Tuesday, December 28, 2021

बांग्लादेश के उदय का ऐतिहासिक महत्व

बांग्लादेश की स्थापना के पचास वर्ष पूरे होने पर तमाम बातें भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के लिए विचारणीय हैं। विभाजन की निरर्थकता या सार्थकता पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करने समय है। भारत में धर्मनिरपेक्षता और बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में इस्लामिक राज-व्यवस्था को लेकर बहस है। अफगानिस्तान में हाल में हुआ सत्ता-परिवर्तन भी विचारणीय है। भारतीय उपमहाद्वीप में चलने वाली हवाएं अफगानिस्तान पर भी असर डालती हैं। सवाल है कि इस क्षेत्र के लोगों की महत्वाकांक्षाएं क्या हैं? इलाके की राजनीति क्या उन महत्वाकांक्षाओं से मेल खाती है? दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक के उत्तराधिकारियों के पास इक्कीसवीं सदी में सपने क्या हैं वगैरह?

विभाजन की निरर्थकता

बांग्लादेश की स्थापना के साथ भारतीय भूखंड के सांप्रदायिक विभाजन की निरर्थकता के सवाल पर जितनी गहरी बहस होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।   विभाजन के बाद पाकिस्तान दो भौगोलिक इकाइयों के रूप में सामने आया था। हालांकि इस्लाम उन्हें जोड़ने वाली मजबूत कड़ी थी, पर सांस्कृतिक रूप से दोनों के बीच फर्क भी था। पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान शुरू से ही पश्चिम में था। बंगाली मुसलमानों का बहुमत होने के बावजूद पश्चिम की धौंसपट्टी चलती थी।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी काफी लोग बांग्लादेश की स्थापना को भारत की साजिश मानते हैं। ज़ुल्फिकार अली भुट्टो या शेख मुजीब की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या ऐसा ही कुछ और। केवल साजिशों और महत्वाकांक्षाओं की भूमिका थी, तो बांग्लादेश 50 साल तक बचा कैसे रहा? बचा ही नहीं रहा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विकास की कसौटी पर वह पाकिस्तान को काफी पीछे छोड़ चुका है, जबकि 1971 तक वह पश्चिमी पाकिस्तान से काफी पीछे था। मोटे तौर पर समझने के लिए 1971 में पाकिस्तान की जीडीपी 10.66 अरब डॉलर और बांग्लादेश की 8.75 अरब डॉलर थी। 2020 में पाकिस्तान की जीडीपी 263.63 और बांग्लादेश की 324.24 अरब डॉलर हो गई। इसके अलावा मानवीय विकास के तमाम मानकों पर बांग्लादेश बेहतर है।

प्रति-विभाजन?

क्या यह प्रति-विभाजन है? विभाजन की सिद्धांततः पराजय 1948 में ही हो गई थी। मुहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में ढाका विवि में कहा कि किसी को संदेह नहीं रहना चाहिए कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी और उर्दू के साथ बांग्ला को भी देश की राष्ट्रभाषा बनाने की माँग करने वाले देश के दुश्मन हैं। इस भाषण से बांग्लादेश की नींव उसी दिन पड़ गई थी और यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है।

भारत-बांग्लादेश रिश्तों में विलक्षणता है। दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं। 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस था, और आज भी खुद को भारत के विपरीत साबित करना चाहता है। अपने ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं। ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें ऐसी एकता पसंद नहीं, हमारे यहाँ और उनके यहाँ भी।

बांग्लादेश के कुछ विश्लेषक, शेख हसीना के विरोधी खासतौर से मानते हैं कि पिछले एक दशक में बांग्लादेश पर भारत का असर कुछ ज़्यादा ही बढ़ा है। सवाल है कि इन दिनों जो मैत्री नजर आ रही है, वह क्या केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो उनके बाद क्या होगा?     

