Monday, June 8, 2020

लपटों से घिरा ट्रंप का अमेरिका


लम्बे अरसे से साम्यवादी कहते रहे हैं, पूँजीवाद हमें वह रस्सी बनाकर बेचेगा, जिसके सहारे हम उसे लटकाकर फाँसी देंगे। इस उद्धरण का श्रेय मार्क्स, लेनिन, स्टैलिन और माओ जे दुंग तक को दिया जाता है और इसे कई तरह से पेश किया जाता है। आशय यह कि पूँजीवाद की समाप्ति के उपकरण उसके भीतर ही मौजूद हैं। पिछली सदी के मध्यकाल में मरणासन्न पूँजीवाद और अंत का प्रारम्भ जैसे वाक्यांश वामपंथी खेमे से उछलते रहे। हुआ इसके विपरीत। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया को लगा कि अंत तो कम्युनिज्म का हो गया।

उस परिघटना के तीन दशक बाद पूँजीवाद का संकट सिर उठा रहा है। अमेरिका में इन दिनों जो हो रहा है, उसे पूँजीवाद के अंत का प्रारम्भ कहना सही न भी हो, पश्चिमी उदारवाद के अंतर्विरोधों का प्रस्फुटन जरूर है। डोनाल्ड ट्रंप का उदय इस अंतर्विरोध का प्रतीक था और अब उनकी रीति-नीति के विरोध में अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिकों का आंदोलन उन अंतर्विरोधों को रेखांकित कर रहा है। पश्चिमी लोकतंत्र के सबसे पुराने गढ़ में उसके सिद्धांतों और व्यवहार की परीक्षा हो रही है।

इसके दो रूप देखने को मिले हैं। एक तरफ अमेरिकी पुलिस ने जॉर्ज फ़्लॉयड नामक अश्वेत नागरिक के साथ इतनी सख्ती बरती कि उसकी जान चली गई। उसके बाद देशभर में आंदोलनों का आग लग गई, जिसे बुझाने के लिए असाधारण कदम उठाए गए। शहरों में कर्फ्यू लगाया गया। ट्रंप ने सेना बुलाने की धमकी दी है। दूसरी तरफ मायामी पुलिस ने घुटनों पर बैठकर लोगों के गुस्से और मांगों को समझने और इस लड़ाई में साथ देने का संकेत भी दिया। हाउस्टन के पुलिस चीफ ने डोनाल्ड ट्रंप को अपना मुँह बंद रखने की सलाह दी। राष्ट्रपति चुनाव के साल में अमेरिकी सामाजिक जीवन में ऐसी कड़वाहट जबर्दस्त ध्रुवीकरण का संकेत दे रही है।

राष्ट्रपति पद पर काम करते हुए डोनाल्ड ट्रंप के पहले तीन साल अपेक्षाकृत शांति से निकल गए। आंतरिक राजनीति में कई तरह के विरोधों का सामना करते हुए भी ट्रंप ने इस साल के शुरू में अमेरिकी संसद में महाभियोग को परास्त करने में सफलता प्राप्त कर ली। कोरोना वायरस के प्राणघातक प्रहार और अब देश-विदेश व्यापी प्रदर्शनों ने उनके सामने मुश्किलों के पहाड़ खड़े कर दिए हैं। मानवाधिकार उल्लंघनों के लिए चीन को फटकार लगाने वाले ट्रंप को  वैश्विक फटकार सुननी पड़ रही है।

