Friday, December 3, 2021

कांग्रेस के बगैर क्या ममता सफल होंगी?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बुधवार 1 दिसंबर को मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता शरद पवार से मुलाक़ात के बाद पत्रकारों से कहा, "यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है।" पत्रकारों ने उनसे पूछा था कि क्या शरद पवार को यूपीए का नेतृत्व करना चाहिए? इसके जवाब में ममता बनर्जी ने यूपीए पर ही सवाल उठा दिया। साथ ही कांग्रेस को लगभग खारिज करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि सभी क्षेत्रीय पार्टियां साथ आ जाएं तो बीजेपी को आसानी से हराया जा सकता है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस 2012 में ही यूपीए से अलग हो चुकी थी, पर यूपीए का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, पर उससे जुड़े कई सवाल हैं। मसलन महाराष्ट्र में महाराष्ट्र विकास अघाड़ी की सरकार है यूपीए की नहीं।

तृणमूल नेताओं का कहना है पार्टी के विस्तार को कांग्रेस के खिलाफ कदम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। पर ममता बनर्जी ने बयान दिया कि बीजेपी से लड़ने की इच्छा रखने वाले हर नेता का वह स्वागत करेंगी। साफ है कि पार्टी की रणनीति में यह नया बदलाव है। अलबत्ता ममता बनर्जी ने महाराष्ट्र में जो आक्रामक मुद्रा अपनाई उससे बीजेपी के बजाय विरोधी दलों में तिलमिलाहट नजर आ रही है।

राहुल पर हमला

कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व पर सीधा हमला बोलते हुए ममता ने कहा कि ज्यादातर समय विदेश में बिताते हुए आप राजनीति नहीं कर सकते। उनका इशारा राहुल गांधी की तरफ था। ममता ने कहा, "आज जो परिस्थिति चल रही है देश में, जैसा फासिज्म चल रहा है, इसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत वैकल्पिक ताक़त बनानी पड़ेगी, अकेला कोई नहीं कर सकता है, जो मज़बूत है उसे लेकर करना पड़ेगा।"

ममता बनर्जी इन दिनों पश्चिम बंगाल के बाहर राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा ले रही हैं। उन्होंने स्वयं बाहर के कई दौरे किए हैं और विरोधी दलों के नेताओं से मुलाक़ात की है। राजनीतिक विश्लेषक इसे ममता बनर्जी की विपक्ष की राजनीति में कांग्रेस की जगह लेने की कोशिश के रूप में देखते हैं। साथ ही यह भी कि ममता बनर्जी अपनी स्थिति को मजबूत बना रही हैं, ताकि आने वाले समय में उन्हें कांग्रेस के साथ सौदेबाजी करनी पड़े, तो अच्छी शर्तों पर हो। 

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस यूपीए का हिस्सा रही है, लेकिन साल 2012 में वे इससे अलग हो गईं। पर कांग्रेस के साथ मनमुटाव उसके भी काफी पहले से शुरू हो चुका था। सन 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में यह साफ नजर आने लगा, जब ममता बनर्जी और मुलायम सिंह ने मिलकर एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे कर दिया था। 2014 और फिर 2019 चुनावों में बीजेपी की जीत के बाद ये गठबंधन सिमट गया है.

क्या है यूपीए?

2004 में बनीं राजनीतिक परिस्थितियों के जवाब में कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए बना था। चार वामदलों- सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने गठबंधन का समर्थन तो किया लेकिन सरकार में शामिल नहीं हुए. वामदलों ने सरकार का समर्थन करने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम-सीएमपी) पर हस्ताक्षर किए। यह समझौता 14 मई 2004 को हुआ था।

यूपीए में कांग्रेस और लेफ्ट के अलावा 14 पार्टियां शामिल हुईं. ये थीं- आरजेडी, डीएमके, एनसीपी, पीएमके, टीआरएस, जेएमएम, एमडीएमके, एआईएमआईएम, पीडीपी, आईयूएमएल, केसी (जे), आरपीआई (जी) और आरपीआई (ए)। अपने गठन के बाद से ही यूपीए ने कई चुनौतियों का सामना किया है। शुरुआत में वामदल बाहर से समर्थन देने के बावजूद इसके महत्वपूर्ण साझीदार थे, लेकिन 2008 में अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील के मसले पर वे इससे अलग हो गए। इतना ही नहीं कई सहयोगी दलों ने अपनी बात मनवाने के लिए दबाव की राजनीति का भी इस्तेमाल किया।

बीजेपी के ख़िलाफ़ बने इस गठबंधन के नेता पहले इसके नाम में सेक्युलर शब्द का इस्तेमाल करना चाहते थे, लेकिन तमिल नेता एम करुणानिधि ने यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस का सुझाव दिया और सभी ने यह नाम स्वीकार कर लिया।

तेलंगाना राष्ट्र समिति ने तेलंगाना प्रांत की मांग को लेकर 2006 में गठबंधन छोड़ दिया। 2007 में एमडीएमके के नेता वाइको सरकार पर सीएमपी पर ना चलने के आरोप लगाते हुए गठबंधन से अलग हो गए। 2009 में जम्मू-कश्मीर की पीडीपी और तमिलनाडु की पीएमके गठबंधन से अलग हो गईं। 2009 में हुए चुनावों में कांग्रेस ने अपनी ताक़त बढ़ाते हुए 206 सीटें हासिल कीं, तब  गठबंधन में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस भी शामिल हो गईं। ममता बनर्जी ने 2012 में गठबंधन से समर्थन वापस ले लिया था, फिर डीएमके समेत कई और घटक अलग-अलग मुद्दों पर गठबंधन से अलग हुए।

यूपीए है या नहीं है?