कड़वाहट बदस्तूर

दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट बदस्तूर है। नफरतें अब भी हैं और एकतरफा नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके ‘भारत में अपनापन’ भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका ‘भारत-विरोधी’ भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश के नाम पर भड़कता है।

पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही ‘विजय’ कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है।

भारत से रिश्ते

पाकिस्तान से अलग होने का मतलब यह नहीं कि बांग्लादेश पूरी तरह भारत का दोस्त या पिछलग्गू बन गया। भारत के साथ उसके रिश्तों में तमाम पेच हैं। बांग्लादेश की स्वतंत्रता के बाद 1972 में भारत-बांग्लादेश के बीच 25-वर्ष की एक मैत्री-संधि हुई थी। उस संधि के बाद 1973 में एक व्यापार समझौता हुआ और 1974 में मुजीब-इंदिरा सीमा समझौता हुआ। इन समझौतों में भविष्य की योजनाएं थीं। शेख मुजीब का शासन चलता, तो वे योजनाएं आगे बढ़तीं, पर 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद रिश्ते बदल गए। भारत-विरोधी ताकतें सक्रिय हो गईं। उसके बाद 2009 में अवामी लीग की सरकार की वापसी तक जितनी सरकारें भी वहाँ बनीं उन्होंने इतिहास को विकृत करने का काम किया और अपने नागरिकों के मन में भारत के प्रति घृणा भरने का काम किया।

स्वतंत्र देश बनने के बाद बांग्लादेश ने धर्मनिरपेक्षता को अंगीकार किया था, पर 1975 में शेख मुजीब की हत्या के बाद व्यवस्था बदली और 1988 में फौजी शासक एचएम इरशाद ने इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म घोषित कर दिया। अब अवामी लीग सरकार के सूचना मंत्री मुराद हसन ने कहा कि देश में 1972 के धर्मनिरपेक्ष संविधान की वापसी और राष्ट्रीय धर्म के तौर पर इस्लाम की मान्यता ख़त्म होगी।

मुराद हसन ने यह घोषणा गत 14 अक्टूबर को की थी। ऐसे वक़्त में, जब देश में ईशनिंदा की अफ़वाहों को लेकर हिंदुओं पर हमले हो रहे हैं। जवाब में जमात-ए-इस्लामी और हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम जैसे कट्टरपंथी समूहों ने धमकी दी कि बिल पेश किया तो खून की नदियाँ बहेंगी। शेख हसीना धर्मनिरपेक्षता की वापसी चाहती हैं, पर क्या अवामी लीग के भीतर इस प्रश्न पर आम सहमति हैकहना मुश्किल है।

लोकतांत्रिक-व्यवस्था

अफगानिस्तान का अनुभव है कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारें यदि आत्मरक्षा न कर पाएं, तो उनका अस्तित्व दाँव पर रहता है। बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार ने बहुत बड़ा संकल्प हाथ में ले लिया है। देश में कट्टरपंथियों का मुकाबला करने वाला एक बड़ा प्रगतिशील तबका भी मौजूद है। क्या वे कट्टरपंथियों को काबू में रख पाएंगी और कब तक? देश में अगले चुनाव 2023 में होंगे। क्या वे भविष्य में सत्ता पर काबिज रहेंगी?

दक्षिण एशिया में भारत का सबसे बड़ा व्यापार-सहयोगी बांग्लादेश है। दोनों देशों के बीच सड़क, रेल और हवाई रास्ते खुल रहे हैं। म्यांमार होते हुए थाईलैंड तक जाने वाले राजमार्ग की योजना है, पर कई सवाल खड़ा हैं। क्या वह हमारा सहयोगी देश बना रहेगा? पिछला चुनाव जीतने के बाद शेख हसीना ने कहा था कि 2023 के बाद मेरी दिलचस्पी प्रधानमंत्री बनने में नहीं है।

उनके नेतृत्व में बांग्लादेश ने आर्थिक प्रगति की है और कट्टरपंथी तबकों को काबू में किया है, पर उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों का रक्षक नहीं माना जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ से 9 और 10 दिसंबर को हुए लोकतांत्रिक देशों के शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान को बुलाया गया, बांग्लादेश को नहीं। तुर्रा यह कि पाकिस्तान ने चीन के प्रति अपना समर्थन दिखाने के लिए सम्मेलन का बहिष्कार किया, जबकि बांग्लादेश इसमें शामिल होने को उत्सुक था।

नवजीवन में प्रकाशित

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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