आई कांट ब्रीद
मिनेपॉलिस में जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत का वायरल वीडियो गवाही दे रहा है कि अमेरिकी पुलिस किस हद तक अमानवीय है। आंदोलनकारी सड़कों पर फ़्लॉयड के आख़िरी शब्द आई कांट ब्रीद का मंत्र की तरह जाप कर रहे हैं। दुनिया के किसी भी कोने में पुलिस के ऐसे कृत्य की भर्त्सना करने में अमेरिका सबसे आगे रहता था। अब वह देखे कि उसके घर में क्या हो रहा है? रोचक बात यह है कि मानवाधिकार के धर्मयुद्ध में अमेरिका के साथ खड़े होने वाले देशों ने अभी तक इस मामले पर टिप्पणी नहीं की है। पश्चिमी देश पहले सन्नाटे में आ गए और उनकी टिप्पणियों में अफसोस ज्यादा है, नाराजगी कम। क्या पश्चिमी लोकतंत्र को इस आंदोलन से ठेस लगेगी? क्या यह उसकी संरचनात्मक विफलता है? क्या चीन जैसे देशों को बचाव का मौका मिल गया है?

डोनाल्ड ट्रंप राजनीतिक चक्रव्यूह में घिर गए हैं। इसका असर चुनाव पर पड़ेगा।  पर किस दिशा में? आंदोलन में हिंसा और लूटपाट भी हुई है और पुलिस अत्याचार भी। खामोश बहुमत किस बात को महत्व देगा? अश्वेतों और लैटिन अमेरिकी मूल के नागरिकों का वोट पहले से ही उनके खिलाफ है। देश का परम्परागत गोरा मन क्या ट्रंप का साथ देगा? अनुभव कहता है कि अमेरिका में शांतिपूर्ण प्रदर्शनों का असर बेहतर होता है, हिंसक प्रदर्शनों का नहीं। क्या ट्रंप शांति-व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर जनता का समर्थन जीतने में कामयाब होंगे? आंदोलन का एक असर कोरोना से बचाव के लिए लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग की रणनीति पर भी पड़ेगा। जिस तरह भारत में प्रवासी मजदूरों की भीड़ बगैर किसी सुरक्षात्मक व्यवस्था के निकल पड़ी थी, वैसे ही दृश्य अमेरिका में दिखाई पड़ रहे हैं।

घायल अर्थव्यवस्था
सबसे बड़ा असर अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा, जिसे बचाने के लिए ट्रंप ने कोरोना से बचाव के बजाय सामना करने का फैसला किया था। नैया को किनारे लगाना आसान काम नहीं है। इन पंक्तियों के लिखने तक आंदोलनों की लहर थमी नहीं थी, बल्कि उसका विस्तार यूरोप और एशिया के देशों में भी हो गया था। लॉकडाउन के कारण बेरोजगार हुए लाखों लोगों की नाराजगी बाहर आ रही है। दुकानें लूटी जा रही हैं, सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया जा रहा है। पुलिस के साथ आमने-सामने की मुठभेड़ें हो रही हैं। लंदन के ट्रैफेल्गर स्क्वायर से लेकर जर्मनी और फ्रांस के शहरों में भी विरोध प्रदर्शन हुए हैं।

इस मामले की शुरुआत 20 डॉलर के नोट के इस्तेमाल की रिपोर्ट से हुई थी, जिसके बारे में अनुमान था कि वह जाली है। 25 मई के शाम को जॉर्ज ने एक किराने की दुकान से सिगरेट खरीदा था। दुकान में मौजूद कर्मचारी को लगा कि जॉर्ज जाली नोट दे रहे हैं और उसने पुलिस को फ़ोन कर दिया। कुछ देर के बाद दो पुलिस वाले वहाँ पहुँच गए। जॉर्ज दो अन्य लोगों के साथ किनारे खड़ी गाड़ी में बैठे हुए थे।

पुलिस अधिकारी टॉमस लेन ने कार की ओर बढ़ते हुए अपनी बंदूक निकाल ली और जॉर्ज को हाथ खड़ा करने को कहा। पुलिस का कहना है कि हम उन्हें गिरफ्तार करना चाहते थे, पर फ़्लॉयड ने हथकड़ी लगाने का विरोध किया। जॉर्ज ज़मीन पर गिर गए और कहने लगे कि उन्हें क्लॉस्टेरोफोबिया (बंद जगह में डरना) है। 46 वर्षीय फ़्लॉयड की मौत के ठीक पहले के क्षणों का एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें पुलिसकर्मी डेरेक शॉविन अपने घुटने से उसकी गर्दन दबा रहा है। जॉर्ज उनसे कह रहे हैं मेरा दम घुट रहा है।