2014 के चुनाव के बाद से कांग्रेस की ताकत क्षीण होती गई है, वही हाल यूपीए का भी हुआ है। समाजवादी पार्टी, राजद और वाममोर्चा जैसे दल हालांकि यूपीए में नहीं हैं, पर वे मौके-बेमौके यूपी की मदद करते रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस भी कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष दलों की बैठकों में शामिल होती रही है, लेकिन इस साल पश्चिम बंगाल में जब कांग्रेस ने वामदलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, तबसे तृणमूल के रुख में सख्ती आ गई है। संसद के शीतकालीन सत्र से पहले जब कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों की बैठक हुई तो टीएमसी इससे दूर रही। टीएमसी नेता डेरेक ओ ब्रायन ने तो ट्वीट करके यह स्पष्ट किया कि टीएमसी कांग्रेस की सहयोगी नहीं है।

अब तृणमूल की नाराज़गी ने कांग्रेस की जगह लेने की कोशिश का रूप धारण कर लिया है। ऐसा क्यों हुआ, अभी यह स्पष्ट नहीं है। तृणमूल कांग्रेस के सलाहकार प्रशांत किशोर ने कुछ समय पहले राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी से मुलाकात की थी, जिसे लेकर पहले कयास लगाए गए कि वे कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। बाद में जानकारी मिली कि वे तृणमूल की कोई योजना लेकर आए थे।

प्रशांत किशोर के हिंदू में प्रकाशित इंटरव्यू से लगता है कि पहले वे राहुल गांधी को अपनी योजना में शामिल करना चाहते थे, पर बाद में विचार बदल गया। इसके बाद तृणमूल ने कांग्रेस पार्टी के नेताओं को तोड़ना शुरू कर दिया। इसकी शुरुआत सुष्मिता देव से हुई। और अब ममता बनर्जी का कहना है कि कोई यूपीए नहीं है। शरद पवार और ममता बनर्जी के बीच हुई बैठक में क्या बात हई है अभी यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन ममता के शरद पवार से मिलने को भी एक व्यापक गठबंधन की संभावनाओं को ज़रूर बल मिला है। शरद पवार ने काफी सतर्क होकर बातें की हैं, पर वे ममता के साथ खड़े नजर आते हैं। विरोधी दलों के नेता शायद अभी इंतजार कर रहे हैं कि हालात किस दिशा में जाएंगे।

तृणमूल या कांग्रेस?

अब दो सवाल हैं। पहला यह कि क्या कांग्रेस के नेतृत्व में बीजेपी-विरोधी गठबंधन को सफलता मिल सकती है? चूंकि कांग्रेस का लगातार क्षरण हो रहा है और पार्टी के चुनाव में सफलता नहीं मिल रही है, इसलिए यह सवाल है। पर फिर यह सवाल खड़ा होता है कि क्या कांग्रेस को नजरंदाज करके क्या बीजेपी-विरोधी गठबंधन को सफल बनाया जा सकता है?  दोनों बातें अधूरी अवधारणाओं पर आधारित हैं। सच यह है कि बीजेपी के खिलाफ पूरे देश में एक मोर्चा बना पाना अभी तक मुश्किल नजर आ रहा है।

चूंकि ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में सफलता हासिल की है, इसलिए उनका आत्मविश्वास बढ़ा हुआ है। दूसरे वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति बढ़ा रही हैं। उधर कांग्रेस मानकर चल रही है कि वह पुराने जमाने की कांग्रेस है। वह अपनी गिरावट को देख नहीं पा रही है। उसके भीतर से ही काफी लोग आने वाले समय में तृणमूल में चले जाएं, तो कोई आश्चर्य नहीं। अलबत्ता देखना होगा कि तृणमूल के पास पश्चिम बंगाल से बाहर जाकर संगठन बनाने की क्षमता है भी या नहीं। वह अपने ऊपर लगे क्षेत्रीय पार्टी के लेबल को किस प्रकार बदलेगी, इसे देखना होगा।

मोदी की मुखबिर?

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अधीर रंजन चौधरी ने ममता बनर्जी पर उनकी टिप्पणी 'कोई यूपीए नहीं है' के लिए हमला बोला और कहा कि पश्चिम बंगाल की सीएम 'पीएम मोदी की मुखबिर' हैं और विपक्ष की एकता को तोड़ने की कोशिश कर रही हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस  के पास राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय वोटों का केवल 4% है, जबकि कांग्रेस के पास अभी भी देश के लोकप्रिय वोटों का 20% है। उन्होंने आगे टीएमसी सुप्रीमो से सवाल भी किया और कहा- "क्या आप 20% वोटों के इस हिस्से के बिना मोदी से लड़ सकते हैं?" उन्होंने कहा, "वह मोदी की मुखबिर बनकर कांग्रेस और विपक्ष को तोड़ना और कमजोर करना चाहती हैं।"

इससे पहले बुधवार को चौधरी ने आरोप लगाया था कि ममता बनर्जी कांग्रेस पार्टी को कमजोर करना चाहती हैं और एनसीपी प्रमुख शरद पवार  को मामले में घसीटा जा रहा है। ममता बनर्जी और शरद पवार ने मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और एनडीए के खिलाफ तीसरे मोर्चे के गठन का संकेत दिया था। यह पूछे जाने पर कि इस मामले में शरद पवार का नाम क्यों घसीटा जा रहा है, अधीर रंजन चौधरी ने मीडिया से कहा, "यह पवार को बदनाम करने की ममता की साजिश है।"

 

 

 

 

 

 

 

No comments:

Post a Comment