियों को छोड़ दें तो प्रायः सबने दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सुख प्राप्त किया है। कांग्रेस और बीजेपी के अलावा संयुक्त मोर्चा सरकार में ये सारी पार्टियाँ थीं, जिनके वित्तमंत्री पी चिदम्बरम हुआ करते थे। सबने उदारीकरण का समर्थन किया, उसे आगे बढ़ाया। पेंशन बिल भी तो बीजेपी की देन है। तब कांग्रेस ने उसका विरोध किया था। राजनीति का पाकंड ऐसे मौकों पर वीभत्स रूप में सामने आता है।
जनता के सवालों को उठाना राजनीति का काम है, पर क्या हमारी राजनीति जनता के सवालों को जानती है? राजनीतिक नेताओं का अहंकार बढ़ता जा रहा है। उनके आचरण में खराबी आती जा रही है। सबकी निगाहों अगले चुनाव पर हैं। सबको अपनी गोटी फिट करने की इच्छा है। आप सोचें क्या वास्तव में इस बंद से जनता सहमत है या थी?
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