लूट करोगे, तो शूट मिलेगा
जॉर्ज पहले टेक्सास के हाउस्टन में रहते थे, जहाँ से मिनेसोटा के मिनेपॉलिस आ गए थे और बाउंसर का काम करते थे, पर कोरोना की वजह से बेरोजगार थे। पुलिस अधिकारी डेरेक शॉविन को गिरफ्तार कर लिया गया है और उन पर हत्या के आरोप लगाए गए हैं।

डोनाल्ड ट्रंप ने शुरू में इस मामले को हल्के में लिया। उनके एक ट्वीट ने आग में घी का काम किया जिसमें उन्होंने प्रदर्शनकारियों को ठग बताया और इस मौत के संदर्भ में एक मुहावरे को शामिल किया, ह्वेन द लूटिंग स्टार्ट्स, शूटिंग स्टार्ट्स लिखा। बाद में वे इसकी सफाई देते रहे और ट्विटर ने एक चेतावनी के साथ उनके ट्वीट को दबा दिया। पर उनकी बात का विपरीत प्रभाव होना था, जो हो गया।

अमेरिका में अश्वेत व्यक्तियों की मौत की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले फरवरी में हथियारबंद गोरों ने 25 साल के अहमद आर्बेरी का पीछा कर उन्हें गोली मार दी थी। मार्च के महीने में ब्रेओना टेलर नामक अश्वेत महिला को घर में घुसकर पुलिस अधिकारी गोली मार दी। उसे किसी मामले में एक अपराधी की तलाश थी।

नस्ली भेदभाव
इन घटनाओं ने अमेरिकी समाज और क़ानूनी एजेंसियों में नस्ली भेदभाव की चर्चा फिर से छेड़ दी है। अमेरिका में पुलिस की अमानवीयता को लेकर 1965 में लॉस एंजेलस के उपनगरीय क्षेत्र वॉट्स में उपद्रव हुए थे, जिसमें 34 लोगों की जान गई थी। मरने वाले ज्यादातर अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक थे। इसके बाद 1967 में न्यूजर्सी के नुआर्क और डेट्रॉयट, 1990 में वायनवुड, 1992 में लॉस एंजेलस में दंगे हुए। सन 2014 में फर्गुसन, मिजूरी में माइकेल ब्राउन और 2016 में मिनेसोटा में फिलैंडो कास्टीले की गोली मारकर हत्या की गई। न्यूयॉर्क शहर में एरिक गार्नर नामक व्यक्ति की मौत हुई। उसने भी मरने से पहले कहा था, आई कांट ब्रीद।

अश्वेतों के ख़िलाफ़ पुलिस की बर्बरता के मुद्दे पर 1966 में ओकलैंड में ब्लैक पैंथर पार्टी बनी, जो करीब 16 साल तक सक्रिय रही। माइकल ब्राउन की हत्या के बाद 'ब्लैक लाइव मैटर्स' अस्तित्व में आया। वॉशिंगटन पोस्ट ने जनवरी 2015 में पुलिस क गोली से होने वाली मौतों का डेटाबेस बनाना शुरू किया था। हालांकि यह डेटाबेस अब नियमित रूप से अपडेट नहीं होता, पर इसके अनुसार सन 2019 में पुलिस की गोली से 1004 लोग मारे गए। इस डेटाबेस से कई प्रकार के सामाजिक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, जिनका सार है कि विश्व के सबसे ज्यादा विकसित देश अमेरिका में अश्वेतों का जीवन असुरक्षित है।

1 comment:

  1. हम अभी वहीं हैं जहाँ से शुरु हुऐ थे। दिखावे की दुनियाँ और गाँधीवाद की कब्र की तैयारियाँ यही सब दिखायेंगी। सटीक पोस्ट।

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